मरने के बाद हर आदमी को मृत आत्मा की जिंदगी में दिलचस्पी पैदा हो जाती है। जीते जी न तो उसकी जिंदगी में और न ही उसके काम में लोगों को दिलचस्पी थी।
जिस आदमी के बारे में उसके जिंदा रहते कोई बात नहीं की गई, उसके मरने के बाद उसकी प्रसिदिृ, उसे जानने और नहीं जानने को लेकर विवाद हो उठते हैं।
हाल ही में एक लेखक की मृत्यु के बाद ऐसा ही कुछ हुआ। इससे न सिर्फ अब तक धुंधली सी नजर आने वाली लेखकों के बीच की गुटबाजी और खाई भी साफ नजर आने लगी, बल्कि खुद को इंटेलएक्चुअल कहने वाले और देश-दुनिया के तमाम विषयों को अपनी जागीर समझने वाले लेखकों की बौद्धिकता की कलाई भी खुल गई।
कथाकार शशिभूषण द्विवेदी की मौत पर दो लेखक आपस में लड़ पड़े। उनके पीछे उनके तमाम समर्थक भी पक्ष-विपक्ष में आमने- सामने आ गए। आलम यह हुआ कि सोशल मीडिया पर पलभर में लेखकों के विचार महिमा और उसकी स्तरहीनता का एक पूरा दस्तावेज तैयार हो गया।
कहा जा रहा है कि यह सारा विवाद एक फोन कॉल के बाद शुरू हुआ। एक लेखक ने शशि भूषण के निधन पर शोक जताया तो दूसरे ने कहा कि मैं शशि को नहीं जानता तो उसकी मृत्यु पर संवेदना व्यक्त क्यों करूं।
तैश में आकर इनमें से एक लेखक ने दूसरे लेखक के बारे में मां- बहन की व्याख्या कर डाली।
कहीं सुनने में आया है कि दोनों में से एक ने पी रखी थी। इस खबर के उड़ते ही तमाम लेखक और कवि जांच में लग गए कि लॉकडाउन में यह बोतल लाया कहां से। अभी भी बहुत से कवियों को विवाद में दिलचस्पी नहीं है, वे सिर्फ इसलिए सोशल मीडिया पर तफरी कर रहे कि कहीं कोई कमेंट मिल जाए कि बोतल कहां से लाई गई थी।
खैर, विवाद बाद में शशि भूषण की पहचान और उनके जानने और नहीं जानने तक पहुंच गया। संभवत: मामला लेखकों के बीच उनके कद और पहचान को लेकर था। लेखक के छोटे और बड़े होने का था।
एक पक्ष के लेखकों और कवियों ने शशि भूषण की पहचान को लेकर लंबी पोस्ट लिख डाली तो विपक्ष के वॉरियर्स ने एक पंक्ति में बात खत्म कर दी कि भई! ‘हम नहीं जानते तो नहीं जानते, इसमें क्या! कईयों ने कैंपेन चला दिया कि- हां मैं शशिभूषण को जानता हूं।
कमाल की बात यह थी कि यह लड़ाई पहचान की बात को लेकर लड़ी जा रही थी, लेकिन जो लड़ रहे थे, उन्हें भी कोई नहीं जानता था। शायद सभी अपनी-अपनी पहचान के लिए कतार में थे। जो पहचान अभी बनी ही नहीं थी, जो पहचान अभी थी ही नहीं, उसके लिए सभी ने अपना दावा ठोका। उन लोगों के सामने जिनकी अपनी भी कोई पहचान नहीं थी।
ऐसा अक्सर होता है, लेखकों की दुनिया में खासतौर से। क्योंकि लेखक अपनी बात रखना जानता है। इसलिए लड़ाई भी बहुत बौध्दिक मानी और समझी जाती है, क्योंकि लेखक के पास भाषा होती है, एक छदम गरिमा होती, उसके पास भ्रमित करने वाली एक श्रेष्ठता होती है। इसलिए वो मनुष्यता से ऊपर उठ चुका होता है। लेखन उसके प्रारब्ध में होता है, लेकिन दुर्भाग्य कि लेखक हो जाने के बाद वो कहीं भी मनुष्य नहीं बचा रह पाता है। अपनी ही बनाई एक दुनिया में गुम हो जाता है और उस दुनिया को ही अपनी पहचान समझ लेता है।
शशिभूषण को जानने और नहीं जानने को लेकर हुए इस पूरे मामले में सभी अपनी-अपनी बनाई हुई दुनिया में थे, जबकि इसी के साथ-साथ भ्रम और माया से दूर सत्य की एक और दुनिया चल रही थी, जिसे वे लेखक कब का छोड़ चुके थे।
शशिभूषण को लेकर कोई ट्रोल हो गया तो किसी को समर्थन मिल गया। एक लेखक के जाने पर वे आपस में लड़े तो बहुत लेकिन जीता कोई भी नहीं, क्योंकि पाठकों की नजरों में वे सब हार चुके थे।
नोट: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है, वेबदुनिया डॉट कॉम से इसका कोई संबंध या लेना-देना नहीं है।