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मृत्यु होते ही शत्रुता समाप्त क्यों नहीं होती?

मृत्यु होते ही शत्रुता समाप्त क्यों नहीं होती? - bolg on relationship
“मरणांतानि वैराणि निर्वृत्तम न प्रयोजनम्” – वाल्मिकी रामायण, (युद्धकांड, ९९-३९)
 
युद्ध भूमि में पड़े हुए रावण के शव के समक्ष श्री राम ने विभीषण से उक्त श्लोक कहा था। जिसका आशय है कि मृत्यु होते ही शत्रुता समाप्त हो जाती है। अब इसका विरोध करने का कोई आधार नहीं है जैसे यह तुम्हारा भाई था वैसे ही यह मेरा भी भाई था। अब इसका अंतिम संस्कार पूरे विधि-विधान, सम्मानपूर्वक करें। यही नहीं, मेघनाथ के शव पर श्री राम ने सम्मान पूर्वक अपना उत्तरीय ओढ़ा दिया था। छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी उनकी हत्या करने आये अफजल खां के शव का पूरे रीति रिवाज के साथ अन्तिम कार्य करवाया था।

यही हमारी संस्कृति और परंपरा रही है जिसके आधार पर विश्व में हम सबसे अलग और अनूठे स्थान का गौरव पाते हैं। धीरे धीरे समय करवटें ले रहा है। अपने साथ विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्रूरता में बदलने लगी है। नकारात्मक अभिव्यक्तियां मर्यादा की सीमाएं तोड़ कर उच्छृंखलता के पर लगा चारों ओर उड़ान भरने लगी है। महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण ने भी पांडवों को यही निर्देश दिया था कि वे धृतराष्ट्र का और उनके दिवंगत पुत्रों का अब न तो अनादर करें और न उनके प्रति कोई दुर्भावना मन में रखें।
 
जब तक इंसान साथ रहता है, जीवित है, आसानी से उपलब्ध है हमें उसकी मौजूदगी का महत्व उतना नहीं होता, जितना उनके जाने के बाद होता है। इन्हीं यादों और अहसासों के साथ जीना ही जिंदगी है। अनगिनत बिखरे उदाहरण हमें यही बताते हैं। “अभी ‘वो’ होते तो ऐसा होता या ऐसा करते” से उनकी यादों का सिलसिला जारी रहता। हर इंसान में कुछ खास बात, कुछ खास आदतें होती हैं। वो उसे सबसे अलग करती हैं जो यादों का कारण भी बनती हैं। ऐसे ही आप ध्यान दीजिये जब जब भी कोई कार्यक्रम, उत्सव, त्यौहार होते हैं हममें वे जागृत हो जाते हैं। उनकी याद करते करते कब हम उनके से होने लगते हैं मालूम ही नहीं चलता। केवल इतना ही नहीं वे हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में भी शामिल हो जाते हैं।
 
जब भी कोई पारिवारिक कार्यक्रम होते हैं चाहे वे मांगलिक हों या अन्य हमारे पूर्वजों को उनमें शामिल होने के लिए निमंत्रण दिया जाता है। उसकी वजह काफी कुछ अब समझ आती है। जब भी त्यौहारों के व्यंजन-पकवान बनाए जाते हैं घर के सदस्य, बड़े सदस्यों के हाथों से पैदा हुए जादुई स्वाद, उनकी महक को महसूस करते हैं। उनकी तैय्यारी और उत्साह के किस्से याद करते नहीं थकते। हमारे यहां तो श्राद्धपक्ष पूर्वजों को ही समर्पित है। मरते ही तुरंत दिवंगत की पसंद नापसंद की भौतिक वस्तुओं से उसे तृप्त करने की कोशिश की जाती है। शोक सभा में उसके गुण-गान किए जाते हैं। जैसे उनके जैसे देवता/देवी पुरुष/स्त्री अन्यत्र कहीं होंगे ही नहीं। और ये बातें केवल परिवार ही नहीं, हर परिचित, जान पहचान के व्यक्ति के लिए भी हो सकती है।
 
पर अब दौर बदल चुका है। मरे का कोई मुलाहिजा नहीं। मरे तो कोई अहसान नहीं किया है। तुम बुरे ही/भी थे। नहीं नहीं तुम बुरे ही हो...तुमने एक बार कभी ‘ऐसा’ किया, ‘ऐसा’ बोला था। तुम्हारे ऐसा बोलने-करने से प्रलय आ गया...सुनामी आ गई... और अब ये कोरोना आ गया। इसलिए अब तुम ही दोषी थे जो तुम मर गए तो अच्छा हुआ। पिछले कुछ सालों से ये ‘ट्रेंड’ इतना बढ़ चुका है कि पीछे रह परिजनों के मार्ग में कांटों का काम करता है।

सोशल मीडिया के इस मकडजाल में हम इंसान उस मकड़ी की तरह उलझ गए हैं जिसका अंत खुद, उसी के बुने हुए जाल में फंस कर हो जाता है। कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहा है। आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, घरेलू, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा ये कोसने का कार्यक्रम। बिना किसी लिंगभेद के नीचे और नीचे इतने नीचे गर्त में जाने लगे हैं कि उठने में हीं शायद सदियां और पीढियां लग जाएं।
 
ये तो ठीक नहीं है। मतभेदों का मनभेदों में बदल जाना। हममें भी तो वही गुण जिन्दा हो चलें हैं जिन्हें हम उनमें अवगुणों के रूप में झींक रहे है। क्या यह सच नहीं है कि ‘वे मर कर हममें जिन्दा हो जाते हैं’पर अब जिन्दा रहते हैं...केवल बुराइयों के रूप में जहां गुणों के पनपने के लिए फिर कोई उर्वर धरती ही नहीं बचती।
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