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Last Updated : शनिवार, 22 फ़रवरी 2020 (13:27 IST)

16 वर्षीय संत ज्ञानेश्वर के 1400 वर्षीय शिष्य चांगदेव महाराज की कहानी

Changdev maharaj | 16 वर्षीय संत ज्ञानेश्वर के 1400 वर्षीय शिष्य चांगदेव महाराज की कहानी
यह कहानी महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानेश्वर से जुड़ी हुई है। ज्ञानेश्वर का जन्म 1275 ईस्वी में महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में पैठण के पास आपेगांव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। 21 वर्ष की आयु में ही संसार का त्यागकर समाधि ग्रहण कर ली थी। इन 21 वर्षीय संत के 1400 वर्षीय संत चांगदेव महाराज शिष्य थे। जानिए रोचक कथा।
 
 
कहते हैं कि संत चांगदेव की उम्र 1400 वर्ष थी। उन्होंने अपनी सिद्धि और योगबल से मृत्यु के 42 बार लौटा दिया था। वे एक महान सिद्ध संत थे लेकिन उन्हें मोक्ष नहीं मिला था। वे कहीं एक गुफा में ध्यान और तप किया करते थे और उनके लगभग हजारों शिष्य थे। उन्होंने अपने योगबल से यह जान लिया था कि उनकी उम्र जब 1400 वर्ष की होगी तब उन्हें गुरु मिलेंगे।
 
चांगदेव ने संत ज्ञानेश्वर की कीर्ति और उनकी महिमा के चर्चे सुने तो उनका मन उनसे मिलने को हुआ। लेकिन चांगदेव के शिष्यों ने कहा आप एक महान संत हैं और वह एक बालक है। आप कैसे उसे मिलने जा सकते हैं? यह आपकी प्रतिष्ठा को शोभा नहीं देता। यह सुनकर चांगदेव महाराज अहंकार के वश में आ गए। 
 
फिर उन्होंने सोच की क्यों न संत ज्ञानेश्‍वर को पत्र लिखा जाए। पत्र लिखते वक्त वह असमंजस में पड़ गए कि संत को संबोधन में क्या लिखें। आदरणीय, पूज्य, प्रणाम या चिरंजीवी। समझ में नहीं आ रहा था कि पत्र का प्रारंभ कहां से करें। क्योंकि उस वक्त ज्ञानेश्वरजी की आयु 16 वर्ष ही थी। चिरंजीवी कैसे लिखें क्योंकि वे तो एक महान संत हैं। बहुत सोचा लेकिन समझ नहीं आया तब उन्होंने पत्र को यूं ही खाली कोरा ही भेज दिया। 
 
वह पत्र उनकी बहिन मुक्ताबाई के हाथ लगा। मुक्ताबाई भी संत थी। उन्होंने पत्र का उत्तर दिया- आपकी अवस्था 1400 वर्ष है परंतु फिर भी आप इस पत्र की भांति कोरे के कोरे ही हैं।
 
यह पत्र पढ़कर चांगदेव महाराज के मन में ज्ञानेश्‍वर से मिलने की उत्कंठा और बढ़ गई। तब वे अपनी सिद्धि के बल पर एक बाघ पर सवार होकर और उस बाघ को सर्प की लगाम लगाकर संत ज्ञानेश्‍वर से मिलने के लिए निकले। उनके साथ उनके शिष्य भी थे। चांगदेव को अपनी सिद्धि का बढ़ा गर्व था।
 
जब संत ज्ञानेश्वरजी को ज्ञात हुआ कि चांगदेव मिलने आ रहे हैं। तब उन्हें लगा कि आगे बढकर उनका स्वागत-सत्कार करना चाहिए। उस समय सन्त ज्ञानेश्वर जिस भीत पर (चबूतरा) बैठे थे, उस भीत को उन्होंने चलने का आदेश दिया। उस चबूतरे पर उनकी बहिन मुक्ताबाई और दोनों भाई निवृत्तिनाथ एवं सोपानदेव भी बैठे थे। चबूतरा खुद-ब-खुद चलने लगा।
 
जब चांगदेव ने चबूतरे को चलते देखा, तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। तब उन्हें विश्वास हो गया कि संत ज्ञानेश्वर मुझसे श्रेष्ठ हैं क्योंकि, उनका निर्जीव वस्तुओं पर भी अधिकार है। मेरा तो केवल जीवित प्राणियों पर अधिकार है। 
 
उसी पल चांगदेव महाराज के ज्ञानेश्वरजी के चरण छुए और वे उनके शिष्य बन गए। कहते हैं कि ऐसा दृश्य देखकर चांगदेव के शिष्य उनसे रुष्ठ होकर उन्हें छोड़कर चले गए थे।
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