ना वह हिन्दू थी ना ही मुस्लिम थी। उसकी एक ही पहचान थी वह बेटी थी। ना मंदिर था न मस्जिद थी जहां बलात्कार हुआ वह जगह गंदी थी। सोशल मीडिया के तमाम वीरों से पूछना चाहती हूं, वे जो इस एक बलात्कार के लिए बेचैन हैं और जिन्हें दूसरे दिखाई नहीं दे रहे हैं उनसे भी और उनसे भी जो यह मान रहे हैं कि बलात्कार तो होते ही रहते हैं इसमें नया क्या है? क्या देश में कहीं भी घटी कोई भी बलात्कार की घटना आपको सोचने के लिए और सोचकर बोलने या लिखने के लिए विवश करती है?
क्या कभी आपके मन में आता है कि इस पर घटिया राजनीति, सांप्रदायिकता और निम्नस्तरीय टिप्पणी करने से बचा जाए....क्योंकि यह निहायत ही संवेदनशील मामला है। कैसे इस देश में कोई बच्ची बलात्कार के बाद मार डाली जाती है और हम शब्दों की घिनौनी जुगाली करते हुए समाजसेवा का ढोंग रचते रह जाते हैं। क्यों हमारे भीतर ऐसा कुछ नहीं होता कि हमारा आसपास का परिवेश ही सुधर जाए.... हम सब अपनी बेटी के लिए डर जरूर गए पर क्या उस पर लिखते या बोलते समय हम अपने कलेजे का वह दर्द उड़ेल पाए जो हम अपनी बेटी के साथ होने पर व्यक्त करते? निर्भया से लेकर आसिफा तक, गुड़िया से लेकर फलक तक क्या बदला है, कितना बदला है इस पर बहस करने से पहले हम स्वयं को दर्पण में निहार लें...
एक पक्ष जो यह साबित करने पर तुला है कि बलात्कार मंदिर में नहीं हुआ, दूसरे का पूरा प्रयास है कि सिद्ध कर दिया जाए मंदिर में ही हुआ... बलात्कार हुआ है, बच्ची मार डाली गई, लाश मिली है यह एक घटना, इतनी जानकारी 'सनसनी' बनने के लिए पर्याप्त नहीं है... तब क्या किया जाए? धर्म, राजनीति, संप्रदाय, दुश्मनी, कुटिलता, कपट, चालाकी... जैसे सारे सांप एक के बाद एक निकलने लगते हैं और चारों तरफ जहर का वातावरण व्याप्त हो जाता है... हर तरफ एक-दूजे को नीचा दिखाने के लिए, झूठा साबित करने के लिए उल्टे-सीधे तथ्य, वीडियो, कहानी, कपोल-कल्पित बातों की बाढ़ आ जाती है.. और एक आम आदमी जो सच जानना चाहता है, सच जानने पर जिसका अधिकार है वह भ्रमित होकर स्तब्ध खड़ा रह जाता है। तकनीकी मजबूती का छलावा देते सूचना के इस उद्दाम आवेग ने कितना कमजोर कर दिया है हमको? सच हमसे कोसों दूर है। हमें सच बताकर वह सब परोसा जा रहा है जो बहुत कुछ है पर सच नहीं है...
न्याय मांगते चित्रों से भी मुझे परेशानी है कि न्याय आप किससे मांग रहे हैं? अपने आपका मूल्यांकन कीजिए कि बच्ची के प्रति कितनी सच्ची संवेदनशीलता है आपके मन में? अगर हां तो अपने आसपास का माहौल स्वच्छ कीजिए, अपने आसपास के पुरुषों के मानस स्वच्छ कीजिए.. गलत का विरोध अपने स्तर पर, तुरंत और तत्काल कीजिए... सोशल मीडिया का हथियार चलाने से पूर्व प्रशिक्षण लीजिए...
हम सब इसमें शामिल हैं, पूरे समाज के साथ मैं स्वयं और मुझसे जुड़े हर व्यक्ति को इस कटघरे में खड़ा करती हूं। अगर हमने सोशल मीडिया का प्रयोग सिर्फ मुद्दे को भटकाने के लिए किया है, आधी-अधूरी जानकारी के साथ किया है, आधे-अधूरे मन से किया है, इस मुद्दे में अगर हमने धर्म को घसीटकर बलात्कार की घटना को कमतर बताने का प्रयास किया है तो दोषी हम सब हैं।
मत देखिए वह वीडियो, मत पसंद कीजिए वह पोस्ट, जो धर्म, राजनीति और तमाम तरह के उल्टे-सीधे दावों के बीच बेटियों को बर्बाद करने को सामान्य बताने का उपक्रम कर रही है। अपने मन को टटोलो और भारतीय संस्कृति के अनुरूप जिम्मेदार नागरिक बनो... यह देश हमारा है हमें ही सुधारना है... शुरुआत खुद से करनी है।