जब ग्रीष्म ऋतु अपने यौवन पर होती है, तब वर्षा की प्रतीक्षा मनुष्य ही नहीं, बल्कि पूरा प्राणी और वनस्पति जगत भी करने लगता है। मनुष्य, वर्षा के आगमन को लेकर उत्साह में तो रहता ही है किंतु साथ ही कई अंदेशों में भी घिरा रहता है। नाना प्रकार के प्रश्न उसके दिमाग में आते हैं। इस वर्ष कहीं वर्षा कम तो नहीं होगी? क्या वर्षा का आगमन समय पर होगा? कहीं अतिवृष्टि तो नहीं होगी? इत्यादि। ये प्रश्न आम आदमी को ही परेशान नहीं करते, अपितु वैज्ञानिकों को भी परेशान करते हैं।
मौसम विज्ञान के विकास के साथ ही अब इन प्रश्नों के सटीक उत्तर मौसम विभाग समय से पहले देने में सक्षम हो चुका है किंतु वैज्ञानिक यहां ही नहीं रुकना चाहते। उनका लक्ष्य है वर्षा को नियंत्रित करना। जहां अतिवृष्टि हो रही है उस क्षेत्र से बादलों को बाहर किस तरह धकेला जाए और जहां अनावृष्टि है, वहां बरसात कैसे की जाए? इस हेतु विभिन्न देशों के अनेक वैज्ञानिक कई दशकों से प्रयासरत हैं किंतु अभी तक कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी है। उनके इन प्रयासों पर नजर डालने से पहले हम वर्षा होने की प्रक्रिया को समझते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि ग्रीष्म ऋतु में समुद्र, जलाशय एवं पानी के अन्य भंडारों से पानी गर्म होकर वाष्प में परिवर्तित हो जाता है और यही वाष्प बादलों का रूप धारण करती है। इस वाष्प में पानी के असंख्य सूक्ष्म कण होते हैं, जो बादलों के साथ तैरते रहते हैं। इनकी सूक्ष्मता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब लाखों कण मिलते हैं, तब जाकर पानी की एक बूंद बनती है। यह संघनन (घनेपन) की प्रक्रिया से होता है। जब बादल हवा में तैरते हुए किसी कम तापमान वाले क्षेत्र में पहुंचते हैं या ठंडी हवा से टकराते हैं तो संघनन की प्रक्रिया आरंभ होती है।
पानी के सूक्ष्म कण मिलकर बूंदों का निर्माण करते हैं। द्रव्यमान बढ़ने से इन बूंदों को पृथ्वी का आकर्षण बल अपनी ओर खींचता है और बादल उन्हें पकड़कर रखने में असमर्थ हो जाते हैं। इस तरह वर्षा आरंभ होती है। वर्षा का दूसरा प्रकार है जब बादल किसी धूल या धुएं के गुबार से टकराते हैं। इस गुबार में उपस्थित धूल या धुएं के कण को केंद्र बनाकर पानी के सूक्ष्म कण संघनित हो जाते हैं और वर्षा का कारण बनते हैं। इसी प्रक्रिया को कृत्रिम बनाने के लिए मानव सदियों से प्रयास कर रहा है।
इन्द्र देवता को मनाने के लिए हमारे धार्मिक साहित्य में कई तरह के विधान हैं। जो सबसे अधिक प्रचलित है वह यज्ञ है जिसमें घी की आहुतियां देकर इन्द्र देवता को मनाने का प्रयास किया जाता है। घी की आहुतियों से निकलने वाला धुआं, पानी के बादलों से मिलकर उनमें बीजारोपण करता है यानी धुएं के कण संघनन क्रिया में केंद्र का काम करते हैं जिनके आसपास पानी संघनित होने लगता है और बादलों को बरसने पर मजबूर करते हैं। विज्ञान भी इसी सिद्धांत को आधार बनाता है।
विज्ञान में बादलों में किए जाने वाले इस बीजारोपण को 'क्लाउड सीडिंग' का नाम दिया गया है। क्लाउड सीडिंग के लिए सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ (ठोस कार्बन डाई ऑक्साइड) को हवाई जहाज के माध्यम से वातावरण में फैलाया जाता है। सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ के सूक्ष्म कण केंद्र बन जाते हैं और इन कणों के आसपास पानी संघनित होकर पानी की बूंद का रूप धारण कर लेता है।
बूंद का वजन ज्यादा होने से बादल उन्हें संभाल नहीं पाते और बूंद वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिर जाती है। इस तरह बादलों को वर्षा के लिए प्रेरित करने के कुछ प्रयोग सफल हुए हैं तो कुछ असफल। अभी तो असफलता का प्रतिशत ही अधिक है किंतु मनुष्य की आवश्यकता भी है और हठ भी। सफलता का प्रतिशत बढ़ेगा और एक दिन मानव अनावृष्टि और अतिवृष्टि पर नियंत्रण कर लेगा।
सबसे चर्चित प्रयोग सन् 2008 में ओलंपिक के उद्घाटन समारोह के दौरान चीन ने किया था। कहते हैं कि बादलों को स्टेडियम के पास पहुंचने से पहले ही 1,110 रॉकेट शहर के विभिन्न स्थलों से दागे गए थे और जबरदस्ती बारिश करवाकर उनका पानी खाली कर दिया गया था। इस तरह उद्घाटन के दौरान हुए शो तथा आतिशबाजी को बिना किसी विघ्न के पूरा कर लिया गया था। यह भी कहते हैं कि चीन सप्ताहांत की छुट्टियों से पहले बारिश करवा लेता है या फिर आकाश को प्रदूषण से मुक्ति पाने के लिए भी क्लाउड सीडिंग करता है।
उल्लेखनीय है कि चीन अपने प्रयोगों के परिणामों को गुप्त रखता है अतः चीन के वैज्ञानिकों ने इस दिशा में कितनी प्रगति की है इसका अंदाज लगाना मुश्किल है किंतु धारणा है कि शायद वह इस दिशा में बहुत आगे बढ़ चुका है। भारत को भी क्लाउड सीडिंग की दिशा में ठोस रूप में आगे बढ़ना होगा ताकि इस कृषि निर्भर देश के कृषकों को आवश्यकतानुसार राहत मिल सके यानी अतिवृष्टि से निजात मिले और वांछित स्थानों पर बारिश करवाई जा सके।