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प्रवासी कविता : अपनी जड़ों से दूर

प्रवासी कविता : अपनी जड़ों से दूर - pravasi poem
प्रवासी 
अपनी जड़ों से दूर
बरगद की भांति फैलते हैं
और उन जड़ों को सींचते हैं
भारत के संस्कारों के पानी से।
 
प्रवासी 
करते हैं अपनी भाषा पर गर्व
उसको आचरण में पिरोते हैं
विदेश में प्रवासी होते हैं
भारत से भी ज्यादा भारतीय।
 
प्रवासी 
सहेजते हैं अपने संस्कारों को 
अपनी संस्कृति को बनाकर आचरण।
विदेशों में बिखेरते हैं भारत की खुशबू।
 
प्रवासी
अनकहे भावों को
शब्दों की बांसुरी में गाते हैं
अभिव्यक्त करते हैं प्रकृति को
झरनों की भाषा में।
 
प्रवासी
शब्दों की लाठियों से
प्रहार करते हैं कुरीतियों पर
तोड़ते हैं विषमताओं की कमर
अपने शब्दबाणों से।
 
प्रवासी
लिखते हैं भारत के हिन्दी साहित्य को
भारत के लेखकों से भी बेहतर
उतारते हैं अपनी अनुभूतियों को
कैनवास के कागज पर।
 
प्रवासी 
जीते हैं उन संस्कारों की सांसों से
जो उनके डीएनए में है
सुसुप्त-से स्वप्न की तरह
भारत को समेटे रहते हैं
अपने अस्तित्व में।
 
प्रवासी
आते हैं पक्षी की तरह
अपनी जड़ों में लगाकर
भारत की मिट्टी
फिर उड़ जाते हैं
ले जाते हैं इस मिट्टी की खुशबू।
सात समंदर पार।
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