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Written By WD

गणेश पूजा और उत्सव का इतिहास

गणेश पूजा और उत्सव का इतिहास -
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शिवपुराण अनुसार भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति भगवान गणेशजी का जन्म हुआ था। अपने माता-पिता की परिक्रमा लगाने के कारण शिव-पार्वती ने उन्हें विश्‍व में सर्वप्रथम पूजे जाने का वरदान दिया था। तभी से ही भारत में गणेश पूजा-आराधना का प्रचलन है। प्राचीनकाल में बालकों का विद्या-अध्ययन आज के दिन से ही प्रारंभ होता था।

हिन्दुओं के आदिदेव महादेव के पुत्र गणेशजी का स्थान विशिष्ट है। कोई भी धार्मिक उत्सव, यज्ञ, पूजन इत्यादि सत्कर्म हो या फिर विवाहोत्सव या अन्य मांगलिक कार्य हो, गणेशजी की पूजा के बगैर शुरू नहीं हो सकता। निर्विघ्न कार्य संपन्न हो इसलिए शुभ के रूप में गणेशजी की पूजा सबसे पहले की जाती है। भारत के ईश्‍वरवादी और अनीश्वरवादी दोनों ही धर्मों में गणेशजी की पूजा का प्रचलन और महत्व माना गया है।

भगवान शिव ने जहां कैलाश पर डेरा जमाया, तो उन्होंने कार्तिकेय को दक्षिण भारत की ओर शैव धर्म के प्रचार के लिए भेजा। दूसरी ओर गणेशजी ने पश्चिम भारत (महाराष्ट्र, गुजरात आदि), तो मां पार्वती ने पूर्वी भारत (असम-पश्चिम बंगाल आदि) की ओर शैव धर्म का विस्तार किया। कार्तिकेय ने हिमालय के उस पार भी अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। कार्तिकेय का एक नाम स्कंद भी है। उस पार स्कैंडेनेविया, स्कॉटलैंड आदि के क्षेत्र उनका उपनिवेश था।

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गणेशोत्सव आयोजन के प्रमाण हमें सातवाहन, राष्ट्रकूट तथा चालुक्य वंश के काल में मिलते हैं। महान मराठा शासक छत्रपति शिवाजी ने गणेशोत्सव को राष्ट्रीयता एवं संस्कृति से जोड़कर एक नई शुरुआत की। गणेशोत्सव का यह स्वरूप तब से इसी प्रकार कायम रहा और पेशवाओं के समय में भी जारी रहा। पेशवाओं के समय में गणेशजी को लगभग राष्ट्रदेव के रूप में दर्जा प्राप्त था, क्योंकि वे उनके कुलदेव थे। पेशवाओं के बाद 1818 से 1892 तक के काल में यह पर्व हिन्दू घरों के दायरे में ही सिमटकर रह गया।

ब्रिटिश काल में कोई भी हिन्दू सांस्कृतिक कार्यक्रम या उत्सव को साथ मिलकर या एक जगह इकट्ठा होकर नहीं मना सकते थे। पहले लोग घरों में ही गणेशोत्सव मनाते थे और गणेश विसर्जन करने का कोई रिवाज नहीं था।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में पुणे में पहली बार सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव मनाया। आगे चलकर उनका यह प्रयास एक आंदोलन बना और स्वतंत्रता आंदोलन में इस गणेशोत्सव ने लोगों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई। आज गणेशोत्सव एक विराट रूप ले चुका है।

गणेश विसर्जन : प्राचीनकाल से ही गणेशजी की पूजा का प्रचलन गणेश चतुर्थी के दिन नियत रहा है, लेकिन तब गणेशोत्सव नहीं मनाया जाता था। गणेश उत्सव की शुरुआत बाल गंगाधर तिलक ने की। यह गणेश उत्सव भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है। इस दौरान भगवान गणेश की मूर्ति को घर या चौराहों पर स्थापित कर चतुर्दशी को उसे जल में विसर्जित कर दिया जाता है, जो कि धर्मानुसार अनुचित माना जाता है। अंग्रेज काल में भारतीयों को एकजुट करने के लिए गणेशोत्सव जरूरी था। हालांकि अब यही प्रथा धर्म का एक अंग बन गई है।

विदेशों में गणेशजी की पूजा, अगले पन्ने पर...


गणेशजी की पूजा का प्रचलन सिर्फ गुजरात, महाराष्ट्र आदि सहित पश्चिम भारत में ही नहीं रहा। संपूर्ण भारत में गणेश पूजनीय और प्रार्थनीय माने गए हैं। इसके अलावा मध्य एशिया, चीन, जापान और मैक्सिको में हुई एक खुदाई में गणेश और लक्ष्मीजी की मूर्तियां पाई गई हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि गणेश पूजा का प्रचलन कितना व्यापक था। इसके अलावा कंबोडिया, बर्मा, मलेशिया, थाईलैंड, जावा, सुमात्रा, तिब्बत आदि भारतीय उपमहाद्वीप के राष्ट्रों में भी गणेश पूजा के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं।

अमेरिका की खोज करने वाले कोलम्बस से पूर्व ही वहां सूर्य, चंद्र तथा गणेश की मूर्तियां पहुंच गई थीं। विश्व के कई देश ऐसे भी हैं, जहां खुदाई के दौरान भारतीय देवताओं की मूर्तियां मिली हैं, लेकिन विशेषता यह रही है कि इनमें गणेशजी हर जगह विद्यमान थे। ये मूर्तियां हजारों वर्ष पूर्व की होने का अनुमान लगाया गया है।

पश्चिम में रोमन देवता ‘जेनस’ को गणपति के समकक्ष माना गया है। ऐसा माना जाता है कि जब भी इतालवी व रोमन पूजा-अर्चना करते थे, तो वे अपने इष्ट ‘जेनस’ का नाम लेते थे। 18वीं शताब्दी के संस्कृत के प्रकांड विद्वान विलियम जोन्स ने जेनस व गणेश की पारस्परिक तुलना करते हुए माना है कि गणेशजी में जो विशेषताएं पाई गई हैं, वे सभी जेनस में भी हैं। रोमन व संस्कृत शब्दों के उच्चारण में भी समानता पाई जाती है, जैसे जेनस और गणेश में।

‘गणेश-ए-मोनोग्राफ ऑफ द एलीफेन्ट फेल्ड गॉड’ के अनुसार विश्व के कई देशों में गणेश प्रतिमाएं बहुत पहले से पहुंच चुकी थीं और विदेशों में पाई जाने वाली गणेशजी की प्रतिमाओं में इनके विभिन्न स्वरूप अलग-अलग देखे गए हैं।

जावा में गणेश की मूर्तियों में वे पालथी मारकर बैठे दिखाए गए हैं, उनके दोनों पैर जमीन पर टिके हुए हैं व उनके तलुए आपस में मिले हुए हैं। हमारे देश में गणेशजी की मूर्तियों में उनकी सूंड प्राय: बीच में दाहिनी या बाईं ओर मुड़ी हुई है किंतु विदेशों में वह पूर्णतया सीधी, सिरे से मुड़ी हुई है।

जापान में गणेश को ‘कातिगेन’ नाम से पुकारा जाता है। यहां पर बनी गणेशजी की मूर्तियों में 2 या 4 हाथ दिखाए गए हैं। सन् 804 ईस्वी में जब जापान का कोबोदाइशि धर्म की खोज करने हेतु चीन गया तो उसे वहां वज्रबोधि और अमोधवज नामक भारतीय आचार्य विद्वानों द्वारा मूल ग्रंथों का चीनी अनुवाद करने का मौका मिला तो चीन की मंत्र विद्या प्रणाली में गणेशजी की महिमा को भी वर्णित किया गया।

सन् 720 ईस्वी में चीन की राजधानी लो-यांग अमोध्वज पहुंचा, जो भारतीय मूल का ब्राह्मण था जिसे चीन के कुआंग-फूं मंदिर में पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। बाद में अमोध्वज से एक चीनी धर्मपरायण व्यक्ति हुई-कुओ ने पहले दीक्षा ली, फिर उसने कोषोदाइशि को दीक्षा दी जिसने वहां के विभिन्न मठों से संस्कृत की पाडुंलिपियां एकत्र कीं व सन् 806 में जब वह जापान लौटा तो वज्र धातु के महत्वपूर्ण सूत्रों के साथ गणेशजी के चित्र भी साथ ले गया जिसे सुख-समृद्धि के रूप में माना गया।

जापान के कोयसान सन्तसुजी विहार में गणेश की 4 चित्रावलियां रखी गई हैं जिनमें युग्म गणेश, षड्भुज गणेश, चतुर्भुज गणेश तथा सुवर्ण गणेश प्रमुख हैं।

तिब्बत के हरेक मठ में भी गणेश पूजन की परंपरा काफी पुरानी है। यहां गणपति अधीक्षक के रूप में पूजे जाते हैं। नौवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में ही तिब्बत के अनेक स्थानों में गणेश पूजा का प्रचलन शुरू हो गया था। चीन के तुन-हू-आग में एक पहाड़ी पर गणेश मूर्तियां सन् 644 ईस्वी में स्थापित की गई थीं। गणेश की मूर्ति के नीचे चीनी भाषा में लिखा हुआ है कि ये हाथियों के अमानुष राजा हैं।

चीन में गणपति कांतिगेन कहलाते हैं। कम्बोडिया की प्राचीन राजधानी अंगारकोट में तो मूर्तियों का खजाना मिला है, उसमें भी गणेश के विभिन्न रंग-रूप पाए गए हैं। श्याम देश, जहां पर बसे भारतीयों ने वैदिक धर्म को कई सौ वर्ष पूर्व ही प्रचारित कर दिया था, के कारणवश यहां पनपी धार्मिक आस्था के फलस्वरूप यहां निर्मित की गई गणेश की मूर्तियां ‘आयूथियन’ शैली में दिखाई देती हैं। स्याम देश में वैदिक धर्म ‘राजधर्म’ के रूप में प्रसिद्ध था जिसके कारण यहां आज भी धार्मिक अनुष्ठान वैदिक रीति से ही संपन्न होते हैं

संदर्भ : वेबदुनिया ग्रंथालय