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Written By उमेश चतुर्वेदी

अनंत में विलीन हो गई गंवईं गंध गुलाब की गमक

अनंत में विलीन हो गई गंवईं गंध गुलाब की गमक - Viveki Roy, Hindi litterateur, Hindi Journalism
स्मृति शेष : विवेकी राय
आजादी के बाद हिन्‍दी की बड़ी त्रासदी उसका राजनीति और राजधानी उन्मुखी हो जाना रहा है। यह विडंबना नहीं तो और क्या होगा कि आजादी के पहले तक जिस हिन्‍दी के कई केंद्र थे। वह रायपुर, खंडवा, भोपाल, लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, कलकत्ता, लहेरिया सराय, पटना, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि-आदि छोटी-छोटी जगहों से भाषाई संस्कृति के नए विन्यास गढ़ रही थी, वह आजादी के बाद बड़े शहरों और राजधानियों की ओर खिसकती गई। इससे उसे कितना नफा हुआ और कितना नुकसान, इसका सम्यक मूल्यांकन होना बाकी है। लेकिन यह सच है कि जो भाषा और संस्कृतिकर्मी अपनी ही मिट्टी में खपने, अपने ही खेतों की मेड़ों पर घास बने रहने को ही अपना सौभाग्य माना, उनके साथ हिन्‍दी के सत्ता केंद्रों ने समुचित व्यवहार नहीं किया। 
 
ये बातें आज शिद्दत से इसलिए याद आ रही हैं, जब ताजिंदगी भोजपुरी गंवई गंध गुलाब की गमक बिखेरने वाला आज अनंत में विलीन में हो गया। जिस समय अगहन की गुलाबी ठंड का सूरज अपने आगमन की आहट प्राची को ललाते हुए अपने आगमन की आहट दे रहा था, उसी वक्त हिन्‍दी की गंवई सहजता वाला भाषायी सूरज वाराणसी के एक अस्पताल में अस्त हो गया।
 
ताजिंदगी गाजीपुर जैसी जगह पर रहकर माटी से जुड़कर अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह करने वाले विवेकी राय ललित निबंधकारों की आखिरी कड़ी के प्रमुख स्तंभ थे। यह संयोग ही कहा जाएगा कि
हिन्‍दी की लोकप्रिय विधा रही ललित निबंध की नींव पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया की माटी में पैदा हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रखी, उसे परवान चढ़ाया पूर्वी उत्तर प्रदेश के तीन बेटों ने। विद्यानिवास मिश्र जहां गोरखपुर के निवासी थे, वहीं कुबेरनाथ राय और विवेकी राय गाजीपुर की थाती थे। दो विभूतियां पहले ही अनंत यात्रा पर निकल चुकी थीं, आज तीसरी कड़ी भी उसी राह पर चली गई, जहां से कोई लौटता नहीं, सिर्फ उसकी स्मृतियां ही रह-रहकर लौटती हैं।
 
हिन्‍दी पत्रकारिता को लोकप्रियता के साथ संस्कार देने में एक दौर में धर्मयुग, कादंबिनी, साप्ताहिक हिन्‍दुस्तान जैसी सुरुचिपूर्ण पत्रिकाओं का बड़ा योगदान रहा। शायद 1989 या 1990 की दीवाली का धर्मयुग का विशेषांक आज आंखों के सामने है। उनमें तीनों ललित निबंधकारों की दीपमालिका के सांस्कृतिक आख्यान को समेटे रचनाएं छपी थीं। विवेकी राय ने पहली बार तभी प्रभावित किया। यह संयोग ही रहा कि उसी साल भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी प्रसाद छात्र कहानी पुरस्कार मिला। विवेकी राय हिन्‍दी के साथ ही भोजपुरी में भी सक्रिय थे। उन्हीं दिनों उऩसे पहली बार मिला।

पहली बार साथ रहने और उऩसे लंबी गुफ्तगू करने का मौका 1990 में छपरा में हुए भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के बारहवें अधिवेशन में मिला। उस सम्मेलन के अध्यक्ष प्रसिद्ध गीतकार मोती बीए चुने गए थे। उस सम्मेलन में विवेकी राय, डॉक्टर लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी के साथ गाजीपुर से छपरा शामिल होने गए थे। अगले दिन लौटते वक्त बलिया-छपरा पैसेंजर ट्रेन की करीब तीन घंटे की यात्रा में उनसे बात करने और उन्हें सुनने का मौका मिला। इसके बाद उनके तीन साक्षात्कार लेने का सौभाग्य मिला। पहला स्वतंत्र भारत में छपा तो दूसरा जनसत्ता के अपरोक्ष कालम में। तीसरा साक्षात्कार हाल के दिनों में यथावत में छपा। आखिरी साक्षात्कार यथावत पत्रिका के आईटीओ दिल्ली वाले दफ्तर में ही लिया गया। 
 
अब जबकि वे नहीं हैं, उनके पहले साक्षात्कार का एक जवाब याद आता है, चाहे साहित्य की लड़ाई हो या राजनीति की, सभी शहरों की लड़ाइयां हैं। देश की अब भी करीब 72 फीसदी आबादी गांवों में रहती है, लेकिन आज राजनीति या मीडिया के एजेंडे को देखिए, सभी शहरी एजेंडे हैं। गांव सिरे से गायब हैं। विवेकी राय को गांव को समझने और उसके दर्द को सुर देने की ताकत और समझ इसीलिए हासिल थी, क्योंकि वे गंवई गंध वाले शहर गाजीपुर में ही रहे। राजधानी की चमक-दमक उन्हें कभी नहीं लुभा पाई। करीब एक साल पहले वे जब दिल्ली अपने पोते के पास आए थे, तो उन्होंने जाहिर किया था कि दिल्ली की आपाधापी उन्हें बहुत परेशान करती है।
 
कादंबिनी के एक आलेख में उन्होंने अपने एक पात्र को याद करते हुए कहा था, महेशवा का दर्द अब भी उन्हें साल जाता है। पिछली सदी के आखिरी दशक के शुरुआत में जाहिर इस दर्द को वे आखिरी वक्त तक महसूस करते रहे। जिंदगी में काफी दर्द झेला। पिछली ही सदी में उनके बेटे की रेल हादसे में दर्दनाक मौत हुई। उसे उन्हें कड़े मन से स्वीकार किया। साहित्यकार थे, इसलिए यह दर्द कहीं न कहीं फूटना ही था, वह दर्द निकला, देहरी के पार नामक उपन्यास में। इस आत्मकथात्मक उपन्यास में एक बुजुर्ग पिता के दर्द को कई परतों में समझा-देखा जा सकता है। गंवई गंध गुलाब और फिर बैतलवा डाल पर उनके प्रसिद्ध निबंध संग्रह हैं। फिर बैतलवा डाल पर की प्रति नहीं मिल रही थी।
 
मैंने उनसे चर्चा की तो करीब दो साल पहले उन्होंने कहा था कि दिल्ली आ रहा हूं और लेते आऊंगा। लेकर आए भी। लेकिन उनसे कोई मार ले गया। उन्होंने गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने कमरे में कहा था, क्या करूं..छुपा ही नहीं पाया। बहरहाल अपनी तमाम किताबों को वे भेजते रहते थे। अरसे तक उन्होंने मुंबई जनसत्ता में भोजपुरी में गाजीपुर की चिट्ठी लिखी थी। जनसत्ता मुंबई के पहले स्थानीय संपादक अच्युतानंद मिश्र ने तत्कालीन बंबई में रह रहे गाजीपुर, बलिया आदि भोजपुरी भाषी इलाके के प्रवासियों को जोड़ने के लिए इस स्तंभ की शुरुआत की थी। वह स्तंभ बाद में 'समझीं बइठीं झरोखा देखि' के नाम से प्रकाशित हुआ था। विवेकी राय को प्रसिद्धि वाराणसी से प्रकाशित होने वाले आज अखबार में सालों तक छपते रहे स्तंभ मनबोध मास्टर की डायरी से खूब मिला। 
 
एक बारउन्होंने गाजीपुर-उजियार- बलिया मार्ग स्थित अपने गांव के पास खराब सड़क पर अपने इस स्तंभ में लिखा था। तब सड़क पर बने गड्ढे में भैंसें लोट रही थीं। उन्होंने अपने स्तंभ में लिखा था, भैंसलोटन सड़क। स्तंभ छपा नहीं कि अगले दिन सड़क बनने लगी थी। संयोगवश उसी सड़क से साइकल से विवेकी राय कहीं जा रहे थे। उन्होंने वहां काम करने वाले ठेकेदार को सुना था, पता ना कहां रहेला ईमनबोध मास्टर...ऊ लिखलसि अउर भोरे सड़क बनावे के आदेश आ गईल। (पता नहीं यह मनबोध मास्टर कहां रहता है, उसने लिखा और सुबह-सुबह ही सड़क बनाने का आदेश आ गया) यह किस्सा सुनाकर वे ठठाकर हंसते थे।
 
उनके महाप्रयाण के वक्त की ढेरों यादें हैं। इन यादों को सहेजना मार्मिक बन पड़ा है। 93 साल का लंबा जीवन उन्होंने जिया..आखिरी वक्त के कुछ महीने पहले तक पक्षाघात होने के पहले तक वे लगातार सक्रिय रहे...हिन्‍दी के इस कर्मयोगी को विनम्र श्रद्धांजलि।