मंगलवार, 26 नवंबर 2024
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भारतीय धर्म और संस्कृति की 10 वेशभूषाएं

भारतीय धर्म और संस्कृति की 10 वेशभूषा | indian traditional dress
मानव सभ्यता को कपास की खेती तथा उनसे निर्मित सूती वस्त्र भी भारत की ही देन है। 5 हजार वर्ष पूर्व हड़प्पा के अवशेषों में चांदी के गमले में कपास, करघना तथा सूत कातना और बुनती का पाया जाना इस कला की पूरी कहानी दर्शाता है। वैदिक साहित्य में भी सूत कातने तथा अन्य प्रकार के साधनों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं। योरपीय लोगों को कपास की जानकारी ईसा से 350 वर्ष पूर्व सिकंदर महान के सैनिकों के माध्यम से हुई थी, तब तक योरप के लोग जानवरों की खालों से तन ढांकते थे। कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचलित हुआ, जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस। इसलिए यह कहना कि हर तरह के परिधानों का आविष्कार भारत में ही हुआ और भारतीय परिधानों का विकसित रूप ही हैं आज के आधुनिक परिधान, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भारतीय वस्त्रों के कलात्मक पक्ष और गुणवत्ता के कारण उन्हें अमूल्य उपहार माना जाता था। खादी से लेकर सुवर्णयुक्त रेशमी वस्त्र, रंग-बिरंगे परिधान, ठंड से पूर्णत: सुरक्षित सुंदर कश्मीरी शॉल भारत के प्राचीन कलात्मक उद्योग का प्रत्यक्ष प्रमाण थे, जो ईसा से 200 वर्ष पूर्व विकसित हो चुके थे। कई प्रकार के गुजराती छापों तथा रंगीन वस्त्रों का मिस्र में फोस्तात के मकबरे में पाया जाना भारतीय वस्त्रों के निर्यात का प्रमाण है।
 
परिधान का आविष्कार तो भारत में ही हुआ, लेकिन ग्रीक, रोमन, फारस, हूण, कुषाण, मंगोल, मुगल आदि के काल में भारतीय परिधानों की वेशभूषा में परिवर्तन होते रहे। हालांकि परिवर्तन के चलते कई नए वस्त्र में प्रचलन में आए और पहले की अपेक्षा भारतीयों ने इनमें खुद को ज्यादा आरामदायक महसूस भी किया लेकिन अंग्रेजों के काल में भारतीयों की वेशभूषा बिलकुल ही बदल गई।
 
पेंट, शर्ट, कोट और जींस को हम आधुनिक परिधान कहते हैं, पाश्चात्य नहीं। आधुनिकता और पाश्चात्यता में फर्क है। औद्योगिक क्रांति के दौर में ऐसे कई परिधान, वस्त्र या ड्रेस विकसित हुए जिन्हें आज हम पश्चिमी सभ्यता की देन कहते हैं। हालांकि हर तरह के परिधान पहनने में किसी भी प्रकार का कोई गुरेज नहीं, लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि हम क्यों पहनते हैं वैसे परिधान, जो हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाते हैं?
 
भाषा, भूषा, भोजन और भजन से ही हमारी पहचान है। मुगल और अंग्रेजों ने पहले हमारी भाषा बदली, फिर हमारी भूषा बदली और अब हम मुगल, पाश्चात्य संगत, संगीत के दीवाने हैं। पिज्जा-बर्गर, कोला और बीयर पी-खाकर खुद को आधुनिक समझते हैं। बाजार से भारतीय व्यंजन, पेय पदार्थ और देसी तड़का लगभग गायब हो गया है।
 
प्राकृतिक जीवन के सिद्धांत को देखा जाए तो पोशाक के संबंध में हमारे भारतीय मनीषियों को इसकी गहरी समझ थी। वे इसके मनोविज्ञान को जानते थे। वे प्रकृति के इस नियम को जानते थे कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए वायु, सूर्य और प्रकाश का हमारी देह से जितना संपर्क होता रहे, उतना ही अच्छा है। 
 
आजकल तो तंग वस्त्र पहनने का प्रचलन है। जब स्त्री अधिक तंग वस्त्र पहनती हैं तो इनके रोम छिद्रों से ऑक्सीजन ग्रहण नहीं की जाती है जिसके परिणामस्वरूप त्वचा में मेलोनिन का स्तर गिरने लगता है। यही नहीं, पुरुषों और स्त्रियों में कई रोगों का कारण ही ये तंग वस्त्र बन सकते हैं। जांघ व बाजू पर अधिक तंग वस्त्र तनाव, अवसाद, अनिद्रा, मोटापा, अल्सर आदि को बुलावा देते हैं। नाभि पर तंग कपड़ों से अफरा, गैस, कोलायटिस, कब्ज, बवासीर आदि हो सकता है। छाती पर तंग वस्त्र हृदयरोग, श्वास फूलना आदि का कारण बन सकते हैं। त्वचा पर अत्यधिक रोम छिद्र होते हैं जिनसे कि त्वचा ऑक्सीजन लेती है। इसी तरह परिधान के संबंध में ऐसी कई बातें हैं, जो यहां उल्लेखित की जा सकती है।
 
खैर...! अब हम यह बताएंगे कि हिन्दू धर्म में प्रत्येक कार्य, मौसम आदि के लिए अलग-अलग परिधानों का प्रावधान है। यदि आप उक्त परिधान या पोशाकों को पहनते हैं तो आपको अच्छा महसूस होगा। हालांकि हम यह भी बताएंगे कि अब कौन से परिधान या पहनावे प्रचलन से बाहर हो गए हैं।

सिर का पहनावा : सिर के पहनावे को कपालिका, शिरस्त्राण, शिरावस्त्र या शिरोवेष कहते हैं। यह कपालिका कई प्रकार की होती है। प्रत्येक प्रांत में यह अलग-अलग किस्म, नाम, रंग और रूप में होती है। राजा-महाराजाओं के तो एक से एक स्टाइल के टोप, पगड़ी या मुकुट हुआ करते थे लेकिन हम सामान्यजनों द्वारा पहने जाने वाले कपालिका के बारे में ही बात करेंगे। यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि टोपी और पगड़ी में फर्क होता है।
साफा : यदि हम साफे की बात करें तो मालवा में अलग प्रकार का और राजस्थान में अलग प्रकार का साफा बांधा जाता है। इसे पगड़ी या फेटा भी कहते हैं। महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, गुजरात में यह अलग होता है, तो तमिलनाडु में अलग। प्राचीनकाल और मध्यकाल में लगभग सभी भारतीय यह पहनते थे। राजस्थान में भी मारवाड़ी साफा अलग तो सामान्य राजस्थानी साफा अलग होता है। मुगलों ने अफगानी, पठानी और पंजाबी साफे को अपनाया। सिखों ने इन्हीं साफे को जड्डे में बदल दिया, जो कि उन्हें एक अलग ही पहचान देता है।
 
राजस्थान में राजपूत समाज में साफों के अलग-अलग रंगों व बांधने की अलग-अलग शैली का इस्तेमाल समय-समय के अनुसार होता है, जैसे युद्ध के समय राजपूत सैनिक केसरिया साफा पहनते थे अत: केसरिया रंग का साफा युद्ध और शौर्य का प्रतीक बना। आम दिनों में राजपूत बुजुर्ग खाकी रंग का गोल साफा सिर पर बांधते थे तो विभिन्न समारोहों में पचरंगा, चुंदड़ी, लहरिया आदि रंग-बिरंगे साफों का उपयोग होता था। सफेद रंग का साफा शोक का पर्याय माना जाता है इसलिए राजपूत समाज में सिर्फ शोकग्रस्त व्यक्ति ही सफेद साफा पहनता है।
मांगलिक और धार्मिक कार्यों में साफा : आज भी मांगलिक या धार्मिक कार्यों में साफा पहने जाने का प्रचलन है जिससे कि किसी भी प्रकार के रस्मोरिवाज में एक सम्मान, संस्कृति और आध्यात्मिकता की पहचान होती है। इसके और भी कई महत्व हैं। विवाह में घराती और बाराती पक्ष के सभी लोग यदि साफा पहनते हैं तो विवाह समारोह में चार चांद लग जाते हैं। इससे समारोह में उनकी एक अलग ही पहचान निर्मित होती है।
 
टोपी : टोपी सिर का एक ऐसा पहनावा है, जो कि अधिकतर भारतीय हमेशा पहने रखते हैं। जिस गांधी टोपी को गांधी टोपी कहा जाता है, गांधीजी ने उसे कभी नहीं पहना होगा। दरअसल, यह महाराष्ट्र के गांवों में पहनी जाने वाली टोपी है। इसी तरह हिमाचली टोपी, नेपाली टोपी, तमिल टोपी, मणिपुरी टोपी, पठानी टोपी, हैदराबादी टोपी आदि अनेक प्रकार की टोपियां होती हैं। 

कुर्ता एवं पायजामा : भारतीय सनातन संस्कृति का विशेष वस्त्र है कुर्ता एवं पजामा (पायजामा)। यह प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग शैली में पहना जाता है। कुर्ते को अफगानिस्तान में पैरहन, कश्मीर में फिरान और नेपाल में दौरा के नाम से जाना जाता है। राजस्थानी, भोपाली, लखनवी, मुल्तानी, पठानी, पंजाबी, बंगाली, हर कुर्ते की डिजाइन अलग होती है।
सलवार एवं कुर्ती : जिस तरह पुरुष कुर्ता और पायजामा पहनते हैं उसी तरह महिलाएं कुर्ती और पायजामे (सलवार) के साथ चुनरी, ओढ़नी या दुपट्टा भी पहनती हैं। यह महिलाओं के लिए अलग शैली में निर्मित होता है। पंजाबी शैली, उत्तर भारतीय शैली (स्टाइल) आदि में निर्मित सलवार-कुर्ती महिलाओं के लिए सबसे उत्तम वस्त्र माना गया है।
 
जम्मू और कश्मीर में ठंड अधिक होने के कारण वहां की महिलाएं व पुरुष 'पैरहन' पहनते हैं। यह पोशाक पहाड़ी इलाकों में काफी प्रसिद्ध है। कश्मीर की महिलाएं सिर को दुपट्टे से ढंककर पीछे से बांध लेती हैं। हालांकि वर्तमान में कट्टरपंथ के चलते वहां कश्मीरियत को छोड़कर अरबी संस्कृति के पहनावे पर जोर दिया जा रहा है। 'सलवार' नामक चौड़े पायजामे से पैर ढंका रहता था जबकि ऊपरी हिस्से में पूरे बांह की कमीज पहनी जाती थी। इसके ऊपर एक छोटा अंगरखा कोट होता था जिसे सदरी कहते थे। बाहरी लबादे को चोगा कहते थे, जो नीचे टखनों तक आता था। इसकी एक लंबी, ढीली आस्तीन होती थी और एक कमरबंद होता था। सर की पोशाक एक छोटे कपड़े से ढंकी छोटी चुस्त टोपी से बनी होती थी। इसी से पगड़ी बनती थी। 
 
कुर्ता और पायजामा पहनने से शरीर के चारों ओर दीर्घ वृत्ताकार (दीप की ज्योति समान) कवच निर्मित होता है। इसे पहनने से व्यक्ति आरामदायक अनुभव (कंफर्ट फिल) करता है। सेहत, शांति और मन की प्रसन्नता के लिए यह सबसे उत्तम वस्त्र है। कुर्ते सूती, ऊनी और रेशमी सभी तरह के सामग्रियों में मिलते हैं। कुर्ते के कई परिवर्धित रूप हैं जिनमें शेरवानी, पठानी सूट इत्यादि प्रचलित हैं।

धोती : प्राचीनकाल से ही भारत में पुरुषों द्वारा साधारणत: धोती, अंतरिय (शरीर के निचले हिस्से में लपेटा हुआ वस्त्र), उतरिय (शरीर के ऊपरी हिस्से में लपेटा हुआ वस्त्र), कमरबंध (जैसा कि नाम से जाहिर है कमर से बांधा हुआ) और पगड़ी पहने जाते थे। अंतरिय कमर पर कायाबंध द्वारा टिकाया जाता था, जो कि अक्सर सामने से कमर के मध्य भाग में बांधा जाता था। महिलाएं धोती, साड़ी, स्तनपट्टा (स्तनों को संभाले रखने के लिए) पहनती थीं। उपरोक्त वस्त्रों की खासियत यह थी कि ये सिले हुए नहीं होते थे, लेकिन बाद में इन वस्त्रों को पहनने के तरीके में काफी बदलाव आए। सबसे पहले धोती के ऊपर के वस्त्र में बदलाव आया। उतरिय वस्त्र की जगह कुर्ता पहने का प्रचलन हुआ। 
पहले पायजामे की जगह धोती पहनने का प्रचलन था। पुरुषों के लिए धोती एक ऐसा परिधान था, जो उत्तर और दक्षिण भारत में एकसाथ प्रचलित था। धोती को पहनने की स्टाइल अलग-अलग थी। दक्षिण भारत में तो आज भी अधिकतर लोग धोती ही पहनते हैं।
 
पायजामे की अपेक्षा रेशमी धोती अधिक सात्विक मानी गई है। उसे धारण करने से जीव की देह के सर्व ओर सूक्ष्म गोलाकार कवच निर्मित होता है। इससे जीव के लिए देवता के तारक-मारक एवं सगुण-निर्गुण दोनों तत्व ग्रहण करना सुलभ हो जाता है। उत्तर भारत में धोती को अब विशेष अवसरों पर ही पहना जाता है, जैसे किसी यज्ञ, पूजा या मांगलिक कार्य में। पहले धोती का रंग सिर्फ सफेद ही होता था लेकिन अब अच्छे से कास्तकारी की गई रंगीन धोती भी प्रचलन में है। त्योहार, यज्ञ, उपनयन, विवाह, वास्तु शांति जैसी धार्मिक विधि के समय इसे पहना जाता है, हालांकि आजकल यह प्रचलन से बाहर है।
 
दक्षिण भारत में पहने जाने वाली पोशाकें सूती वस्त्र से बनाई जाती हैं, जो काफी हल्की होती हैं। पुरुष लुंगी और कमीज के साथ अंगवस्त्र (कंधे पर रखा जाने वाला कपड़ा) को लेते हैं।
साड़ी : यजुर्वेद में सबसे पहले 'साड़ी' शब्द का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की संहिता के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी के साड़ी पहनने का विधान है और विधान के क्रम से ही साड़ी जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बनती चली गई। पौराणिक ग्रंथ महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण के प्रसंग से सिद्ध होता है कि साड़ी लगभग 3500 ईसा पूर्व से ही प्रचलन में है। हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव इसमें देखा जा सकता है।
 
साड़ी को कुछ क्षेत्र में 'सारी' भी कहा जाता है। यह भारतीय स्त्री का मुख्य परिधान है। दक्षिण भारत में इसका ज्यादा प्रचलन है। दक्षिण भारतीय महिलाएं कॉटन और सिल्क से बनी रंग-बिरंगी साड़ियां पहनती हैं। ये साड़ियां दक्षिण भारत के केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में रहने वाली अधिकतर महिलाएं पहनती हैं। केरल की महिलाएं सेट्टू मंडु (Settu Mundu) भी पहनती हैं।
 
पश्चिम भारत में सलवार-कुर्ती का प्रचलन ज्यादा है जबकि उत्तर भारत में दोनों ही का प्रचलन है। पूर्वोत्तर में भी साड़ी और इससे ही मिलता-जुलता वस्त्र पहना जाता है। साड़ी को विश्व के सबसे लंबे और पुराने परिधानों में से गिना जाता है।
 
मुंदुम नेरियथुम साड़ी केरल की पारंपरिक पोशाक है। दक्षिण भारत में महिलाओं के शरीर के निचले हिस्से को ढंकने के इसका इस्तेमाल प्राचीनकाल से चला आ रहा है। मुंदु मूल पारंपरिक टुकड़ा है या कम कपड़ों की साड़ी का प्राचीन रूप है।
 
पूर्वोतर भारत का पहनावा आपको अनोखा लग सकता है। मिजोरम की लड़कियां पुंचई (Puanchei) नाम की पारंपरिक पोशाक पहनती हैं, खासतौर पर इस ड्रेस को शादी और त्योहार के अवसर पर पहना जाता है, वहीं असम में महिलाएं मेखला छादर या मेखेल सदोर (Mekhla Chadar) पहनती हैं। इसे दो हिस्सों में पहना जाता है। मेघला को कमर पर लपेटा जाता है और छादर को ओढ़ा जाता है। यहां के पुरुष धोती गमोसा अर्थात गमछा (Dhoti-Gamosa) पहनते हैं।
 
परिवर्तन : साड़ी पहनना और उसे शरीर पर संभालकर रखना बहुत ही कठिनाइयोंभरा है। प्राचीनकाल में महिलाएं अच्छे से गंठी गई चोली और छोटी स्टाइल का घाघरा ही पहनती थीं लेकिन कालांतर में उसके ऊपर साड़ी पहनने का प्रचलन शुरू हो गया। दूसरी शताब्दी ईपू की मूर्तियों में पुरुषों और स्त्रियों के शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। ये कमर के इर्द-गिर्द साड़ी इस प्रकार लपेटे हुए हैं कि पैरों के बीच सामने वाले भाग में चुन्नटें बन जाती हैं। इसमें 12वीं सदी तक कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। भारत के उत्तरी और मध्य भाग को जीतने के बाद मुगलों ने जोर दिया कि शरीर को पूरी तरह से ढंका जाए। 
 
घाघरा : घाघरे को पेटीकोट भी कहते हैं। इसे लगभग पूरे उत्तर भारत और नेपाल में भी पहना जाता है। इसे चोली और दुपट्टे के साथ पहनते हैं। साड़ी के साथ अंतरवस्त्रों में अधोवस्त्र घाघरा होता है जिसके ऊपर साड़ी को लपेटकर कसा जाता है। हालांकि पेटीकोट के स्थान पर महिलाएं शेपवेयर पहनने लगी हैं, जो कि बहुत ही तंग होता है। यह नुकसानदायक भी हो सकता है।

चोली और ब्लाउज : वक्षबंधनी को चोली भी कहते हैं। भारतीय चोली का ही विकसित रूप है ब्रा या ब्रेजियर। अब महिलाएं चोली नहीं पहनती हैं। वे ब्रा ही पहनती हैं। चोली के पीछे है इतिहास 2000 साल पुराना। गुजरात और महाराष्ट्र में ईसा के जन्म से भी पहले की पेंटिंग्स में चोली को देखा गया। चोली का मकसद था औरत के स्तनों को ढंकना। आधुनिक ब्लाउज का जन्म इसी से हुआ। स्तनों पर चोली और चोली के ऊपर ब्लाउज पहना जाता है। राजस्थानी महिलाएं इसे घाघरे के साथ पहनती थीं, जो आगे से ढंकी होती थीं और पीछे से बांधने के लिए इनमें डोरी होती थी। चोली का डिजाइन कल्चर्स के साथ बदलता रहता है।
हालांकि कुछ लोग कहते हैं कि विक्टोरिया युग में बंगाल में कुछ महिलाएं अपनी साड़ी के भीतर ब्लाउज नहीं पहना करती थीं, उनका वक्षस्थल बेलिबास ही हुआ करता था। विक्टोरियाई समाज को ये पसंद नहीं था। शराफत को लेकर उसके पैमाने अलग थे और आहिस्ता-आहिस्ता ब्लाउज का चलन शुरू हो गया, हालांकि यह गलत है। भारतीय महिलाएं प्राचीनकाल से ही बिना सिली चोली पहनती आई हैं। केरल और बंगाल को छोड़ दें तो लगभग सभी जगह चोली पहनी जाती थी।
 
साड़ी पहनने के कई तरीके हैं, जो पारंपरिक मूल्यों और रुचियों पर निर्भर करता है। अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं। मध्यप्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की तसर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रशम, दिल्ली की रशमी साड़ियां, झारखंडी कोसा रशम, महाराष्ट्र की पैठणी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियां, उत्तरप्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल आदि प्रसिद्ध साड़ियां हैं।

लहंगा : घाघरा का आधुनिक स्वरूप है स्कर्ट और लहंगा। लहंगा जो महिलाओं के लिए पोशाक होती है। यह ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में पहना जाता है। शहरों में डिजाइन वाले लहंगे, चोली और चुनरी एकसाथ विवाह आदि समारोह में पहने जाते हैं, जो कि बहुत ही महंगे होते हैं। आमतौर पर महिलाएं कुर्ती के साथ लहंगा पहनती हैं।
गरारा सूट : गरारे का जन्म लखनऊ में हुआ। यह भारतीय लहंगा, चुनरी और कुर्ती का एक नया रूप है। अवध के नवाबों और तालुकदारों की पत्नियां इन्हें पहना करती थीं। गरारा का घेर कमर से शुरू होता है और घुटनों पर इनमें छोटी-छोटी प्लीट्स होती हैं जिसकी वजह से घुटनों पर इनका घेर बढ़ जाता है। ट्रेडिशनल गरारे की 1 टांग बनाने में ही 12 मीटर कपड़ा लगता है। इसे पहनने वाली औरतें सड़क पर महंगे सिल्क का पोंछा लगाते हुए चलती थीं। 

बंडी : बंडी को कोटी भी कहते हैं। जैकेट, ब्लेजर, शेरवानी या कोट इसी का विकसित रूप है। बिना आस्तीन की एक प्रकार की कुरती को कोटी और बगलबंद नाम के पहनने के कपड़े को बंडी कह सकते हैं। हमारे माननीय प्रधानमंत्री मोदी बंडी पहनते हैं।

हाफ बांह वाली महिलाओं की कोटी उनकी कमर के ऊपर तक की ही होती है, जबकि पुरुषों की कोटी जंघा तक होती है। हालांकि बंडी का प्रचलन कब से शुरू हुआ, यह बताना मु‍श्किल है लेकिन जैकेट का प्रचलन 15वीं या 16वीं सदी में शुरू हुआ था। चमड़े की जैकेट अंग्रेज सैनिक पहनते थे।

लुंगी : इसे सारौंग भी कहते हैं। इसे कमर पर लपेटकर कसा जाता है। इसे कमर में लपेटने वाला बड़ा अंगोछा या तहमद भी कहते हैं। दक्षिण भारत में लुंगी प्रचलित है। खासकर आंध्र और तेलंगाना में भी इसका प्रचलन है। यह धोती का ही एक छोटा रूप है। धोती में कपड़ा ज्यादा होता है जबकि लुंगी में कम।
लुंगी आमतौर पर 2 प्रकार की होती हैं- खुली लुंगी और सिली लुंगी। लुंगी पहनने का प्रचलन बांग्लादेश, बर्मा, इंडोनेशिया, श्रीलंका, थाईलैंड और मलेशिया में भी है। यह बहुत ज्यादा गर्मी और नमी वाली क्षेत्रों में विशेष रूप से लोकप्रिय पारंपरिक पोशाक है। 
 
लोग लुंगी पहनते हैं, ओढ़ते हैं, बिछाते हैं और रस्सी न हो तो लुंगी को ही रस्सी बना लेते हैं। इस तरह लुंगी के कई उपयोग देखने को मिल जाएंगे। लोग लुंगी को पोंछा भी बना लेते हैं और गांव में महिलाएं इसे माथे पर रखने की चुमली भी बना लेती हैं। चुमली जिस पर गढ़ा रखा जाता है। बहुत लोगों को लुंगी फैलाकर चंदा उगाते हुए भी देखा गया है।
अचकन या शेरवानी : पहले इसे अचकन कहते थे तथा बाद में इसे शेरवानी कहने लगे। शेरवानी कोटनुमा एवं घुटने से लंबी होती है। इसे ज्यादातर पायजामे के साथ पहना जाता है। शेरवानी भारत में आमतौर पर राजस्थान, उत्तरप्रदेश और हैदराबाद में पहनी जाती है। शेरवानी एक भारतीय परिधान है। अक्सर इसे विवाह समारोह आदि में पहना जाता है।
 
अचकन कई प्रकार और डिजाइन की होती है। काली, सफेद, ऊदी, सूती, रेशमी आदि की अचकन के अलावा शादी की अचकन अलग ही होती है। मुगलों के प्रभाव के कारण इसे बंद या गोल गले की बनाकर इसे शेरवानी कहा जाने लगा।
 
मुगलकाल में ऐसे बहुत से भारतीय परिधान, संगीत, नृत्य थे जिन्हें इस्लामिक तहजीब में ढाला गया। हालांकि मुगलों के कारण एक नई संस्कृति और परंपरा का भी जन्म हुआ अर्थात मुगलों ने भारत की बहुत-सी अच्‍छी बातों का इस्लामीकरण करने के चक्कर में एक नई संस्कृति, भाषा, भूषा, भोजन और तहजीब को जन्म दिया। इस विषय पर एक अलग लेख लिखा जा सकता है।

ओढ़नी : इसे चुनरी, लहरिया और दुपट्टा भी कहते हैं। ओढ़नी थोड़ी बड़ी होती लेकिन चुनरी या दुपट्टा छोटा होता है। इसी का सबसे छोटा रूप स्कॉर्फ है। ओढ़नी स्त्रियां घाघरे और कुर्ती के ऊपर ओढ़ती हैं। ओढ़नी की लंबाई प्राय: ढाई से तीन मीटर और चौड़ाई डेढ़ से पौने दो मीटर होती है जिससे कि घूंघट निकालने पर भी ओढ़नी नीचे घाघरे तक रहती है। ओढ़नियां विविध रंगों में रंगी जाती हैं और इन पर कीमती बेलें या गोटा पत्ती लगाई जाती हैं।
 
भारत में प्राचीनकाल से ही ओढ़नी का प्रचलन था जिसे बंधेज भी कहते हैं। 7वीं शताब्दी में हर्ष का दरबारी कवि बाण 'भट्ट' वस्त्रों का वर्णन करता है तो 16वीं शताब्दी में मलिक मुहम्मद जायसी 'समुन्द्र लहर' और 'लहर पटोर' का। इसी प्रकार गुजराती वर्णन (17वीं) प्रतापसाही लहरिया की प्रशंसा करते नहीं थकते तो सभा श्रृंगार के संकलनकर्ता चुनरी का। 18वीं शताब्दी तक आते-आते जयपुर के बाजारों में पोमचा, लहरिया और चुनरी आदि के वस्त्र बांधे, रंगे व बेचे जा रहे हैं।