समझने के लिए भारत में मुख्यत: चार तरह की विचारधारा का अस्तित्व माना जा सकता है। पहला धर्मनिरपेक्षता, दूसरा राष्ट्रवाद, तीसरा साम्यवाद और चौथा जातिवाद। आप मान सकते हैं कि कांग्रेस और भाजपा के बीच मुख्य प्रतिद्वंदिता है, जिसमें वामपंथी, प्रांत और जातिवाद पर आधारित पार्टियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
इस प्रतिद्वंदिता में कांग्रेस के साथ माकपा, भाकपा, सपा, आम आदमी पार्टी, द्रमुक और कांग्रेस से टूटे कई दल शामिल हैं, तो दूसरी ओर जनसंघ और संघ की विचारधारा में भारतीय जनता पार्टी के साथ शिवसेना के अलावा कुछ ऐसे भी दल शामिल हैं जिनकी विचारधारा राममनोहर लोहिया या जयप्रकाश नारायण से जुड़ी हुई है। बसपा, अन्नाद्रमुक और जेडीयू जैसे कई दल है जो वक्त के साथ बदलते रहते हैं।
लेकिन अब शिवसेना का धर्मनिरेपक्ष दल में शामिल हो जाने से यह सिद्ध गया कि एक पांचवीं तरह की विचारधारा भी है जो अब तक क्या थी पता नहीं चला। उन्होंने प्रारंभ में लुंगी वालों को भगाया, फिर उत्तर प्रदेश और बिहारियों के खिलाफ मोर्चा खोला और जब वक्त बदला तो हिन्दुत्व पर आ गई। अब वक्त फिर बदल गया है।
भारत में सैंकड़ों क्षेत्रीय पार्टियां है जिन्होंने राष्ट्रीय पार्टियों के समक्ष चुनौती खड़ी करके रखी है। भारत देश की क्षेत्रीय पार्टियां किसके हित में कार्य करती हैं? स्वयं का हित, परिवार का हित, क्षेत्र का हित, जाति का हित या राष्ट्र का हित? यह प्रश्न आज भी सबसे महत्वपूर्ण बना हुआ है? यह देश सैंकड़ों वर्षों से प्रांतवाद, जातिवाद और परिवारवाद से जकड़ा हुआ है। समयानुसार इन क्षेत्रीय पार्टियों के मित्र और शत्रु बदलते रहे हैं। क्यों? यह भी एक प्रश्न है।
बड़ी अजीब बात है कि कांग्रेस से अलग होकर लगभग 40 से से ज्यादा पार्टियां बनीं लेकिन उनमें से कुछ का ही वर्तमान में अस्तित्व है। उसमें से शरद पवार की नेशनल कांग्रेस पार्टी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और जनता पार्टी, लोकदल (ब) और जनमोर्चा के विलय के बाद बने जनता दल के टूटने से उपजे कई सारे दल आज भी अस्तित्व में हैं। मजे की बात यह कि ये कांग्रेस का घोर विरोध करके अलग हुई और फिर से कांग्रेस की गोद में बैठ गई।
सबसे बड़ी बात यह कि देश के राष्ट्रीय मुद्दों और हितों की लड़ाई में ऐसे कई दल हैं जिनकी कोई विचारधारा ही नहीं है। वे सिर्फ सत्ता का सुख चाहते हैं इसीलिए वे वक्त के साथ खुद को बदलते रहते हैं। आप उन दल और नेताओं को स्पष्ट रूप से पहचान सकते हैं, जो कि दोनों ही पार्टियों (भाजपा, कांग्रेस) के शासनकाल में सत्ता में रहे। तृणमूल कांग्रेस ने जहां अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का साथ दिया था, वहीं एक समय बाद वह मनमोहन सिंह की पार्टी में भी उनके साथ खड़ी थी। ऐसे भी कई नेता या दल हैं, जो चुनाव के बाद अपना समर्थन उसे ही देते हैं जिसने सत्ता की कुर्सी को जीत लिया है।
भारत में अपना दल, आम आदमी पार्टी, मुस्लिम लीग, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन, बसपा, सपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, सपाक्स, जयस, अखिल भारतीय गोरखा लीग, जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, असम गण परिषद सहित पूर्वोत्तर के हर राज्य की एक अलग पार्टी, बीजू जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस, जम्मू व कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि ऐसी कम से कम 100 से अधिक पार्टियां हैं जिन्होंने क्षेत्रीयता का झंडा उठाकर राष्ट्रीय विचारों को ताक में रख रखा है। यह बड़ा अजीब है कि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन, और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग जैसी कई पार्टियां हैं जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताती हैं।
इस समय क्षेत्रीय पार्टियां आंध्रप्रदेश, असम, बिहार, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल में अपने अकेले दम पर या राष्ट्रीय पार्टी अथवा किसी और पार्टी के साथ मिलकर शासन कर रही हैं। इन सभी क्षेत्रीय पार्टियों की एक खासियत यह है कि ये सभी एक ऐसे नेता के इशारे पर चलती हैं जिसकी सत्ता को पार्टी के अंदर कोई चुनौती नहीं दे सकता। संक्षेप में कहें तो इन्हें कोई एक नेता और उसके विश्वासपात्र चला रहे हैं। उनके परिवार के सदस्य और रिश्तेदारों का भी पार्टी के काम-काज में खासा दखल रहता है। ये पार्टियां किसी एक ही परिवार के संगठन, संस्था या कंपनी की तरह हैं।
हालांकि जो पार्टियां किसी वैचारिक आधार पर गठित हुई हैं, उन्हें भी समय के साथ व्यक्तिगत जागीर और व्यक्तिगत हितों की रक्षा का साधन बना दिया गया है। क्षेत्रीय दलों की एक और खास बात यह है कि परिवार के सदस्य, नजदीकी रिश्तेदार और मित्र ही पार्टी के कामकाज देखते हैं। यह उसी तरह कि किसी बड़ी किराने की दुकान को बेटा या रिश्तेदार विरासत में हासिल करते हैं। इस दुकान पर काम करने वाले कई कर्मचारी भी इसे अपनी ही दुकान समझकर समर्पित भाव से अपना संपूर्ण जीवन दांव पर लगा देते हैं। जब दुकान के मालिक के ज्यादा भाई या पुत्र होते हैं तो संकट खड़ा हो जाता है। समाजवादी पार्टी (सपा) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
इसी तरह की सभी पार्टियों की कहानी है। अन्नाद्रमुक और बसपा की कहानी लगभग एक जैसी है। जयललिता ही पार्टी की सबकुछ थीं, जैसे माया ही वर्तमान में सबकुछ हैं। अब वे उनके रिश्तेदार और भतीजे को आगे बढ़ा रही हैं। द्रमुक का हाल भी वैसा ही है। करुणानिधि के बाद उनका पुत्र स्टालिन अब पार्टी का मुखिया है। आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में भी 2 क्षेत्रीय दलों तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी) और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का शासन है जिन्होंने कभी राष्ट्रीय दलों को पैर नहीं पसारने दिया। ओडिशा में बीजू जनता दल (बीजद) सालों से जमे हुए हैं। इस क्रम में आप शिवसेना का नाम भी ले सकते हैं।
क्षेत्रीय पार्टियां भारत की राजनीति में सिर्फ सत्ता के लिए हैं, देशसेवा के लिए नहीं। ये वक्त-वक्त में अपनी जातियां और मुद्दे बदलते रहती हैं। कभी ये जातिवाद की बात करती हैं, तो कभी भाषा की, तो कभी अपने प्रांत की रक्षा की। हालांकि यह भी बहुत ही आश्चर्य है कि इन प्रांतवादी पार्टियों ने ही अपने प्रांत के टुकड़े करने के लिए आंदोलन चलाए हैं और वे बाद में नए प्रांत के मुखिया बन बैठे। दरअसल, यह समझना जरूरी है कि इनमें से कितनी क्षेत्रीय पार्टियों को देश से कोई मतलब नहीं है।
व्यक्तिगत संस्था या कंपनी की तरह अपने दल को चला रहे क्षेत्रीय दलों के केंद्र या राष्ट्रीय राजनीति में दखल से क्या भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, जातिवाद, प्रांतवाद, अपराध और जंगलराज को बढ़ावा नहीं मिलता है?
वर्तमान में न कांग्रेस का कोई विकल्प है और न ही भारतीय जनता पार्टी का और यह अच्छी बात भी है। कांग्रेस कैसे यह स्वीकार कर लेती है कि जिन दलों ने कांग्रेस को तोड़कर घोर विरोध करते हुए एक अलग दल बनाया और कांग्रेस उन्हीं को सपोट करती है? जनता भी यह कैसे अगले चुनाव में स्वीकार कर लेती है कि हमने कांग्रेस के विरोध के कारण जिस दल को वोट दिया वह फिर से कांग्रेस से जा मिला?
क्षेत्रीय दलों में कुछ दलों का इतिहास उठाकर देखें तो उनमें से कुछ ने प्रांतवाद की आग को ही भड़काया है, तो कुछ ने जातिवाद की आग को भड़काकर सत्ता का सुख पाया है। उन्होंने अपने क्षेत्र में कलह और क्लेश को ही बढ़ावा दिया है। दक्षिण और उत्तर भारत की लड़ाई के साथ ही जातिवाद, प्रांतवाद और भाषावाद ने इस देश को कभी भी राष्ट्रीय तौर पर एक नहीं होने दिया। क्या देश को राष्ट्रीय तौर पर एक नहीं होना चाहिए?
सवाल तब कांग्रेस और भाजपा पर उठते हैं जबकि वे ऐसे ही क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेकर केंद्र की सत्ता का सुख भोगना चाहते हैं। क्या उन्हें यह नहीं समझना चाहिए कि हमें प्रांत, जाति और भाषा की राजनीति से उठकर राष्ट्रवादी और धर्मनिरपेक्ष सोच का समर्थन करना है?