सेवा, त्याग, इंसानियत, नि:स्वार्थ प्रेम की जीती-जागती कहानी
अतीत के समंदर में तैरती एक और रंग-बिरंगी कश्ती की कहानी
आइए आज हम मिलते हैं 'फरिश्तों' से। हां, यही संबोधन या 'देवदूत' या वो 'ताबीज', जो सबकी पीर हर ले। जिनकी तो तासीर ही यूं है ताबीजों की तरह। जिसके भी गले मिलते हैं, उसकी बरकत हो जाती है। जो मुस्कुराकर सारे दर्द टाल देते हैं, रब किसी किसी को ही ये कमाल देते है।
ऐसे ही अजब-गजब हैं डॉ. महेन्द्र कुमार झा (हमारे महेन्द्र भैया) और प्रतिमा भाभी।
जिंदगी के सफर में अनेक मोड़ आते हैं। कुछ तोड़ जाते हैं, कुछ जोड़ जाते हैं। रिश्तों की पाठशाला अगर बनाई रखनी है तो गणित विषय कमजोर होना बहुत जरूरी है और हम सभी को अपनी इस कमजोरी पर नाज है।
चलिए चलते हैं 'वेदांश इंटरनेशनल स्कूल'...।
माइक पर लगातार अनाउंसमेंट, स्वागत, कंकू-तिलक, आरती, फूलमालाओं से स्वागत और लगभग 2,000 बालक-बालिकाएं, विद्यालय परिवार और उनके परिवारजन, बास्केटबॉल ग्राउंड, दिसंबर माह का ठंडा मौसम। 'स्कूल' में 'एनुअल फंक्शन' का दौर।
ऐसे समय में हमारे परिवार प्रियों में से एक भतीजे और बहू अभिषेक-पूनम और अखिलेश-प्रतिभा की जिद्दी मनुहार कि आप दोनों को दीप प्रज्वलन का पुण्य कार्य करना है। इंकार करने का तो प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि हमारे लिए भी यह एक ऐसा मौका था जिसमें हम उन फरिश्तों के प्रति अपना आभार, प्यार और वंदन प्रकट कर पाते जिनकी वजह से आज हम सब यहां हैं।
तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के बीच हम दीप प्रज्वलन कर रहे हैं। सुनहरी नारंगी लौ की रोशनी से हमारे चेहरों की आभा और चमक भी दुगनी हो गई। यह आभा थी आत्मसम्मान और गौरव की। अभिषेक और पूनम आज इस 'वेदांश इंटरनेशनल स्कूल' और अखिलेश-प्रतिभा किंग्सटन प्रीमियम प्री स्कूल रूपी विद्या रथ के सारथी के रूप में हमारे साथ खड़े थे।
हमें उन दीपशिखा की लौ में 2 खूबसूरत प्रेमिल चेहरे नजर आ रहे थे। महेन्द्र भैया और भाभी। चिराग-सी तासीर। हां, ऐसा ही तो जीवन रहा है उनका। दीपक की मानिंद। केवल और केवल खुद को जलाकर दूसरों के जीवन में उजाला फैलाना। इन्होंने बड़े ही सलीके व बड़ी ही सादगी से काम लिया के दीया जला के अंधेरे से इंतकाम लिया।
1 सितंबर 1949 को गांव हेठीवाली, मधुबनी (बिहार) में किसान माता-पिता के घर जन्मे महेन्द्र भैया प्राथमिक शिक्षा के बाद अपने चाचाजी विद्वान ज्योतिषाचार्य गुरु रामचंद्र झा के साथ 1962 में इंदौर आए। आगे की स्कूली और कॉलेज शिक्षा में बीएएमएस किया और चल पड़े मानवता की सेवा और इंसानियत का पैगाम लिए।
मार्गदर्शन सही हो तो दीये का प्रकाश भी सूरज का काम कर जाता है। बस, फिर क्या था? डॉक्टर एलसी यशलाहा जैसे गुरु की छत्रछाया में वो हुनर पाया कि पश्चिमी इंदौर का कोई बिरला व्यक्ति ही होगा, जो इन दोनों के गुणगान न करता हो। 'न हथियार से मिलते हैं, न अधिकार से मिलते हैं, दिलों पर कब्जे बस अपने व्यवहार से मिलते हैं।' और ये दोनों गुरु-शिष्य मिसाल हैं इस बात के कि 'दिल से दिल की राह होती है, जिनकी नीयत साफ होती है, उनकी हर बात में एक बात होती है।'
फिर भाभी आईं। शरद पूनम का चांद। अपने चाचाजी के घर, चढ़ाव के नीचे वाले हिस्से में एक पलंग, टेबल, कुरसी, अलमारी। यही कुछ दिखता था उस खिड़की से अंदर उचककर झांकने पर। मेरी उम्र रही होगी यही कोई 8-9 वर्ष के बीच। हमारे मोहल्ले में संबोधन उच्चारण सुविधानुसार बोले जाते थे।
महेन्द्र भैया 'महेन भिया' होते। बस चले हम बुलाने अपने महेन भिया को। ज्यादा कुछ समझ आता नहीं था, खिड़की से आवाज लगा दी उस सफेद रंग के बागड़ लगे आंगन वाले हरे रंग की खिड़की-दरवाजे वाले पक्के मकान में। आज एक बात जरूर बनती है उनके लिए लिखना कि 'अमर-अकबर-एंथोनी' फिल्म के गीत की लाइनें बिलकुल फिट हैं बस एक बदलाव के साथ। 'आया है तेरे दर पे सवाली, लब पे दुआएं, आंखों में आंसू, दिल में उम्मीदें पर 'जेब खाली'।'
खैर, तो उनके मुरीदों को जवाब देते घर के सदस्य झुंझला उठते, इंकार भी करके भगा देते। हम भी चपेटे में आए। लताड़ खा, लंबा-सा मुंह लेकर वापस लौटने को हुए ही थे कि एक चांद-सी खूबसूरत, परियों की रानी-सी, बड़ी-बड़ी पनीली चमकती सुंदर आंखों वाली, प्यार से मुझे देखकर फुसफुसाकर कुछ-कुछ इशारा करते एक औरत उस खिड़की में दिखाई दी।
अजीब सी कुछ बोली थी, पर प्यार की बोली थी। शब्दों को समझने की जरूरत ही नहीं हुई। फिर थोड़ी-सी देर में महेन भिया घर पर हाजिर। बाद में समझ आया कि भाभी हैं, बिहारी बोलती हैं। मीठी-सी बोली।
बस, जीवन यात्रा जारी हुई जीवनसाथी के साथ। हुनर ये कि किसी का दिल टूटे भी ना, साथ छूटे भी ना, कोई रूठे भी ना और जिंदगी गुजर जाए। छोटी-छोटी खुशियां ही तो जीवन का आधार बनती हैं। ख्वाहिशें तो पल-पल बदलती रहती हैं। इसी बीच अभिषेक आया और अखिलेश। और जीवन में आए कई उतार-चढ़ाव। कभी हिम्मत नहीं हारी। एक किराए के कमरे से जीवन यात्रा फिर से शुरू की। हमेशा की तरह कड़ी मेहनत के साथ।
साफ-सुथरे क्रीजमंद कपड़े पहनने के शौकीन, अपने कॉलेज टाइम के कुश्ती चैंपियन, रेसलर रह चुके महेन्द्र भैया की दिनचर्या सुबह 3.30 बजे से शुरू होती। भगवान की सेवा, पूजा और रोज लगभग 15 से 20 किलोमीटर साइकल चलाकर गांव कलमेर, जम्बूर्डी हब्सी के साथ राजनगर, जैन कॉलोनी, बड़ा गणपति और कई ट्रस्ट के द्वारा संचालित अस्पतालों में आपको ये मिल जाएंगे।
सभी मरीजों को इनमें साक्षात भगवान नजर आते हैं। और हां, आज तक कभी भी किसी से कोई फीस मांगी नहीं है। 'जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला।' ऐसा फकीराना अंदाज है इनका। आज के जमाने में भी 10/- फीस मिल रही है।
अंधकार में दीप जलाना सबके बस की बात नहीं,
कठिन समय में साथ निभाना सबके बस की बात नहीं,
मन के मौन समंदर में जब ज्वार उठा हो पीड़ा का,
पीड़ाएं पीकर मुस्काना सबके बस की बात नहीं।
पर भैया-भाभी ने आपसी सूझ-बूझ से अमल किया कि-
कद बढ़ा नहीं करते एड़ियां उठाने से,
नियामतें तो मिलती हैं सर झुकाने से।
जीते रहे अपनी धुन में दुनिया का कायदा नहीं देखा,
रिश्ता निभाया तो दिल से, कभी फायदा नहीं देखा।
बॉलीवुड के दीवाने भी हैं ये भैया-भाभी। 'हीमैन' धर्मेन्द्र और 'ड्रीमगर्ल' हेमा मालिनी के जबरदस्त फैन हैं भैया। हर फिल्म देखते रहे हैं। रामायण पसंदीदा ग्रंथ। हिन्दी, इंग्लिश, संस्कृत, मालवी, बिहारी भाषा के ज्ञाता हैं। 'आया सावन झूम के' पसंदीदा फिल्म। 'पल-पल दिल के पास...' किशोर दा का गीत फेवरेट है।
महेन्द्र भैया मुरली अग्रवाल और महेन्द्र दलाल को हमेशा साथ देने के लिए धन्यवाद देते हैं जिनके साथ ने उन्हें हिम्मत दी, वहीं भाभी समय के हिसाब से खुद को बदलने में माहिर हैं। कुशल गृहिणी के रूप में भाभी डिस्टिंक्शन से बाजी मारती हैं। विनोद मेहरा, जितेन्द्र और सलमान को पसंद करती हैं, पर श्रीदेवी की फैन हैं। बॉलीवुड अपडेट रखती हैं और कैलेंडर कैल्कुलेशन जबरदस्त है।
फेवरेट मूवी 'चांदनी', 'प्रेम रतन धन पायो', 'हम साथ-साथ हैं' हैं। पर गीत जो पसंद है, वो है 'थाना में बैठे ऑन ड्यूटी', 'मोरनी बागां में बोले।' मोहम्मद रफी साहब व उदित नारायण के गीत सुनना पसंद करती हैं। दुनिया जहां की खबरें पढ़ना शौक है भाभी का। अपने बेटे-बहुओं, पोती त्रिधा और पोते वियान के साथ सुखद जीवन जी रहे इन दोनों का मानना है कि-
'मकड़ी के जैसे मत उलझो तुम, गम के ताने-बाने में,
तितली जैसे रंग बिखेरो, हंसकर इस जमाने में।'
इनकी देहरी से कभी भी कोई निराश होकर नहीं गया। आपकी नजरों में आफताब की है जितनी अज्मत, उतना ही चिरागों का भी अदब करते हैं। इसलिए इनकी बेफिक्र-सी सुबह और गुनगुनाहट-सी शाम होती है।
मुश्किलों के दौर अपने आप ही कट जाएंगे,
एक-दूजे के लिए आंखों में पानी चाहिए।
सर उठाकर फख्र से चलने की हसरत हो अगर,
सीखिए गर्दन कहां कितनी झुकानी चाहिए।
ऐसा पाठ भी हमें सिखा जाते हैं, जो बहुत सीमित होते हैं शब्दों में, वे बहुत विस्तृत होते हैं अर्थों में। विशिष्टता तभी शोभती है, जब उसमें शिष्टता हो। भैया-भाभी को कभी हमने नाराज, असंतुष्ट, प्रतियोगी भाव, आकांक्षा, अपेक्षा, राग-द्वेष, ईर्ष्या, घमंड, अकड़ या किसी भी ऐब में नहीं देखा। यहां तक कि कभी बच्चों को भी ऊंची आवाज में कुछ नहीं कहा।
मैंने इनसे सीखा कि-
छोटा है मुहब्बत लफ्ज, मगर तासीर इसकी प्यारी है,
इसे दिल से करोगे तुम, तो ये सारी दुनिया तुम्हारी है।
जिंदगी खूबसूरत है अगर आदत है मुस्कुराने की। खुद्दारी दौलत है, जिंदगी से कोई शिकवे-शिकायत नहीं। प्रभु में अगाध श्रद्धा रखते हुए कहते हैं कि इबादत वो है जिसमें जरूरतों का जिक्र न हो, सिर्फ रहमतों का शुक्र हो। अलसुबह से शुरू हुआ दिन घड़ी के कांटों के साथ कदमताल करता है। आसमानी-सुलतानी कारण न हो तो कोई बदलाव नहीं।
हम सभी पश्चिमी इंदौरी इनके एहसानमंद हैं। कभी-न-कभी सभी को जीवनदान जो मिला है। आपसे सीखा है हमने जीवनभर। भाभी ने समर्पण को परिभाषित किया है। आपको वंदन करके हमें 'वरदान, आशीर्वाद, प्यार' एकसाथ मिल जाता है।
आपके उधार बाकी हैं हम पर तभी तो वरना यूं ही ये शब्दों के धागे नहीं जुड़ते। आज हम न बदलेंगे वक्त की रफ्तार के साथ, हम जब भी मिलेंगे अंदाज पुराना होगा। आप हमारे लिए वो लम्हा हैं जिसमें सारी सदियां कैद हैं हमारी।
मुझको मालूम नहीं कि अगला जन्म है कि नहीं? पर हर जन्म हमारा आपके प्यार-दुलार व आशीर्वाद में गुजरे, यह दुआ मांगी है, क्योंकि आप दुनिया के उन खास लोगों में से हैं जिन्होंने वक्त आने पर सभी को वक्त दिया है।
आप दोनों को सादर नमन, वंदन...!