संघ प्रमुख मोहन भागवत की दो टूक नसीहत में छिपे मर्म को पहचाने
इस समय देश में ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा गरमाया हुआ है परंतु इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने गत दिवस नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में संघ कार्यकर्ताओं के तृतीय वर्ष शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में जो भाषण दिया है उसकी चर्चा कहीं अधिक हो रही है। संघ प्रमुख ने अपने इस भाषण में साफ साफ कह दिया है कि काशी, मथुरा अथवा ज्ञानवापी मस्जिद विवादों से संघ का कुछ लेना देना नहीं है और न ही संघ अब देश में किसी मंदिर आंदोलन का हिस्सा बनेगा।
भागवत ने दो टूक लहजे में यह भी कहा कि हर मस्जिद में शिवलिंग तलाशने की आवश्यकता नहीं है। कुछ आस्था के केन्द्र हो सकते हैं परंतु हर मुद्दे पर विवाद बढ़ाना उचित नहीं है। भागवत अपने भाषण में इस बात पर विशेष जोर दिया कि जो भी आपस में मिल जुलकर सद्भावना के सुलझाएं जाना चाहिए और अगर यह संभव नहीं हो तो न्यायालय का फैसला स्वीकार करना ही सबसे अच्छा रास्ता है।
भागवत का यह बयान उन राजनीतिक दलों और संगठनों की बोलती बंद कर देने के लिए पर्याप्त है जो यह अनुमान लगा चुके थे काशी,मथुरा और ज्ञानवापी मस्जिदों के विवाद में संघ का परोक्ष हाथ है। जो कट्टर हिन्दू संगठन भी इन विवादों में संघ का समर्थन पाने की उम्मीद लगाए बैठे थे उन्हें भी संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान से निराशा हाथ लगी है। दरअसल भागवत के बयान का शाब्दिक अर्थ निकालने के बजाय अगर उसमें छिपे मर्म को पहचान लिया जाए तो यही अनुभूति होगी कि उन्होंने नागपुर में जो कुछ भी कहा वह समाज और राष्ट्र के समग्र हित में है। भागवत के बयान पर शांत मन से गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है। उनके बयान का सारांश ही यही है कि देश में अमन चैन का माहौल निर्मित करने और भारत को विश्वगुरु बनाने की राह में ज्ञानवापी मस्जिद जैसे विवाद बाधक बन सकते हैं।
निःसंदेह भागवत ने एक नेक सलाह दी है जिसमें कोई कमी नहीं खोजी जा सकती। यहां यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि संघ प्रमुख ने नागपुर में संघ के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए दो टूक लहजे में जो कुछ भी कहा उसमें यह संदेश भी छुपा हुआ है कि संघ अब मंदिर मस्जिद विवादों में रुचि लेने के पक्ष में नहीं है बल्कि देश में मौजूद दूसरे ज्वलंत मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रही है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए इस समय स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों को प्राथमिकता क्रम में सबसे ऊपर हैं।
संघ प्रमुख ने ज्ञानवापी मस्जिद सहित सभी मंदिर मस्जिद विवादों से संघ ने जिस तरह खुद को अलग रखने की घोषणा की है उस पर आश्चर्य भी व्यक्त किया जा रहा है क्योंकि राममंदिर आंदोलन में संघ की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी बल्कि यह कहें कि संघ ने उस आंदोलन के नेतृत्व की बागडोर थाम रखी थी परंतु मोहन भागवत ने अपने भाषण में यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि संघ अपनी मूल प्रवृत्ति के खिलाफ जाकर उस आंदोलन का हिस्सा बना था। इसलिए संघ प्रमुख के बयान से यह संदेश भी मिलता है कि मंदिर मस्जिद विवादों में रुचि लेना संघ की मूल प्रकृति नहीं है।
जो लोग संघ को हिंदुत्व का सबसे बड़ा पैरोकार मानते हैं उन्हें संघ प्रमुख मोहन भागवत की इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि हर मस्जिद में शिवलिंग तलाशने की आवश्यकता नहीं है या फिर भविष्य में किसी भी मंदिर आंदोलन में संघ की भागीदारी की संभावना से संघ प्रमुख का स्पष्ट इंकार कर देना भी उनके लिए घोर आश्चर्य का विषय हो सकता है परंतु संघ प्रमुख द्वारा गत दिवस नागपुर में दिए गए भाषण में समाहित इस संदेश नजर अंदाज कैसे किया जा सकता है कि स्वस्थ हिंदुत्व की अपनी एक गरिमा होती है और उस गरिमा को बनाए रखना हर हिंदू की जिम्मेदारी है। हिंदुत्व सबको साथ लेकर चलता है और सबको जोडता है। हिंदुत्व जिस महान संस्कृति की असली पहिचान है उसकी सबसे बड़ी विशेषता विविधता में एकता है। मोहन भागवत ने हमेशा कहा है कि संघ का काम हिंदुत्व का काम आगे बढ़ना है।प्रेम का प्रसार करना है। न किसी से डरना है,न किसी को डराना है। हिंदुत्व सहिष्णु है, सर्वसमावेशी है और भारतीयता ही सच्चा हिंदुत्व है।
मोहन भागवत मानते हैं कि इतिहास कोई नहीं बदल सकता । यह सच है कि मुसलमान आक्रमणकारी बाहर से आए थे परंतु इसे हिंदू मुसलमान से जोड़ना गलत होगा। अखंड भारत के विभाजन के पश्चात जिन मुसलमानों ने भारत में रहना पसंद किया उन्होंने बाहरी आक्रमण कारियों द्वारा धार्मिक स्थलों में की गई तोड़फोड़ का कभी समर्थन नहीं किया। वे हमारे भाई हैं । उनके पूर्वज भी हिन्दू थे । हिंदुत्व सभी को अपनी पूजा पद्धति अपनाने की स्वतंत्रता देता है। हिंदुत्व में बंधुत्व की प्रधानता है। नागपुर में संघ कार्यकर्ताओं के तृतीय वर्ष शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में मोहन भागवत ने बड़ी बेबाकी के साथ जो नसीहत दी है उसमें केवल एक ही संदेश है कि इतिहास में दफन हो चुकी कटुता को फिर से उभारने से समाज और राष्ट्र का हित प्रभावित होगा और पवित्र हिंदुत्व कभी इसकी अनुमति नहीं देता।
(उपरोक्त लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार है)