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विरोध का धुआं और चर्चाओं का बढ़ता कारवां

विरोध का धुआं और चर्चाओं का बढ़ता कारवां - Ideological opposition, Uttar Pradesh
अपनी पढ़ाई-लिखाई धुर देहाती माहौल में उस पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुई है, जहां विकास की किरणें उतनी रफ्तार से नहीं पहुंच पाई हैं, जितनी उम्मीद की जानी चाहिए। ऐसा नहीं कि उस माटी में सबकुछ अच्छा ही अच्छा है, लेकिन उस माटी ने संस्कारों के जो गहरे बीज अपने अंदर रोपित किए हैं, उन बीजों का कोमल अंकुर अब भी अपने आत्म में कहीं न कहीं समाया हुआ है। यह समाना ही है कि अपने गुरुजनों, अपने स्कूलों-कॉलेजों के वरिष्ठों को तमाम वैचारिक विरोधों के बावजूद इज्जत बख्शने का अंदाज खुद-ब-खुद अपने अंदर बना हुआ है। यह संस्कारों के बीज का ही असर है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष और मौजूदा कांग्रेस महासचिव मोहन प्रकाश अपने तमाम समाजवादी पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक रुझान के बावजूद अपने से जूनियर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से उसी विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रहे मौजूदा केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा से मिलते हैं, तो पहला सवाल उनके दुख-सुख का ही होता है। 
 
जूनियर सिन्हा भी उसी अंदाज में अपने सीनियर मोहन प्रकाश के सामने खड़े रहते हैं, जैसे अब भी वे विश्वविद्यालय में हों। यह संस्कारों का ही असर है कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह अनाम से पत्रकार प्रवाल मैत्र के सामने हाथ बांधे खड़े रहते हैं, लेकिन 19-20 मई को इन संस्कारों को मैंने अपने उस संस्थान में तार-तार होते देखा, जिस भारतीय जनसंचार संस्थान में ढाई दशक पहले मैं पत्रकारिता का तकनीकी पाठ पढ़ने आया था। मौजूदा सत्र के कुछ छात्रों ने जिस तरह मुझसे और संस्थान के महानिदेशक केजी सुरेश से बदतमीजी की, उसकी कम से कम मैं तो उम्मीद नहीं कर रहा था। एक छात्र को मैंने हवाला दिया कि मैं तुमसे करीब ढाई दशक पहले इस संस्थान में था, इस नाते कम से कम मेरी बात तो सुन लो तो उसका जवाब था कि यह आपकी गलती है कि आप चौबीस साल पहले पैदा हो गए, मेरी गलती थोड़ी है। दिलचस्प यह है कि यह छात्र ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन के बैनर के तले काम कर रहा है। गैर पूरबिया लोगों को बुरा लग सकता है, लेकिन अपने पूरब में ऐसी बदजुबानी अपने सीनियर से होती तो तीसरा-चौथा छात्र इसका शारीरिक प्रतिकार जरूर करता। 
 
दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और उसी कैंपस में स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान की लाल ईंटों की तासीर ही कुछ ऐसी है कि यहां आते ही वे छात्र भी क्रांतिकारी बन जाते हैं, जिन्होंने अपनी पिछली पढ़ाई के दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या समाजवादी युवजन सभा की राजनीति की होती है या फिर उससे प्रेरित हुए होते हैं। आज के दौर के एक क्रांतिकारी पत्रकार के बारे में जब मुझे यह पता चला कि जब वह वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे तो दक्खिनी टोले के जबर्दस्त कार्यकर्ता थे, लेकिन दिल्ली की लाल गलियों में घूमने लगे तो उनका भी मन लाल हो गया। इसकी बड़ी वजह यह नहीं कि ऐसे लोगों का वैचारिक परिवर्तन हो जाता है और वे सचमुच लाल झंडे के नीचे सामाजिक बदलाव की आंधी को लाने की कोशिश करने लगते हैं। उनके वैचारिक बदलाव की वजह होता है, उनका भावी करियर। ढाई दशक पहले से देख रहा हूं, मीडिया की दुनिया में उन लोगों को ज्यादा तवज्जो नहीं मिली, जिन्हें अच्छी कॉपी लिखनी आती है, जिन्होंने जमकर पढ़ाई की है या फिर जिनके पास ज्ञान और अनुभवों का खजाना है। पत्रकारिता और अध्यापन की दुनिया में वामपंथी, या पिछड़ावादी समाजवादी दर्शन से प्रभावित लोगों को ज्यादा तवज्जो मिली। टेलीविजन के विस्तार के बाद टेलीविजन में भी प्रतिभाओं की बजाय सुंदर चेहरों, ‘होना और सोना’ के सुखों के बीच अपनी नियति देखने वालों को अच्छे और बेहतरीन मौके मिले। इसलिए वैचारिक चोला बदलने में चतुर-सुजान लोगों ने देर नहीं लगाई। पत्रकारिता या अध्यापन की दुनिया चोला बदलने की बजाय प्रतिबद्धताओं की मांग ज्यादा करती है, लेकिन दुर्भाग्यवश पिछले ढाई-तीन दशक में इस सोच को कुछ ज्यादा ही तिलांजलि दी गई है।
 
अपनी विचारधाराओं पर कायम रहने और उसके प्रति प्रतिबद्ध रहने के लोकतांत्रिक अधिकार से किसी को इनकार कैसे हो सकता है, लेकिन दूसरे की विचारधारा को नकारने के लिए विरोध का हिंसक तरीका अख्तियार करना फिर क्यों उचित माना जा सकता है, लेकिन भारतीय मीडिया और बौद्धिक जमात का अधिसंख्य हिस्सा इसी मानसिकता से ग्रस्त है। इसीलिए जब कोई कार्यक्रम होता है और उसकी शुरुआत में यज्ञ और हवन होता है तो उसे विरोधी पक्ष धर्मनिरपेक्षता पर हमला बताने लगता है, लेकिन यही वर्ग रोजा के दिनों में मंत्रियों के घरों में गोल टोपियां लगाने और रोजा इफ्तार की दावतें उड़ाने में अपना गर्व समझने लगता है। जब भारतीय समाज में क्रिसमस ईसाई वर्ग के दायरे से निकलकर हर वर्ग का त्योहार बन सकता है तो फिर किसी संस्था में किसी कार्यक्रम में यज्ञ हो या हवन होता है तो फिर विरोध क्यों? निर्भया बलात्कार कांड हो या अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, मोमबत्तियां जलाकर विरोध जताने का तरीका सहज स्वीकार्य हो चुका है। जेसिका लाल के हत्यारे मनु शर्मा को जब अदालत ने अभियोजन पक्ष की लचर पैरवी के बाद रिहाई के आदेश दिए थे, तब भी दिल्ली के इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जलाईं गईं थीं। मोमबत्ती जलाना भी भारतीय परंपरा नहीं है, यह ईसाई परंपरा से आई है। तब तो बहुसंख्यक समुदाय ने इस परंपरा का विरोध करने की बजाय स्वीकार ही किया, फिर किसी संस्थान में यज्ञ और हवन का विरोध क्यों? ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता-मीडिया और मिथ’ विषय पर आयोजित कार्यक्रम की शुरुआत में अगर आयोजकों ने पारंपरिक दीप प्रज्ज्वलन की बजाय हवन करने की ही ठान ली तो इससे आफत कैसे आ गई, यह समझ में नहीं आता। 
 
हमारी पूरी पढ़ाई-लिखाई सरकारी स्कूलों में हुई है। वे भी भारतीय जनसंचार संस्थान की तरह सार्वजनिक पैसे से चलते हैं। उनमें नए शैक्षिक सत्र की शुरुआत विद्या की देवी सरस्वती की पूजा से ही होती थी। सरस्वती पूजा के पहले नई किताबों और नोटबुकों से पढ़ाई-लिखाई नहीं की जाती थी। उस आयोजन में हम बच्चे पूरी शिद्दत से जुटते थे। बरसात के मौसम (क्योंकि उत्तर प्रदेश में नए सत्र की शुरुआत जुलाई में ही होती है) पानी में भीग-भीग कर हम बच्चे कहां-कहां से पूजा के पवित्र फूल जुटाते थे। उसमें हमारे साथ मुस्लिम बच्चे भी होते थे। उनके अभिभावकों तक को कभी इस सरस्वती पूजा को लेकर बुत पूजा का खयाल नहीं आता था। हमारे यहां शादी-विवाह, मुंडन-जनेऊ में जो बैंड-बाजा बजता है, उन पार्टियों को चलाने-बजाने वाले ज्यादातर मुसलमान ही हैं, लेकिन इन आयोजनों पर होने वाले सत्यनारायण की कथा के प्रसाद को लेने में उन्हें हिचक नहीं होती। अगर प्रसाद ना मिला तो वे शिकायत तक करते हैं। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के हमारे गांव के पास स्थित सहतवार कस्बे में हमारे ही खानदान के चौदहवीं सदी के एक संत चैनराम बाबा की समाधि है। उस समाधि पर हिंदू ही नहीं, मुसलमान भी जुटते हैं, आरती-प्रसाद में शामिल होते हैं। इसी तरह यहां की दोनों मस्जिदों में रोजे के दौरान हिंदू भी जाते हैं। ऐसे माहौल में पले-बढ़े होने के बावजूद हमें अब तक यह सवाल समझ में नहीं आया कि किसी संस्थान के कैंपस में महिषासुर की पूजा तो हो सकती है, नमाज तो पढ़ी जा सकती है, लेकिन दुर्गा पूजा या सरस्वती पूजा क्यों नहीं हो सकती, किसी कार्यक्रम की शुरुआत में यज्ञ या हवन होने से धर्मनिरपेक्षता कैसे संकट में पड़ जाती है?
 
भारतीय जनसंचार संस्थान में 20 मई को जिस समूह ने ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता-मीडिया और मिथ’ विषय पर कार्यक्रम आयोजित किया था, उसी समूह ने 2014 में यहां जल पर मीडिया चौपाल आयोजित किया था। मीडिया चौपाल के हर कार्यक्रमों उस समूह के लोगों को भी सादर आमंत्रित किया जाता रहा है, जिन्होंने भारतीय जनसंचार संस्थान में यज्ञ और हवन का विरोध किया और इसे तूल दिया। दिलचस्प यह है कि मीडिया चौपाल में अगर दूसरे खेमे के श्रीप्रकाश जी जैसे लोग ना आएं तो सवाल उठने लगते हैं। इसका असर यह होता है कि मीडिया चौपाल के दौरान हर सत्र में श्रोताओं की भीड़ जुटती रही है। लेकिन यज्ञ विरोधियों के चलते ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता-मीडिया और मिथ’ की चर्चाओं में वैसी भीड़ नहीं जुटी। इसकी एक वजह यह रही कि उग्र विरोध और कार्यक्रम बिगाड़ने की आशंका के चलते आयोजकों को एहतियात बरतनी पड़ी। लेकिन इसका असर यह हुआ कि इस कार्यक्रम की राष्ट्रव्यापी चर्चा हो गई। 
 
कुछ पत्रकारों ने एकतरफा रिपोर्टिंग की। जिनमें भारत के एक प्रमुख मीडिया हाउस के साथ ही एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया हाउस के पत्रकार आगे रहे। लेकिन दुखद यह कि जिन चिंताओं पर चर्चा के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन हुआ, सत्रों में जिन पर सार्थक और आंख खोलने वाली चर्चाएं हुईं, उनकी चर्चा नहीं हुई। जम्मू-कश्मीर को लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया काफी उत्तेजित रहता है। जम्मू-कश्मीर के सवाल विषय पर आयोजित परिचर्चा में आए तथ्यों और विचारों को जानना आज देश के लिए ज्यादा जरूरी है। कितने लोगों को पता है कि जम्मू-कश्मीर में निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन नहीं हुआ है, कितने लोग जानते हैं कि जिस दलित समुदाय को लेकर आज भारत की विचारसरणियों में उत्तेजना है, उन दलितों को कश्मीर में अधिकार तक नहीं है, कितने लोगों को पता है कि शेख अब्दुल्ला के चलते घाटी से पचास के दशक में डोगरा राजपूतों को भी निर्वासित होना पड़ा था, कितने लोगों को पता है कि कश्मीर में अलगाव की जो विचारधारा है, वह राज्य के महज 15 फीसदी हिस्से की समस्या है। कायदे से इसे देश को जानना चाहिए था, लेकिन यज्ञ और हवन विरोध के चक्कर में देश इस चर्चा को व्यापक रूप से जानने से वंचित रह गया। इस आयोजन के एक सत्र नक्सल प्रभावित इलाके के वंचितों के सवाल पर भी चर्चा हुई। 
 
इस कार्यक्रम को कवरेज तो मिली, लेकिन इसमें शामिल छत्तीसगढ़ के पुलिस अधिकारी कल्लूरी के शामिल होने की वजह से। कल्लूरी मानवाधिकारवादियों के निशाने पर हैं। बहरहाल कल्लूरी ने जो कहा, वह कुछ वैसा ही रहा, जैसा जम्मू-कश्मीर वाले सत्र में जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के संरक्षक अरुण कुमार ने कहा। अरुण कुमार का सुझाव रहा कि जम्मू-कश्मीर को जम्मू-कश्मीर की नजर से देखिए, उसी तरह कल्लूरी ने कहा कि बस्तर के आदिवासियों की समस्या को उन्हीं के नजरिए से देखिए। उन्होंने कहा कि बस्तर का आदिवासी पुलिस और आंध्र से आयातित नक्सल कमांडरों के बीच पिस रहा है। जिनकी उगाही से सालाना कमाई 11 सौ करोड़ रुपए हो गई है। सार्थक चर्चा इतिहास के पुनर्लेखन पर भी हुई। लेकिन यज्ञ और हवन के खिलाफ उठे वैचारिक वितंडा के धुएं में ये चर्चाएं कहीं विलीन हो गईं। लेकिन कहा जाता है कि विचार कभी मरते नहीं, वे जिंदा रहते हैं। विचार जिंदा हैं भी। इन विचारों का ही असर है कि बहुसंख्यकवाद के प्रतिकार के कथित धर्मनिरपेक्ष मंसूबे को अब देश समझने लगा है। मौजूदा तंत्र में हावी बुद्धिजीवी जो इसके ही जरिए अपनी रोजी-रोटी, विदेश यात्राएं और मोटी कमाई करते हैं, जिस विचारधारा का प्रतिकार करते रहे, प्रतिकारी विचारधारा लगातार ताकतवर होती गई। उसका जनसमर्थन बढ़ता गया और देश के तमाम चुनावों में वह लगातार प्रतिष्ठा हासिल करती जा रही है। 
 
यह बिडंबना नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हजारों करोड़ की अवैध कमाई करने वाला राजनेता स्वीकार्य बनता जाता है, उसका भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रहता। अव्वल तो सादगी और अंतिम व्यक्ति तक विकास की सड़क पहुंचाने का दावा करके अपना समाजवादी या बहुजनवादी या लालवादी घर भरने वाली विचारधारा का विरोध होना चाहिए था। क्योंकि आजादी के सत्तर साल बाद भी दलित, आदिवासी, पिछड़ी जनसंख्या वहीं की वहीं है, लेकिन उनकी बात करने वाली राजनीति, विचारधारा के पोषक और बुद्धिजीवी लगातार ताकतवर, समृद्ध होते गए हैं। उनकी अट्टालिकाएं लगातार चमकती जा रही हैं। दिलचस्प यह है कि उनकी अट्टालिकाओं का सम्मान भी दलित और पिछड़ा उत्थान के ही नाम पर हो रहा है। लेकिन गांधीजी का दरिद्रनारायण अभी तक अपना वाजिब हक पाने को तरस रहा है। 
 
लोकतंत्र के लिए वैचारिक मतभेद जरूरी है, तभी कल्याणकारी विचार सामने आ सकते हैं। लेकिन सिर्फ विरोध के लिए सेलेक्टिव विरोध स्वीकार्य कैसे हो सकता है। यह बिडंबना नहीं तो और क्या है कि जब अमेरिका और ब्रिटेन की धरती पर मंदिर सजते हैं, धार्मिक कथाएं होती हैं तो वह सकारात्मक खबर होती है, लेकिन यज्ञ और हवन की परंपरा वाले देश में इसका विरोध होता है। इसीलिए जब नमाज, मोमबत्ती, महिषासुर उत्सव आदि के समर्थक जब यज्ञ या हवन के विरोध में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उतरते हैं, भारतीय परंपरा के समर्थन में लोग उतर आते हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान के कार्यक्रम के समर्थन में संस्थान से ही पढ़कर निकले पत्रकारों का उतरना भी इसी की कड़ी है।
(लेखक सुपरिचित पत्रकार हैं।)