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Written By नवीन जैन

भारत की पहली महिला शिक्षक सावित्री बाई फुले

भारत की पहली महिला शिक्षक सावित्री बाई फुले - Indias first female teacher Savitri Bai Phule
  • इस तरह शुरू हुआ देश का पहला स्कूल
  • 3 जनवरी को है सावित्री फुले का जन्मदिन
  • पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर की समाजसेवा
Sabitri Bai Phule Birthday: महाराष्ट्र नाम दो शब्दों से मिलकर बना है। पहला, महान। दूसरा, राष्ट्र। दोनों अल्फ़ाज़ जब जुड़े तो ध्वनि साइलेंट नहीं हुई और नया नाम उत्कीर्ण हुआ, महाराष्ट्र। इस नाम की यहां के निवासियों ने हरदम लाज रखी, विशेषकर शिक्षा, समाजसेवा, बीमारों की सेवा, सामाजिक सुधार तथा कुरीतियों का बहिष्कार। इन सभी विभूतियों के नाम गिनाने लगो तो दिलो दिमाग में बेकाबू होने वाली हलचल मच जाती।
 
अतः भारत की पहली महिला शिक्षिका मानी जाने वाली स्व. सावित्रीबाई फुले की चर्चा 5 सितंबर को पड़ने वाले राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के अवसर पर करते हैं। वैसे भी यह साल महिला शिक्षा, बाल शिक्षा और सम्पूर्ण शिक्षा नीति को लेकर खासा चुनौती भरा सिद्ध हो सकता है, क्योंकि की पूरी दुनिया में कोरोना के मामले में भारत दूसरे नम्बर पर आ गया है। कोविड 19 के  28 फीसद मरीज तो भारत में ही अभी तक पाए गए हैं। ऐसे में पूरे एजुकेशन सिस्टम के सामने कई सवाल खड़े हो गए हैं। संयोग है कि ऑनलाइन शिक्षा का युग आ गया है।     
 
बचपन से ही चुनौतियों को समझा : सावित्री बाई ने बचपन से ही इस तरह की चुनौती को समझ लिया था। यह और बात है कि वह जमाना ऑफलाइन या स्कूली शिक्षा का था। सावित्री बाई ने ही सबसे पहले समझ लिया था कि पूरे समाज, विशेषकर दलित तथा अन्य कुछ वर्गों की महिलाओं के पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण उनका पढा-लिखा न होना है। यदि ऐसी बच्चियों को शिक्षा दी जाए तो क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकते हैं। जब उनका विवाह देश में समाज सुधार के अग्रदूत माने जाने वाले स्व. ज्योतिबा फुले से हो गया तो इस दम्पति ने मिलकर पुणे की एक बस्ती में ऐसी कुल 9 बालिकाओं को मिलाकर एक विद्यालय प्रारंभ किया।
 
देश में बालिकाओं का यह पहला स्कूल था। तब इस बारे में कोई ज़रा सी कल्पना करने से भी कंपकंपाने लगता था। सभी जानते थे, ऐसी गुस्ताखी की समाज कोई माफी कभी नहीं देगा। फुले दम्पति ने भी ठान लिया कि जो होगा, देखा जाएगा। सावित्री बाई स्कूल के लिए निकलतीं तो अंधड़ उनका रास्ता नहीं रोकते, बल्कि सभ्य समाज के नुमाइंदे उन्हें गालियों से नवाज़ते, पत्थरों, गंदगी एवं गोबर उन पर फैंककर उनका अभिनंदन करते ताकि कभी तो इस महिला की हिम्मत दरके, टूटे और दलित होने के कारण अपना दूसरा काम करती रहे, मग़र जो ठान लिया सो ठान लिया।
 
अंततः बेकार का विरोध हारा, सच की हिम्मत जीती। एक साल में दोनों ने मिलकर पुणे में ऐसे ही पांच स्कूल खोल दिए, मग़र सावित्री बाई का रास्ता इतना जटिल कठिन कर दिया गया कि यदि रास्ते में हुई हरकतों से उनकी साड़ी गंदी भी हो जाए तो वे घर से ही झोले में दूसरी साड़ी रखकर चलती थीं और स्कूल में जाकर उसे बदल देती थी।
 
इसी बीच, ज्योतिबा फुले का तो देहांत हो ही चुका था और पुणे में प्लेग फैला तो रोगियों की सेवा करते-करते सावित्रीबाई चल बसीं। देश की लगभग आधी आबादी स्त्रियों से आती है, मग़र शिक्षा के मामले में स्त्रियों के साथ काग़ज़ी योजनाओं के बावजूद पूरा न्याय नहीं हो पाता। सही है कि दलित विरोधी कई कड़े कानून बन चुके, लेकिन सोच के दलितपन की दीमक आज भी पूरी तरह से साफ़ नहीं किए जाने के कारण हालात वही ढाक के तीन पात जैसे हैं।
 
अब आवश्यकता इस बात की है कि स्व सावित्रीबाई फुले (जन्म 3 जनवरी 1831 और निधन 10 मार्च 1897) की पुरानी हो चुकी शिक्षा पद्धति से उबरकर ऑनलाइन नई शिक्षा पद्धति बच्चों के साथ बच्चियों को भी उपलब्ध कराने के सार्थक प्रयास हरेक स्तर पर किए जाएं।
 
ऑनलाइन उपकरणों की उपलब्धता की स्थिति तो फ़िलवक्त वैसे ही बड़ी सोचनीय है, क्योंकि लगभग अस्सी प्रतिशत घरों में बच्चों के पास मोबाइल ही नहीं है। कम्प्यूटर तो मिल भी जाते हैं, किन्तु उसके लिए नक़दी की व्यवस्था, उसके सभी एप्लिकेशनस सीखने की समस्या वगैरह भी अपनी जगह हैं। दलितों के मामले में तो सफ़र और भी चुनौतीपूर्ण है। (यह लेखक के अपने विचार हैं। वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है) 
 
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