केवल 67 बरस की उम्र में सुषमा स्वराज इस दुनिया से चलीं गई...लगा कि कोई अपना चला गया...उन्होंने जो भी जिंदगी जी, जो भी कार्य किए वो कभी भुलाए नहीं जा सकेंगे। दोनों किडनी खराब होने के बाद उन्होंने खुद दर्द झेला लेकिन दूसरों के आंसू पोछें, खुशियां बांटीं और शायद यही वजह है कि उनसे सीधे तौर पर कोई व्यक्ति जुड़ा हो या नहीं, उनके जाने का दु:ख मना रहा है। दिल्ली के एम्स में मंगलवार को उनकी एक झटके में सांसें रुकीं और पूरा देश जो जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के खत्म होने जश्न के खुमार में डूबा था, वह गमगीन हो गया।
जिन लोगों के परिवार का कोई सदस्य 'किडनी' के काम न करने कारण जूझ रहा है, वही इस दर्द को समझ सकता है। यह दर्द तब और बढ़ जाता है, जब अपने प्रिय को डायलिसिस की प्रक्रिया होते हुए देखता है... मैंने खुद इस दर्द को बहुत करीब से देखा है, महसूस किया है क्योंकि खुद मेरी मां को मैंने किडनी के काम नहीं करने की वजह से 6 बरस पहले खोया है।
2011 का वह साल था, जब मम्मी के पैरों में सूजन होने की वजह से मैं उन्हें दिल के विशेषज्ञ डॉक्टर प्रकाश जैन के पास ले जाया करता था। कुछ महीनों तक जब उपचार में फायदा नहीं हुआ तो डॉ. जैन ने कहा, कहीं ऐसा तो नहीं कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं? इन्हें किडनी के डॉक्टर को दिखा देते हैं...
किडनी के डॉक्टर के यहां से जो जांच रिपोर्ट आई, उसमें पता चला कि एक किडनी खराब है और दूसरी 90 फीसदी काम कर रही है...तुरंत डायलिसिस की जरूरत है...सेकंड ओपिनियन में भी डायलिसिस का मशवरा दिया गया...लेकिन डॉक्टर ने यह सुविधा दी कि बीमारी को पहले दवाओं के जरिए दुरुस्त करते हैं और जब दवा असर नहीं करेगी, तब डायलिसिस पर जाएंगे...
हुआ भी यही, दवा का असर कम होता चला गया और वे जो भी थोड़ा बहुत खाना खातीं, उल्टी होने से बाहर आ जाता...फरवरी 2013 से डायलिसिसकी नौबत आ गई और यहीं से दर्द की इंतहा की शुरुआत हुई...सोचा जा सकता है कि 81 साल की उम्र में मां की किस तरह बांह की सर्जरी हुई और फिस्टुला डालकर एक बड़ी रक्त वाहिका बनाई होगी ताकि मशीनों के जरिए खराब रक्त को शुद्ध करके वापस शरीर में भेजा जा सके।
आम तौर पर डॉक्टर 70 से अधिक उम्र वालों का डायलिसिस करने से परहेज करते हैं लेकिन मम्मी संस्कृत की रिटायर्ड टीचर थीं और उनका 'विल पावर' गजब का था लिहाजा वे 81 साल की उम्र में भी उनका डायलिसिस करने पर राजी हो गए।
मुझे आज भी याद है कि डायलिसिस की इस पूरी प्रक्रिया में कुल 6 घंटे का वक्त लगता था। पूरे 4 घंटे तक मम्मी अस्पताल के बिस्तर पर रक्त शुद्ध करवाती रहती थी और यह काम हफ्ते में 2 दिन हुआ करता था। जब डायलिसिस में नस नहीं मिलती तो जगह-जगह इंजेक्शन लगने से चादर पर खून फैल जाया करता था...
यह सब मुझसे यह देखा नहीं जाता क्योंकि जिनके कारण मेरी नसों में खून दौड़ता रहता है, वही मां लाचार होकर बिस्तर पर अपना खून बहाने पर मजबूर थी...मैं मायूस होकर डायलिसिस वार्ड के ठीक बाहर लगी कुर्सी पर बैठकर इसका इतंजार करता था कि कब स्टाफ नर्स आकर यह बोले कि भैय्या आ जाओ, डायलिसिस पूरा हो गया...
नसों से खून न फिर से रिसे, डॉक्टर काली पट्टी बांध दिया करते थे। उम्र का असर हावी होने लगा था, शरीर के दूसरे अंग भी शिथिल हो गए थे। डायलिसिस में हाथ पर आने वाली सूजन को बर्फ की पट्टी लगाकर कम करने की जद्दोजहद चलती रही। पूरे 4 महीने डायलिसिस चलता रहा...
जरूरी नहीं है कि डायलिसिस के बाद पूरी तरह मरीज को आराम आ जाता है...मैं ऑफिस का काम खत्म करके रात जब डेढ़ बजे उनके पास पहुंचता तो वे जागतीं रहती थीं। फिर हम कुछ बातें करते क्योंकि वे सिर्फ मेरी मां ही नहीं बल्कि सबसे अच्छी दोस्त भी थीं। वो कहतीं अब सो जा, रात ढाई बज गए हैं और मैं भी सोती हूं।
मैं लाइट्स बंद करके सामने रखे सोफे पर सोने का स्वांग रचता और देखता कि वो सोईं या नहीं लेकिन कोई आधे घंटे के बाद वो फिर उठकर बैठ जातीं...मैं भी उठकर पूछता क्या नींद नहीं आ रही है? वो कहतीं 'हां, घबराहट होने के कारण नींद नहीं आती..
फिर लाइट्स जलाकर हम दोनों रातभर दुनिया-जहान बातें करते रहते। मैं उन्हें पुरानी यादों में ले जाता, ताकि समय कट सके...देखते ही देखते सितारों से भरी अंधेरी रात कब गुपचुप गुम होकर सुबह के उजाले में बदल जाती, पता ही नहीं चलता...
मम्मी कहती, 'सुबह के 6 बज गए रे, अब तू भी थोड़ी देर आराम कर ले', कोई घंटे-दो घंटे आंख लगती और जब जागता तो पता चलता मम्मी भी जागी हुई है। यह सिलसिला कुछ दिन नहीं बल्कि पूरे 4 महीने तक चला और ऐसी कोई रात नहीं गई जब मैं पूरी तरह सोया हूं।
आखिरकार वो घड़ी भी आ गई, जब एक दिन उन्होंने कहा 'तूने मेरी बहुत सेवा कर ली, तू नहीं जानता कि डायलिसिसके वक्त पूरे 4 घंटे तक बिना करवट लेटे रहना कितना मुश्किल है, वह भी 81 साल की उम्र में..अब मेरी देव स्वरूप आत्मा को मत तड़पा और मुझे जाने दे..'।
25 जून 2013 को सचमुच मम्मी ने हमेशा-हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद ली और भगवान जी के घर चलीं गईं... आज मम्मी को गए 6 साल से ज्यादा का वक्त हो गया है लेकिन एक भी दिन ऐसा नहीं जाता, जब उन्हें स्मरण करके प्रणाम नहीं करता। जब भी किसी परिचित के डायलिसिस के बारे में जानकारी मिलती है तो यकायक इस प्रक्रिया में होने वाली तकलीफ और दर्द का मंजर जेहन में ताजा हो जाता है।
असल में मेरी निजी परिभाषा में डायलिसिस का शुरू होना यानी मृत्युमार्ग की तरफ अग्रसर होना है...मरीज की कितनी सांसें बचीं हैं, यह भगवान ही जानता है। दुनिया में सब रिश्ते मिल सकते, बन सकते हैं लेकिन मां-बाप सिर्फ एक बार ही मिलते हैं, इसलिए उन्हें हमेशा पूजना चाहिए, अपने आराध्य देवता की तरह...
सुषमा स्वराज की भी किडनी खराब हो गईं थीं और उसका प्रत्यारोपण भी हो चुका था लेकिन इसके बाद भी वे चल बसीं। असल में इस ब्लॉग में मेरा निजी स्मरण इसलिए लिखना पड़ा ताकि लोगों को यह पता चल सके कि किडनियां खराब हो जाने के बाद डायलिसिस की प्रक्रिया कितनी कठिन और तकलीफदेह रहती है।
चूंकि मैं खुद इस दौर से गुजर चुका हूं, लिहाजा उसका भी दर्द भी सहा है। मेरा मानना है कि आज जो इंसान स्वस्थ है वो दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति है...