एक वर्ष पूर्व अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की अ प्रोमिस्ड लैंड पुस्तक आई थी। इसमें उन्होंने लिखा कि मुंबई पर 26 नवंबर, 2008 के आतंकवादी हमलों के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करने से बच रहे थे।
ठीक एक वर्ष बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी की पुस्तक 10 फ्लैश पॉइंट 20 वर्ष में दूसरी भाषा में यही बात कही गई है। मनीष तिवारी ने मुंबई हमले की तुलना 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले से की है।
उनका मानना है कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई न करना आत्मसंयम का नहीं कमजोरी का प्रमाण था। मनीष तिवारी ने पुस्तक में यह बात क्यों लिखी है इसके बारे में हमारा आकलन हमारी अपनी सोच पर निर्भर करेगा।
वे इस समय कांग्रेस के अंदर बिक्षुब्ध गुट, जिसे जी-23 कहा जाता है, के सदस्य हैं। इसलिए सामान्य निष्कर्ष यही हो सकता है कि उन्होंने पुस्तक के माध्यम से अपना क्षोभ प्रकट कर कांग्रेस नेतृत्व यानी सोनिया गांधी पर वार किया है, क्योंकि मनमोहन सिंह उन्हीं की कृपा से प्रधानमंत्री बने थे। हालांकि पुस्तक के जितने अंश बाहर आए हैं उसके अनुसार उनकी पंक्तियों में गुस्से का भाव ज्यादा नहीं झलकता।
मूल प्रश्न तो यह है कि क्या मनीष ने जो लिखा है वह गलत है? इसका उत्तर आसानी से दिया जा सकता है और वह होगा नहीं। आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक तथा 2018 में बालाकोट हवाई बमबारी के द्वारा यह साबित कर दिया कि अगर आतंकवादी हमलों के बाद भारत इस तरह की कार्रवाई करता है तो पाकिस्तान इसके प्रतिकार में किसी तरह युद्ध की सीमा तक नहीं जा सकता।
भारतीय नीति निर्माताओं में एक समूह हमेशा ऐसा रहा है जो आतंकवादी हमले की प्रतिक्रिया में पाकिस्तान के विरुद्ध किसी प्रकार की प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई से बचने की सलाह देता है। इसके पीछे कई तर्क होते हैं।
इनमें सबसे सबल तर्क यही होता है कि उसके पास नाभिकीय हथियार हैं और एक गैर जिम्मेदार राष्ट्र उसका कभी भी प्रयोग कर दे सकता है। नरेंद्र मोदी ने अपनी दो कार्रवाइयों से इस मिथक को ध्वस्त कर दिया। पाकिस्तान के मंत्री अवश्य बयान देते रहे कि हमने न्यूक्लियर वेपन फुलझड़ीयों के लिए नहीं रखा है, हमारे पास छोटे-छोटे ढाई सौ किलोग्राम से लेकर बड़े बम है लेकिन वह प्रयोग को छोड़िए भारत की कार्रवाई के बाद धमकी तक देने का साहस नहीं कर सका।
हमारा एक जवान, जो उनके कब्जे में आया था गया, उसे भी सम्मानपूर्वक उन्हें रिहा करना पड़ा। उदाहरण बताता है कि नेतृत्व साहस करें और उसके पीछे संकल्पबद्धता का संदेश हो तो पाकिस्तान को आतंकवादी हमलों के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई चुपचाप सहन करनी पड़ेगी।
ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके नौकरशाहों में से कुछ ने सैन्य कार्रवाई से बचने की सलाह नहीं दी होगी। लेकिन निर्णय तो अंततः राजनीतिक नेतृत्व को ही करना पड़ता है। उसकी सूझबूझ, सुरक्षा परिदृश्य की संपूर्ण समझ, अंतर्राष्ट्रीय वातावरण का सही आकलन, साहस और संकल्प पर निर्भर करता है।
यह तो संभव नहीं कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई पर चर्चा नहीं हुई हो। तत्कालीन वायुसेना प्रमुख बीएस धनोआ ने कहा है कि हमने सरकार को हवाई हमले का प्रस्ताव दिया था लेकिन अनुमति नहीं मिली। उनके अनुसार हमारे पास पाकिस्तान में आतंकवादी शिविरों के बारे में जानकारी थी और हमला करने के लिए हम तैयार थे। केवल सरकार की अनुमति चाहिए थी।
उपवायु सेना प्रमुख बी के बार्बोरा भी इसके लिए तैयार होने की बात स्वीकार करते हैं। तत्कालीन विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने कहा था कि हमने तत्काल ऐसा बदला लेने के लिए थोड़ा दबाव दिया था जो दिखाई दे। हमने तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी और मनमोहन सिंह से इसके लिए बात की। लेकिन उन लोगों ने इसे उचित नहीं माना। उनके अनुसार निर्णयकर्ताओं का निष्कर्ष था कि पाकिस्तान पर हमला नहीं करने का लाभ ज्यादा मिलेगा।
इसके बाद अलग से कोई निष्कर्ष निकालने की आवश्यकता नहीं कि उस दौरान सरकार के शीर्ष स्तर पर कैसी सोच थी। ऐसा भी नहीं है कि उस हमले को लेकर खुफिया इनपुट नहीं था। तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने कहा था कि आईबी और रॉ मुंबई हमले के पहले ऐसे हमले का पूर्वानुमान लगा रही थी। हमारे पास इस तरह की सूचनाएं भी आ रही थी कि ताज होटल या ऐसे दूसरे जगहों पर हमला हो सकता है, उसे बंधक बनाया जा सकता है।
उनके अनुसार हमारी असली विफलता यह थी कि हमने यह किस तरह का हमला होगा इसका आकलन नहीं किया या ऐसे नहीं समझा।इसका मतलब यह भी हुआ कि पाकिस्तान की ओर से आतंकवादी हमलों की मोटा-मोटी जानकारी थी। एम के नारायणन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि बिल्कुल सटीक जानकारी नहीं थी।
सुरक्षा पहलुओं पर काम करने वाले जानते हैं कि खुफिया इनपुट में बिल्कुल सटीक जानकारियां शायद ही होती हैं। अंदेशा होता है समभाव अंदेशा संभावनाएं कुछ सूचनाएं होती हैं और उनके आधार पर उसका आकलन करना पड़ता है कि क्या हो सकता है।
इस तरह यह उच्च स्तर पर सुरक्षा विफलता भी थी। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके रणनीतिकार दूरदर्शी होते तो अवश्य आगे कुछ ऐसे कदम उठाते जिनसे देश का वातावरण बदलता एवं विफलता से ध्यान भी हटता।
स्वाभाविक ही बाद में चर्चा केवल प्रतिकार आत्मक सैन्य कार्रवाई की होती। मुंबई हमला भारत में सबसे बड़ा आतंकवादी हमला था।
यह सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता को चुनौती देना था। 10 आतंकवादी बाजाब्ता समुद्री मार्ग से मुंबई में घुसे और सरेआम उन्होंने गोलियां चलानी शुरू की। करीब 60 घंटे तक सुरक्षाबलों को उनसे युद्ध करना पड़ा और इस दौरान हम जानते हैं कि क्या हुआ। यह ठीक है कि भारत ने लगातार विश्व समुदायके बीच पाकिस्तान के विरुद्ध वातावरण बनाया, उस पर हमले के साजिशकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई के लिए दबाव भी बना।
उसमें अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, इजरायल आदि के नागरिक भी मारे गए थे इसलिए उन देशों का भी दबाव था। बावजूद सच यही है कि आज तक पाकिस्तान में दोषियों के विरुद्ध जैसी कार्रवाई होनी चाहिए नहीं हुई। भारत डोजियर पर डोजियर सौंपता रहा और पाकिस्तान की ओर से कई बार इसका कह कर उपहास उड़ाया गया कि यह तो उपन्यास की कथाओं की तरह है। अगर भारत कार्रवाई करता तो ऐसी नौबत नहीं आती। एक स्वाभिमानी राष्ट्र इस तरह के हमलों का जवाब केवल कूटनीतिक राजनयिक लक्ष्मी तरह कर नहीं दे सकता।
भारत को अमेरिका की तरह पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध नहीं छेड़ना था लेकिन सीमित स्तर पर कार्रवाई न करने से भारत के आम लोगों को निराशा हुई। सैटलाइट फोन की बातचीत पकड़ में आने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि हमलावरों को निर्देश तक सीमा पार से आ रहे थे तो फिर लक्षित सीमित सर्जिकल स्ट्राइक होनी ही चाहिए थी। उस हमले ने पूरे देश को सन्न कर दिया था।
सात घंटे तक पूरे देश की धड़कनें मानों रुक गई थी। लेकिन हमारी ओर से किसी तरह का बदला नहीं लिया जाना देशवासियों के लिए आज भी बना हुआ है। उड़ी हमले के बाद भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की और पाकिस्तान सेहमले के षड्यंत्रकारियों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए अनुनय विनय नहीं करना पड़ा।
इसी तरह पुलवामा हमले के बाद बालाकोट हवाई बमबारी कर भारत ने अपने सामने केवल राजनयिक स्तर तक विकल्प रहने का की आवश्यकता छोड़ी ही नहीं। हालांकि भारत ने मुंबई हमले के बाद अपनी सुरक्षा व्यवस्था को काफी दुरुस्त किया, खुफिया तंत्र में भी व्यापक परिवर्तन हुआ और इस कारण अनेक संभावित हमले रोके ही गए होंगे। उस समय कार्रवाई हो गई होती तो शायद परिदृश्य दूसरा होता और विश्व में भारत की एक स्वाभिमानी सशक्त राष्ट्र की छवि निर्मित होती और देश में उत्साह का वातावरण बनता। मुंबई हमले का सैनिक प्रतिकार न किया जाना हमेशा लोगों को चुभता रहेगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)