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बाल सुरक्षा दिवस: कोरोना काल में बचपन को कैसे सहेजें हम

बाल सुरक्षा दिवस: कोरोना काल में बचपन को कैसे सहेजें हम - corona time stories
दिल दहला देने वाली ये पोस्ट मुझे सोशल मीडिया पर दिखने मिली है। इस पोस्ट को ध्यान से पढ़िए-
 
‘अगर किसी परिवार को महालक्ष्मी गोद चाहिए तो जरूर बताएं... एक तीन दिन की लड़की है और दूसरी 6 महीने की है। उन बच्चों के माता-पिता का अभी महामारी से देहांत हो गया है। बच्चे दिल्ली कैलाश नगर जैन समाज से हैं...संपर्क करे -  प्रियंका जी – 09711104773’Msg Date; 30-04-2021
 
ऐसे ही कितने नन्हे बच्चे होंगे जो अनाथ हुए होंगे।अपनों को खोया होगा।‘जिन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं.’ सभी जानते हैं।पर इतनी छोटी भी नहीं कि छोटे बच्चे बड़े ही न हो पाएं। मौत के इस तांडव ने सभी को विक्षिप्त कर रखा है। मौतों के इस खेल में लगे लाशों के अम्बार के पीछे हमें अपने वो नन्हे नहीं दिख रहे जो खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं। जो हैरान हैं दुनिया के इस रूप से, इस डरावने, भयावह रूप से।
 
'बाबू मोशाय, जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे न आप बदल सकते हैं, न मैं। हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर उस ऊपर वाले के हाथों में है। कब, कौन, कैसे उठेगा, यह कोई नहीं जानता...।' ये डॉयलॉग तो प्रसिद्ध है। पर इन बच्चों को तो लाशों के ढेरों से भरा रंगमंच दिख रहा है। 
 
जहांपनाह तो सारे जहां को अपनी पनाह में लिए चले जा रहे। वो भूल ही गए कि जिंदगी भी उनके हाथों में ही है। उसको तो मौत की डोर से खेलने में ही अति ‘आनंद’ आने लगा है। सचमुच में हम ‘काठ की कठपुतलियों’ में ही बदल गए हैं। पर उनकी डोर तुम्हारे हाथों से छूट कर दरिंदों के हाथों में जा चुकी है जहांपनाह। बस सच्ची बात इसमें यही है कि कब कौन कैसे उठेगा, ये कोई नहीं जानता।
 
यहां कोई ‘बाबुमोशाय’ नहीं, जो आनंद को बचाने के लिए जी-जान लगा दे। जो हैं, उनके भी ‘आनंद’ तुमने छीनने में कोई कमी नहीं छोड़ी। हमारे नन्हे बच्चे, देश का भविष्य, चारदीवारी में सिसक रहा है।

छोटे से गुड्डू को पार्क में खेलने जाना है, बिट्टू को गग्गा माता को रोटी,घास  खिलाने, उसकी गर्दन में हाथ फेरने जाना है। छोटू को गली के नुक्कड़ पर जो उसकी जूली ‘तू-तू’ ने रूई के गोले से नर्म-नर्म बच्चे दिए थे उन्हें खिलाने और दूधू-रोटी देने जाना है। इशान को अपने दोस्त के बर्थडे पर उसके घर जा कर सरप्राइज गिफ्ट देना है। कुकी को अपनी सहेली के साथ गुडिया का ब्याह रचाना है, मीतु को अपना गुड़िया घर आद्या के साथ खेलना है तो शुभ्रा को एका के साथ रोटा-पानी खेलना है। विशिष्ट और विमुक्त को उस वाले पार्क में जाना है जहां उन्होंने दादू-दादी के साथ पौधे लगाए थे। देखना है कि वे कितने बड़े हुए।क्या झूला बांध पाएंगे उस पर? और रूद्र को तो फुटबाल खेले ही जमाना बीत गया हो जैसे। हनु को अपने दोस्तों की याद आ रही है उनके साथ क्रिकेट मैच किये बिना मजा ही नहीं आ रहा। सारे बच्चे अपने सामान्य जीवन को याद कर के दुखी हैं। नन्हे चकित हैं सबके मुंह पर पट्टियां लगी देख-देख कर। हम अपने नौनिहालों की तुतलाहट भरी बातों को तरसने लगे हैं।

शब्द बाहर निकलने के पहले ही वापिस मास्क की दीवार से टकरा अंदर कारावास काटने को मजबूर हैं। सारे बच्चे हैरान-परेशान हैं। कोरोना को कोस रहे हैं। नन्हों की इस बात का हमारे पास कोई जवाब नहीं कि कौनसा उनका अपना जो ‘था’ हो गया है. अस्पताल से क्यों ‘वो’ वापिस नहीं लौटे? क्यों सब ‘भूत’ जैसे कपड़े पहने घुमते हैं? घर के लोग क्यों इतना रो रहे हैं? हम बाहर क्यों नहीं जा सकते? सब इतने जल्दी-जल्दी क्यों मरते जा रहे हैं?

गलियों में इतने सायरनों की आवाजें क्यों आने लगीं? पुलिस डंडे क्यों मार रही है? ये गाड़ी से क्या बोल-बोल के जाते हैं? और भी न जाने क्या क्या अनंत प्रश्न हमारे इन बच्चों के छोटे से नाजुक दिलो-दिमाग में नासूर से, गहरे घाव की तरह अनुत्तरित तैर रहे हैं।
 
इधर गुडल और पियु बिटिया को मेरे साथ तितली के साथ बगीचे में खेलना दौड़ लगाना है फूलों से बातें करना है। रोज रोज की जिद है उनकी... मना करने पर कि ‘कोरोना बाबा पकड़ लेता है बेटे’ मुझे शानदार जवाब मिला ‘तो उसको अपन सब मिल के “हप्प” कर देंगे...है न... भाग जाएगा वो डर के...’ मैं उनकी आंखों में चमकता विश्वास देख कर गदगद हुई... दिल है छोटा सा छोटी सी आशा...मस्ती भरे मन की भोली सी आशा...