शुक्रवार, 11 जुलाई 2025
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  4. Why is Modi-Shah strategy proving ineffective in Telangana and Andhra Pradesh

तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में मोदी-शाह की रणनीति क्यों हो रही है बे-असर, क्या चंद्रबाबू नायडू की छाया में है हाईकमान?

BJP politics in South India
BJP politics in South India: भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी ने पिछले एक दशक में जो करिश्मा किया है, वह अभूतपूर्व है। उत्तर भारत से लेकर पूर्वोत्तर तक और गुजरात से लेकर कश्मीर तक, बीजेपी का परचम लहराया है। लेकिन दक्षिण भारत के दो तेलुगू भाषी राज्य — तेलंगाना और आंध्रप्रदेश अब भी भाजपा की रणनीति के सबसे कमजोर मोर्चे बने हुए हैं। यह विडंबना ही है कि जो नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर 'निर्णायक' और 'रणनीतिक' माना जाता है, वही तेलंगाना और आंध्र में भ्रम और कमजोर पकड़ का प्रतीक बनता जा रहा है। हालिया प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्तियों और गठबंधन की दिशा में लिए गए फैसलों से यह साफ होता है कि पार्टी स्थानीय आकांक्षाओं की नब्ज पकड़ने में असफल रही है।
 
तेलंगाना : संघर्षशील नेतृत्व से दूरी या कोई और मजबूरी, तेलंगाना की पहचान उसके ऐतिहासिक अलग राज्य आंदोलन से जुड़ी है। यह राज्य सिर्फ भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि क्षेत्रीय संवेदनशीलता, स्वाभिमान और संघर्ष की राजनीति का प्रतीक है। यहां मतदाता उन नेताओं को पसंद करते हैं, जिनका सामाजिक जुड़ाव हो, जो जमीनी हों और जिनका व्यक्तित्व संघर्षशील रहा हो। ऐसे में बीजेपी द्वारा बंडी संजय जैसे आक्रामक, कर्मठ और जनाधार वाले नेता को हटाकर नेता को हटाकर एन. रामचंद्र राव को प्रदेश अध्यक्ष बनाना, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए झटका रहा। यह फैसला नीचे से ऊपर की मांग नहीं था, बल्कि ऊपर से थोपे गए फैसले का प्रतीक था। 
 
लेकिन यह भूल बड़ी है — तेलंगाना में मतदाता अक्सर उस विकल्प को पसंद करता है, जो क्षेत्रीय दलों की राजनीति से अलग हो। तेलंगाना में भाजपा के हिंदूवादी विधायक टी. राजासिंह के पार्टी से इस्तीफे के बाद राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा भी है कि रामचंद्र राव की नियुक्ति टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू के दबाव या BRS के साथ संभावित गठबंधन की रणनीति के तहत हुई है। यदि यह सही है, तो यह कदम न केवल कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराएगा, बल्कि तेलंगाना के उस मतदाता वर्ग को भी खफा कर सकता है जो तीसरे विकल्प की तलाश में है। गठजोड़ की राजनीति यहां विश्वासघात की तरह देखी जाती है, खासकर अगर उसमें बीआरएस शामिल हो।
 
आंध्रप्रदेश में भाजपा की निष्क्रियता : तेलंगाना के विपरीत, आंध्रप्रदेश में भाजपा की समस्या है निष्क्रियता और अस्पष्टता। यहां पार्टी शुरू से ही गठबंधनों के सहारे चलती रही है — पहले टीडीपी के साथ, फिर वाईएसआर कांग्रेस के करीब और अब फिर से टीडीपी की ओर झुकाव। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में दुग्गुबाटी माधव की नियुक्ति बिना किसी विवाद के हुई — लेकिन यह शांति इसलिए थी क्योंकि इस पद के लिए कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं थी। पार्टी में न कोई स्पष्ट विजन दिखता है, न कोई जनांदोलन खड़ा करने की इच्छा। यहां पार्टी न तो YSR कांग्रेस से पूरी दूरी बना पाई है, न टीडीपी से जुड़ाव में स्पष्टता है। वर्तमान में भाजपा की राजनीति यहां सिर्फ 'सहायक दल' तक सीमित है — न नेतृत्व का प्रयोग, न सांगठनिक विस्तार, न वैचारिक जड़ें। यह स्थिति उस पार्टी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है जो 'विजय संकल्प' की बात करती है।
 
क्या चंद्रबाबू नायडू की छाया में है बीजेपी हाईकमान? बीजेपी की हाल की नियुक्तियां यह संकेत दे रही हैं कि पार्टी ने अब स्वतंत्र लड़ाई छोड़ दी है और वह चंद्रबाबू नायडू जैसे पुराने क्षेत्रीय क्षत्रपों के भरोसे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। यह रणनीति शायद शॉर्ट टर्म में सीटें दिला दे, लेकिन पार्टी की दीर्घकालिक पहचान को नुकसान पहुंचा रही है। जो पार्टी 'कांग्रेस-मुक्त भारत' का नारा देकर निकली थी, वह अब 'क्षेत्रीय दलों के सहारे खड़ी भाजपा' बनती जा रही है — कम से कम तेलुगू राज्यों में तो यही हाल है।
 
तेलंगाना और आंध्र में बीजेपी को आत्ममंथन की जरूरत है : भाजपा को अब यह तय करना होगा कि तेलुगू पट्टी में उसका भविष्य कैसा होगा, क्या पार्टी यहां सिर्फ सांठगांठ की राजनीति करना चाहती है या स्थायी सांगठनिक ढांचा खड़ा करना? क्या वह जमीनी नेतृत्व को मौका देगी या दिल्ली से थोपे गए फैसले चलते रहेंगे? क्या वह तीसरे विकल्प की संभावनाओं को खुद खत्म करेगी या क्षेत्रीय असंतोष का वाहक बनकर उभरेगी? तेलुगू राज्यों में राजनीति भावनाओं और पहचान की है। यहां वोट सिर्फ नारों या चेहरों पर नहीं मिलते, बल्कि उस जुड़ाव पर मिलते हैं जो नेता जनता से बना पाते हैं। 
 
तेलुगू पट्टी की राजनीति समझने वाले जानते हैं कि दिल्ली में बनाई गई रणनीति, हैदराबाद-विशाखा की जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाती। मोदी-शाह को यह समझना होगा कि तेलुगू पट्टी में 'एक देश, एक रणनीति' काम नहीं करती। यहां 'एक राज्य, एक समझ और एक सम्मान' की जरूरत है। वरना भाजपा को बार-बार यहां गठबंधन की बैसाखी, कार्यकर्ताओं का असंतोष और मतदाताओं की दूरी झेलनी पड़ेगी। भाजपा इन दो राज्यों में सिर्फ पराश्रित पार्टी बनकर रह जाएगी।
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