ब्रह्मा (ब्रह्म नहीं) हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। ये हिन्दुओं के 3 प्रमुख देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से एक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है। सृष्टि रचयिता से मतलब सिर्फ जीवों की सृष्टि से है। तीनों देवताओं में ब्रह्माजी का चित्रण प्रथम और सबसे वृद्ध देवता के रूप में किया गया है।
बहुत से लोग ब्रह्मा और सरस्वती की कहानी को सारा और अब्राहम से जोड़कर देखते हैं। राजा मनु की कहानी को नूह से जोड़कर देखते हैं और आदम की कहानी को स्वायंभुव मनु से जोड़कर देखते हैं। हालांकि इसमें कितनी सचाई है, यह हम नहीं जानते। खैर...
अक्सर देवता (सुर) और दैत्य (असुर) प्रतिद्वंदिता के चलते अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए ब्रह्मा की तपस्या करके उनसे अजर-अमर होने का वरदान प्राप्त करते रहते हैं। इसके अलावा भी सामान्य मनुष्यों ने भी ब्रह्मा की तपस्या करके वरदान हासिल किए हैं। हम यहां बताएंगे ब्रह्मा के वे 10 वरदान जिनके कारण देवता ही नहीं, खुद ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मुसीबत में पड़ गए थे।
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हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु को दिया वरदान : ब्रह्माजी ने ऋषि कश्यप के असुर पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु को अजर-अमर होने के वरदान दिया था जिसके चलते दोनों भाइयों ने संपूर्ण धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित कर खुद को ईश्वर घोषित कर दिया था। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। देवी-देवता, मानव-वानर आदि सभी त्रस्त हो चले थे।
तब भगवान विष्णु को इनका वध करने के लिए अवतार लेना पड़ा। हिरण्याक्ष को मारने के लिए वराह अवतार और हिरण्यकशिपु को मारने के लिए नृसिंह अवतार लेना पड़ा। दोनों की कहानी से आप अवगत ही होंगे। नहीं हैं तो उपरोक्त लिंक पर क्लिक करें...।
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तारकासुर : तारकासुर असुरों में सबसे शक्तिशाली असुर था। उसके अत्याचारों से सभी देवी-देवता त्रस्त हो गए थे। सभी ने ब्रह्माजी की शरण ली। ब्रह्माजी ने कहा कि शिवजी से प्रार्थना करो, क्योंकि शिव-पार्वती का पुत्र ही तारकासुर का वध कर सकता है।
लेकिन उस वक्त शिवजी गहन समाधि में थे। उनकी समाधि तोड़ने की कौन हिम्मत कर सकता था। उनकी समाधि तोड़ना भी जरूरी थी, क्योंकि उनकी समाधि टूटने के बाद ही शिव-पार्वती का मिलन होता और फिर उनसे जो पुत्र उत्पन्न होता, वह देवताओं का सेनापति बनता।
तब देवताओं ने युक्ति अनुसार कामदेव को समाधि भंग करने के लिए राजी कर लिया। देवताओं के कहने पर कामदेव ने उनकी समाधि भंग कर दी, लेकिन उसे शिव के क्रोध कर सामना करना पड़ा और अपना शरीर गंवाना पड़ा।
क्रोध शांत होने के बाद सभी देवता शिवजी के पास गए। उन्होंने शिवजी से प्रार्थना की कि तारकासुर हमें परेशान कर रहा है। आपका पुत्र ही इस समस्या का समाधान कर सकता है, ऐसा ब्रह्माजी का वरदान है।
देवताओं की प्रार्थना का असर शिवजी पर हुआ। देवताओं की प्रार्थना से ही शिव दूल्हा बने और उन्होंने पार्वती से विवाह किया। शिव-पार्वती के पुत्र हुए कार्तिकेय। कार्तिकेय देवताओं की सेना के सेनापति बने। उन्होंने तारकासुर का वध कर देवताओं को असुरों के भय से मुक्त कर दिया।
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त्रिपुरासुर : असुर बालि की कृपा प्राप्त त्रिपुरासुर भयंकर असुर थे। महाभारत के कर्ण पर्व में त्रिपुरासुर के वध की कथा बड़े विस्तार से मिलती है। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।
तीनों ने खूब विचार कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजीत नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!
शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। इन तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोकों को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते, समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी उनके लोकों से बाहर निकाल दिया।
सभी देवताओं ने मिलकर अपना सारा बल लगाया, लेकिन त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके और अंत में सभी देवताओं को तीनों से छुप-छुपकर रहना पड़ा। अंत में सभी को शिव की शरण में जाना पड़ा। भगवान शंकर ने कहा- सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते?
देवताओं ने कहा- यह हम करके देख चुके हैं। तब शिव ने कहा- मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूं और तुम फिर प्रयास करके देखो, लेकिन संपूर्ण देवता सदाशिव के आधे बल को संभालने में असमर्थ रहे। तब शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया।
सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष-बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। इस असंभव रथ का पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है।
पृथ्वी को ही भगवान ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरू पर्वत धनुष और वासुकि बने उस धनुष की डोर। इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं द्वारा संभाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।
उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजीत नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए।
त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे, वहां 'रुद्राक्ष' का वृक्ष उग आया। 'रुद्र' का अर्थ शिव और 'अक्ष' का अर्थ आंख अथवा आत्मा है।
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महिषासुर : असुर सम्राट रंभ और उसके भाई करंभ ने अग्नि और वरुण देव को प्रसन्न कर उनसे वरदान प्राप्त किया था। जहां अग्निदेव को प्रसन्न करने के लिए असुर रंभ ने आग के छल्ले में बैठकर कठोर तप किया था, वहीं करंभ ने जल के भीतर रहकर वरुण देव के लिए तपस्या की थी। अंत में इन्द्रदेव ने मगरमच्छ का रूप लेकर करंभ का वध किया था और बाद में इन्द्र के वज्र के वार से रंभ की मृत्यु हुई थी। पानी में रहने वाली भैंस और असुर सम्राट रंभ की संतान महिषासुर ने भी घोर तपस्या की।
रंभासुर का पुत्र था महिषासुर, जो अत्यंत शक्तिशाली था। उसने अमर होने की इच्छा से ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। ब्रह्माजी उसके तप से प्रसन्न हुए। वे हंस पर बैठकर महिषासुर के निकट आए और बोले- 'वत्स! उठो, इच्छानुसार वर मांगो।' महिषासुर ने उनसे अमर होने का वर मांगा।
ब्रह्माजी ने कहा- 'वत्स! एक मृत्यु को छोड़कर, जो कुछ भी चाहो, मैं तुम्हें प्रदान कर सकता हूं, क्योंकि जन्मे हुए प्राणी का मरना तय होता है।' महिषासुर ने बहुत सोचा और फिर कहा- 'ठीक है प्रभो। देवता, असुर और मानव किसी से मेरी मृत्यु न हो। किसी स्त्री के हाथ से मेरी मृत्यु निश्चित करने की कृपा करें।' ब्रह्माजी 'एवमस्तु एव' कहकर अपने लोक चले गए।
वर प्राप्त करके लौटने के बाद महिषासुर समस्त दैत्यों का राजा बन गया। उसने दैत्यों की विशाल सेना का गठन कर पाताल और मृत्युलोक पर आक्रमण कर समस्त को अपने अधीन कर लिया। फिर उसने देवताओं के इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। इस युद्ध में भगवान विष्णु और शिव ने भी देवताओं का साथ दिया लेकिन महिषासुर के हाथों सभी को पराजय का सामना करना पड़ा और देवलोक पर भी महिषासुर का अधिकार हो गया। वह त्रिलोकाधिपति बन गया।
भगवान विष्णु ने सभी देवताओं के साथ मिलकर सबकी आदि कारण भगवती महाशक्ति की आराधना की। सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य तेज निकलकर एक परम सुन्दरी स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। हिमवान ने भगवती की सवारी के लिए सिंह दिया तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र महामाया की सेवा में प्रस्तुत किए। भगवती ने देवताओं पर प्रसन्न होकर उन्हें शीघ्र ही महिषासुर के भय से मुक्त करने का आश्वासन दिया।
भगवती दुर्गा हिमालय पर पहुंचीं और अट्टहासपूर्वक घोर गर्जना की। महिषासुर के असुरों के साथ उनका भयंकर युद्ध छिड़ गया। एक-एक करके महिषासुर के सभी सेनानी मारे गए। फिर विवश होकर महिषासुर को भी देवी के साथ युद्ध करना पड़ा। महिषासुर ने नाना प्रकार के मायिक रूप बनाकर देवी को छल से मारने का प्रयास किया लेकिन अंत में भगवती ने अपने चक्र से महिषासुर का मस्तक काट दिया।
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रक्तबीज : रक्तबीज का नाम तो आपने सुना ही होगा। वह बड़ा ही भयानक असुर था। भूमि पर उसके रक्त की एक भी बूंद गिरती तो उस रक्त से उसी के समान एक और राक्षस पैदा हो जाता। इस तरह युद्ध में उसकी जब हजारों बूंदें गिरीं तो हजारों राक्षस पैदा होकर हाहाकार मचाने लगे। यह भयानक मंजर देखकर देवता भी घबराने लगे। सभी सोच में पड़ गए कि इसे कैसे मारा जाए?
यह रक्तबीज दरअसल अपने पूर्व जन्म में असुर सम्राट रंभ था जिसको इन्द्र ने तपस्या करते वक्त धोखे से मार दिया था। रक्तबीज के रूप में उसने फिर से घोर तपस्या की और यह वरदान प्राप्त किया कि उसके शरीर की एक भी बूंद अगर धरती पर गिरती है तो उससे एक और रक्तबीज उत्पन्न होगा।
अंत में महादेव के कहने पर माता काली ने रक्तबीज का वध किया था। शक्ति की अवतार मां काली ने रक्तबीज का सिर काटकर उसके रक्त का पान किया ताकि उसके शरीर की एक भी बूंद धरती का स्पर्श न कर सके।
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रावण को मिला वरदान : एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों रावण, कुंभकर्ण और विभीषण से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो। माता की आज्ञा मान तीनों पुत्र भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए।
विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे। उन्होंने 5 हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद 5 हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ ऊपर रखकर तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए। विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांग लिया। विभीषण श्रीराम के भक्त बने और आज भी वे अजर-अमर हैं।
कुंभकर्ण ने इन्द्र पद की अभिलाषा से अपनी इंद्रियों को वश में रखकर 10 हजार वर्षों तक कठोर तप किया। उसके कठोर तप से भयभीत होकर इन्द्रादि देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना कि कुंभकर्ण के वर मांगते समय आप उनकी जिह्वा पर विराजमान होकर देवताओं का साथ देना। तब वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिह्वा पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निंद्रासन मांग लिया।
इधर, रावण ने अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप किया। ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। वो प्रत्येक 11वें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी 10 हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिए। उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा।
तब रावण ने कहा कि देव, दानव, दैत्य, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, यक्ष आदि सभी दिव्य शक्तियां उसका वध न कर सके। रावण मनुष्य और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था इसलिए वरदान में उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। रावण ने अपनी शक्ति के बल पर शनि और यमराज को भी हरा दिया था।
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शुंभ और निशुंभ : शुंभ और निशुंभ नामक दो बड़े ही भयानक दैत्य थे जिन्होंने कठोर तप करके भगवान ब्रह्मा से वरदान हासिल किया था। दोनों भाई यह मानते थे कि हमारा अंत कोई स्त्री कैसे कर सकती है? उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं हो सकती तो इसलिए उन्होंने यह वरदान मांगा कि कोई भी पुरुष, देवता, राक्षस, दानव, असुर उनका वध न कर पाए।
बस फिर क्या था। इन दोनों भाइयों के आतंक से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। इन तीनों के आतंक को खत्म करने के लिए ही अंत में मां दुर्गा का अवतार हुआ था। शुंभ और निशुंभ की तरह की धूम्रलोचन, चंड और मुंड भी वरदान प्राप्त भयंकर असुर थे जिसका वध कर माता भगवती 'चामुंडा' नाम से प्रसिद्ध हुईं।
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गयासुर : पौराणिक मान्यताओं और किंवदंतियों के अनुसार भस्मासुर के वंशजों में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पापमुक्त हो जाएं।
यह वरदान मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्रकृति के नियमों के विपरीत होने लगा। लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे। इससे बचने के लिए यज्ञ करने को देवताओं ने गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की।
गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पांच कोस जगह आगे चलकर गया बना, परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे।
श्राद्ध के माध्यम से यह पर्व हमें अपने पितृ से जोड़ता है। इस तरह श्राद्ध की परंपरा अपने प्रियजनों और परिवार के प्रति स्नेह, श्रद्धा भाव से ओत-प्रोत करती है। जो भी लोग यहां पर किसी के तर्पण की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितृ को पिंड देने के लिए गया आते हैं।
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दारुक असुर : एक बार दारुक नाम के असुर ने ब्रह्मा को प्रसन्न कर शक्तिशाली होने का वरदान प्राप्त किया और कहा कि मेरी मृत्यु किसी से भी न हो। ब्रह्मा ने जब अजर-अमर होने का वरदान देने से इंकार किया तो उसने कहा कि अच्छा ऐसा करें कि मेरी मृत्यु किसी स्त्री से ही हो। ब्रह्मा ने कहा- तथास्तु। दारुक को घमंड था कि मुझे तो कोई स्त्री मार ही नहीं सकती।
वरदान से वह देवताओं और विप्रजनों को प्रलय की अग्नि के समान दु:ख देने लगा। उसने सभी धार्मिक अनुष्ठान बंद करा दिए तथा स्वर्गलोक में अपना राज्य स्थापित कर लिया। सभी देवता ब्रह्मा और विष्णु के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने बताया कि यह दुष्ट केवल स्त्री दवारा मारा जाएगा। तब ब्रह्मा और विष्णु सहित सभी देव स्त्री रूप धारण कर दुष्ट दारुक से लड़ने गए, लेकिन दैत्य अत्यंत बलशाली था और उसने उन सभी को परास्त कर भगा दिया।
ब्रह्मा, विष्णु समेत सभी देव भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंचे तथा उन्हें दैत्य दारुक के विषय में बताया। भगवान शिव ने उनकी बात सुन मां पार्वती की ओर देखा। तब मां पार्वती मुस्कराईं और अपने एक अंश को भगवान शिव में प्रविष्ट कराया। मां भगवती का वह अंश भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर उनके कंठ में स्थित विष से अपना आकार धारण करने लगा। विष के प्रभाव से वह काले वर्ण में परिवर्तित हुआ। भगवान शिव ने उस अंश को अपने भीतर महसूस कर अपना तीसरा नेत्र खोला। उनके नेत्र द्वारा भयंकर-विकरालरूपी व काली वर्ण वाली मां काली उत्पन्न हुईं। मां काली के भयंकर व विशाल रूप को देख सभी देवता व सिद्ध लोग भागने लगे।
मां काली के केवल हुंकार मात्र से दारुक समेत सभी असुर सेना जलकर भस्म हो गई। मां के क्रोध की ज्वाला से संपूर्ण लोक जलने लगा। उनके क्रोध से संसार को जलता देख भगवान शिव ने एक बालक का रूप धारण किया। शिव श्मशान में पहुंचे और वहां लेटकर रोने लगे। इस रोने के कारण ही उनका नाम 'रुरु भैरव' पड़ा। जब मां काली ने शिवरूपी उस बालक को देखा तो वह उनके उस रूप से मोहित हो गईं। वात्सल्य भाव से उन्होंने शिव को अपने हृदय से लगा लिया तथा अपने स्तनों से उन्हें दूध पिलाने लगीं। भगवान शिव ने दूध के साथ ही उनके क्रोध का भी पान कर लिया। उनके उस क्रोध से 8 मूर्ति हुई, जो क्षेत्रपाल कहलाई।
शिवजी द्वारा मां काली का क्रोध पी जाने के कारण वे मूर्छित हो गईं। देवी को होश में लाने के लिए शिवजी ने शिव तांडव किया। होश में आने पर मां काली ने जब शिव को नृत्य करते देखा तो वे भी नाचने लगीं जिस कारण उन्हें 'योगिनी' कहा गया।
श्री लिंगपुराण अध्याय 106 के अनुसार उस क्रोध से शिवजी के 52 टुकड़े हो गए, वही 52 भैरव कहलाए। तब 52 भैरव ने मिलकर भगवती के क्रोध को शांत करने के लिए विभिन्न मुद्राओं में नृत्य किया तब भगवती का क्रोध शांत हो गया। इसके बाद भैरवजी को काशी का आधिपत्य दे दिया तथा भैरव और उनके भक्तों को काल के भय से मुक्त कर दिया तभी से वे भैरव, 'कालभैरव' भी कहलाए।
अगले पन्ने पर दसवां वरदान...
कामदेव को वरदान : पौराणिक कथाओं के अनुसार कामदेव भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के पुत्र माने जाते हैं। उनका विवाह रति, जिन्हें प्रेम और आकर्षण की देवी कहा जाता है, से हुआ है। कामदेव को अर्द्धदेव या गंधर्व भी कहा जाता है, जो स्वर्गवासियों में कामेच्छा उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं। कुछ कथाओं में यह भी उल्लिखित है कि कामदेव स्वयं ब्रह्माजी के पुत्र हैं और इनका संबंध भगवान शिव से भी है। ये तोते के रथ पर मकर (मछली) के चिह्न से अंकित लाल ध्वजा लगाकर विचरण करते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय ब्रह्माजी प्रजा वृद्धि की कामना से ध्यान मग्न थे। उसी समय उनके अंश से तेजस्वी पुत्र काम उत्पन्न हुए और कहने लगे कि मेरे लिए क्या आज्ञा है? तब ब्रह्माजी बोले कि मैंने सृष्टि उत्पन्न करने के लिए प्रजापतियों को उत्पन्न किया था किंतु वे सृष्टि रचना में समर्थ नहीं हुए इसलिए मैं तुम्हें इस कार्य की आज्ञा देता हूं। यह सुन कामदेव वहां से विदा होकर अदृश्य हो गए।
यह देख ब्रह्माजी क्रोधित हुए और शाप दे दिया कि तुमने मेरा वचन नहीं माना इसलिए तुम्हारा जल्दी ही नाश हो जाएगा। शाप सुनकर कामदेव भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर ब्रह्मा के समक्ष क्षमा मांगने लगे। कामदेव की अनुनय-विनय से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें रहने के लिए 12 स्थान देता हूं- स्त्रियों के कटाक्ष, केश राशि, जंघा, वक्ष, नाभि, जंघमूल, अधर, कोयल की कूक, चांदनी, वर्षाकाल, चैत्र और वैशाख महीना। इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने कामदेव को पुष्प का धनुष और 5 बाण देकर विदा कर दिया।
ब्रह्माजी से मिले वरदान की सहायता से कामदेव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे और भूत, पिशाच, गंधर्व, यक्ष सभी को काम ने अपने वशीभूत कर लिया। फिर मछली का ध्वज लगाकर कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ संसार के सभी प्राणियों को अपने वशीभूत करने बढ़े। इसी क्रम में वे शिवजी के पास पहुंचे। भगवान शिव तब तपस्या में लीन थे तभी कामदेव छोटे से जंतु का सूक्ष्म रूप लेकर कर्ण के छिद्र से भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गए। इससे शिवजी का मन चंचल हो गया।
उन्होंने विचार धारण कर चित्त में देखा कि कामदेव उनके शरीर में स्थित है। इतने में ही इच्छा शरीर धारण करने वाले कामदेव भगवान शिव के शरीर से बाहर आ गए और आम के एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गए। फिर उन्होंने शिवजी पर मोहन नामक बाण छोड़ा, जो शिवजी के हृदय पर जाकर लगा। इससे क्रोधित हो शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से उन्हें भस्म कर दिया।
कामदेव को जलता देख उनकी पत्नी रति विलाप करने लगी। तभी आकाशवाणी हुई जिसमें रति को रुदन न करने और भगवान शिव की आराधना करने को कहा गया। फिर रति ने श्रद्धापूर्वक भगवान शंकर की प्रार्थना की। रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो शिवजी ने कहा कि कामदेव ने मेरे मन को विचलित किया था इसलिए मैंने इन्हें भस्म कर दिया। अब अगर यह अनंग रूप में महाकाल वन में जाकर शिवलिंग की आराधना करेंगे तो इनका उद्धार होगा।
तब कामदेव महाकाल वन आए और उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से शिवलिंग की उपासना की। उपासना के फलस्वरूप शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम अनंग, शरीर के बिन रहकर भी समर्थ रहोगे। कृष्णावतार के समय तुम रुक्मणि के गर्भ से जन्म लोगे और तुम्हारा नाम प्रद्युम्न होगा।
अगले पन्ने पर ग्यारहवां वरदान...
दानवराज विप्रचिति : ब्रह्मा ने इसे भी वरदान दिया था। दानवराज विप्रचिति या विप्रजिति कश्यप और दनु के 100 पुत्रों में प्रमुख था। महाभारत में दनु के पुत्रों की संख्या 34 बताई गई है जिसमें इसे प्रमुख माना गया है। इसके भाइयों में ध्वज नामक दानव प्रमुख था। वृत्तासुर और इन्द्र से किए गए युद्ध में यह असुर पक्ष के साथ था। बलि, विरोचन एवं इन्द्र के युद्ध में भी यह शामिल था। वामन के द्वारा बलिबंधन के समय भी यह युद्ध करने के लिए तैयार हुआ था। अमृत मंथन (मत्स्य 245.31) के समय भी यह उपस्थित था।
अपनी सिंहिका नाम की पत्नी से इसे 101 पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो सैहिकेय नाम से विख्यात हुए। राहु और केतु भी इसी के पुत्र थे। ये सभी सैहिकेय राक्षस बने थे। भागवत के अतिरिक्त मत्स्य, ब्रह्म आदि पुराणों में इसके पुत्रों की संख्या 13 बताई गई है। हरिवंश, विष्णु एवं ब्रह्मांड में 12 बताई गई है।