जयपुर अतरौली घराने की गायकी के मर्म और ममत्व की खूबियों-बारीकियों को गहराई से सीखने-समझने में पारंगत होने के बाद इसे अपनी गायन-शैली में शामिल करने वाली किशोरी अमोणकर ने अपनी गायकी में नए-नए आविष्कार करते हुए भारतीय शास्त्रीय संगीत के महाद्वीप में अपना मौलिक स्थान बनाया था। उन्होंने अपनी गायकी को एक अनोखे अंदाज में तराशते हुए जिस तरह से संवारा था, उससे उनकी गायन शैली में एक गहरा चिंतन और एक गहरी समझ दिखाई पड़ती है।
जिस तरह किशोरी अमोणकर अपने गायन में अनुशासन की सतर्कता रखती थीं, ठीक उसी तरह वे अपने श्रोताओं से भी इसी किस्म की अपेक्षा चाहती थीं। कार्यक्रम के दौरान अनुशासित नहीं रहने पर वे अपने श्रोताओं को कई बार फटकार देती थीं, किंतु उनकी भाव-प्रवण गायकी अनूठी, अद्भुत और अद्वितीय थी।
अद्वितीय लयकारी को कामना, विरह, वेदना और एकाकीपन के संताप से जोड़कर भारतीय शास्त्रीय संगीत को एक नई दुर्लभ ऊंचाई और एक नई रसमयी पहचान देने वाली किशोरी अमोणकर का चौरासी बरस की उम्र में 3 अप्रैल 2017 को निधन हो गया। उनका जन्म 10 अप्रैल 1932 को हुआ था। किशोरी अमोणकर कहा करती थीं कि उनके लिए संगीत सिर्फ कला-साधना नहीं है, वह तो असीम तक पहुंचने का एक माध्यम है। शायद इसलिए वे गहरी नींद के गहरे असीम संगीत में गईं और सक्षम असीम में विलीन हो गईं।
उनकी सक्षम संगीत शास्त्रीयता में मानवीय संवेदनाओं के बहुविध सूक्ष्मताएं देखते हुए, यही दिखाई देता है कि वे, मनुष्यगत जीवन की संवेदनात्मक असीमता को ही बतौर ईश्वर पाना चाहती थीं। किशोरी अमोणकर शात्रीय संगीत को जन-जन तक पहुंचाने वाली महान परंपरा की एक बेहतरीन गायिका थीं। शास्त्रीय संगीत की गरिमा और महत्ता को नित नई-नई ऊंचाइयों पर ले जाने के साथ ही साथ उसे जन सामान्य तक पहुंचाने वाले महान गायकों की हमारे देश में एक लंबी परंपरा रही है। उसी परंपरा के अंतर्गत भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व और किशोरी अमोणकर ऐसे शीर्षस्थ गायक रहे हैं, जिनकी गायकी में आध्यात्मिकता और आस्तिकता की भरपूर बेचैनी साफ-साफ देखी जा सकती है। अगर भीमसेन जोशी के गायन में समपर्ण की पुकार थी, तो कुमार गंधर्व के यहां कबीर की तड़प थी और किशोरी अमोणकर की आवाज से प्रेम की पीर छलकती थी। इन महान गायकों ने अपनी गायकी से न सिर्फ इंसानी दर्द को शिखरता प्रदान की, बल्कि अपनी सक्षम प्रयोगशीलता से मनुष्यता और असीमता का तादात्म्य भी स्थापित किया। भीमसेन जोशी और कुमार गंधर्व की तरह ही किशोरी अमोणकर की सूक्ष्म शास्त्रीयता में भी बेहतर प्रयोगशीलता थी, किंतु प्रयत्नशीलता जरा भी नहीं थी।
उत्साह में उल्लास और उल्लास में उदासी की हल्की-सी रंगत, किसी भी रचना को ख़ास बना देने के लिए पर्याप्त महत्त्वपूर्ण प्रयोग है, जबकि गंभीर आलाप और सुरों के साथ भावनाओं के आरोह-अवरोह की सहजता, बिना किसी कठिन अभ्यास और बिना किसी गहनगंभीर चिंतन-मनन के असंभव है। विदूषी किशोरी अमोणकर न सिर्फ कठिन अभ्यास करती थीं, बल्कि इसके साथ ही साथ वे संगीत की खूबियों और बारीकियों पर गहन-गंभीर चिंतन-मनन भी करती थीं। उन्होंने अपनी शास्त्रीयता अर्जित करने के संदर्भ में ढेर सारे प्राचीन भारतीय-ग्रंथों का गहरा अध्ययन करने के बाद ही अपनी शैली का आविष्कार किया था।
ऐसा भी नहीं है कि किशोरी अमोणकर को अप्रशंसा और आलोचना का कभी सामना करना ही नहीं पड़ा हो। उनके गायन की प्रमुख आलोचना यही होती थी कि वे अपनी गायकी में भावों को इतनी अधिक अहमियत देती थीं कि जिसके कारण वे घरानेदार रागों की परंपरा से बाहर भी निकल जाती थीं, किंतु इतना तो फिर भी सुनिश्चित किया ही जा सकता है कि किशोरी अमोणकर ने किसी कठिन शैली को अपनाने की जगह अपनी सामान्य शैली ही अपनाई थी और उसमें अद्वितीयता भी उपलब्ध कर ली थी। वे अपने गायन में ऋषियों के चिंतन को अभिव्यक्त करने की निरंतर संवेदनशील कोशिश करती रहीं।
किशोरी अमोणकर भारतीय शासनीय संगीत में तो सुव्यवस्थित, प्रशिक्षित व निपुण थीं ही, किंतु यह भी अन्यथा नहीं है कि उन्हें किसी लीक में बांध पाना सरल नहीं रहा। उनकी विशेषता यही थी कि उन्होंने जो राग सीखे उन्हें अपनी कल्पना और साधना की उड़ान से सर्वथा एक नए शिखर तक ले गईं। उनके गायन में हर बार एक नया परिष्कार देखने को मिलता था। यहां तक कि इस संदर्भ में उन्होंने अपनी विविधता हमेशा कायम रखी।
यहां यह कहा जाना जरा भी अस्वाभाविक नहीं है कि जब भी कभी वे कोई भक्ति गीत गाती थीं, तब उस गीत का प्रत्येक शब्द और प्रत्येक पंक्ति में रची-बसी अनुभूति तथा उससे संबद्ध जीवन-दृष्टि की अभिव्यक्ति, सहज-स्वाभाविक ही प्रतीत होती थी। संदर्भ के लिए यहां उनके द्वारा गाया गया मीराबाई के प्रसिद्ध भजन ‘पग घुंघरु बांध मीरा नाची रे’ का स्मरण किया जा सकता है। किशोरी अमोणकर के द्वारा गाए गए मीराबाई के इस भजन में एकांत भक्तिभाव के साथ ही साथ मीराबाई के विद्रोही-स्वभाव की अनुगूंज भी सुनाई देती है। ‘जहर का प्याला राणाजी भेज्या’ वाली पंक्ति तो बतौर एक अपशगुन देर तक वातावरण में मंडराती रहती है और फिर इसके बाद बेहद हल्के से ‘पीवत मीरा हांसी रे ‘सत्ता के छल-कपट और अहंकार का मखौल उड़ाते हुए अत्यंत ही मार्मिकता से आगे निकल जाती है।
यह एक संयोग ही रहा है कि उन्हें अपने जन्म और मृत्यु के लिए क्रमशः अप्रैल और मुंबई ही मिला। किशोरी अमोणकर का जन्म 10 अप्रैल 1932 को मुंबई में माधवदास भाटिया और मोगुबाई कुर्डीकर के घर हुआ था, जबकि उनकी मृत्यु 3 अप्रैल 2017 को मुंबई स्थित दादर के प्रभादेवी अपार्टमेंट में हुई। आज की प्रायोजित-संस्कृति के कार्यक्रमों में स्व. पंडित रविशंकर के बाद किशोरी अमोणकर शायद अब तक की सबसे महंगी कलाकार थीं, जो किसी भी एक कार्यक्रम के लिए बतौर सम्मानराशि लगभग पंद्रह से बीस लाख रुपए लेती थीं, किंतु वहीं समर्पित संगी-प्रेमियों और स्कूल-कॉलेजों में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के लिए वे समर्पण-भाव से पैसों की जगह सम्मान को सर्वोपरि मानती थीं। यही कारण रहा कि तकरीबन छः दशक लंबे काल खंड तक उनकी अनूठी और लोकप्रिय गायकी की कीर्ति-पताका देश-विदेश में सकुशल लहराती रही।
ख्याल गायकी के क्षेत्र में भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, उस्ताद अमीर खां आदि जो महान गायक हुए हैं, उनके मुकाबले किशोरी अमोणकर ने, घरानेदार गायकी को लीक से हटकर गाने में जो अपना स्व, अपना सुर, अपना अंदाज़ और अपना विमर्श दिया था, उससे उनके गायन की अपनी एक निजी शैली ही विकसित हो गई थी। उन्होंने आम लोगों में शास्त्रीय गायकी के प्रति आकर्षित होने के लिए जो निजी प्रयास किए, उनमें, गायन की तकनीक के साथ बंदिश के भाव-पक्ष को साकार करने में अधिक जोर दिया। यह कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होनें श्रंगार, विरह, वेदना, करुणा, दुःख और भक्ति आदि की रचनाओं को अपने विलक्षण अवदानों से भरे सुर देकर बड़ी ही उदात्त ऊंचाई प्रदान करने का महान काम किया था।
माना कि किशोरी अमोणकर को मिला सुरों का माधुर्य प्रकृति-जन्य था और उनकी आवाज में सुरीलेपन का जो सौंदर्य था, वह किसी अद्भुत विस्मय से कम नहीं था, लेकिन सन पचास के दशक के अंत में उनके जीवन में एक ऐसी त्रासद स्थिति आई कि किसी कारणवश उनकी आवाज़ ही चली गई, लेकिन समुचित आयुर्वेदिक-उपचार लेने से दो बरस बाद जब वही आवाज वापस आई, तो वह अनेक जीवन में उत्साह की तरह ही उनके गायन क्षेत्र में भी उत्साह की वापसी साबित हुई, तब किशोरीजी की गायकी में सर्वथा एक नई दृष्टि-संपन्नता और एक नई चमकदार स्वर-लहरी दिखाई दी।
वैसे उनकी संगीत की शिक्षा-दीक्षा सुप्रसिद्ध गायिका मोगूबाई कुर्डीकर (पद्म भूषण और संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्राप्त) के कठोर अनुशासित सानिध्य में ही हुई थी, जो कि उनकी मां और गुरु दोनों थीं। किशोरी अमोणकर का भी वर्ष 1987 में पद्मभूषण, 2002 में पद्म विभूषण और वर्ष 1991 में उन्हें डॉक्टर टी एम ए पई फाउंडेशन द्वारा संगीत के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मान किया था। स्मरण द्वारा जा सकता है कि वर्ष 2009 में किशोरीजी को संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप सम्मान भी मिला था।
जयपुर घराने की ख्याल गायकी की खूबियों और बारीकियों को अंगीकार करते हुए अपने गायन की विशिष्ट शैली विकसित करने वाली किशोरी अमोणकर की गायकी में दूसरे घरानों की खूबियां और बारीकियां भी झलकती थीं। पद्म विभूषण से सम्मानित होने के बाद आयोजित सम्मान समारोह में उन्होनें कहा था कि “मैं शब्दों और धुनों के साथ प्रयोग करना चाहती थीं और देखना चाहती थी कि वे प्रयोग मेरे सुरों के साथ कैसे लगते हैं। बाद में मैंने यह सिलसिला तोड़ दिया, क्योंकि मैं सुरों की दुनिया में ज्यादा से ज्यादा काम करना चाहती थी। मैं अपनी गायकी को सुरों की एक भाषा कहती हूं”।
एक स्कूल शिक्षक रवींद्र अमोणकर से शादी रचाने और दो पुत्रों की मां बनने के बाद वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में ही उन्हें वैधव्य का सामना करना पड़ा। अन्यथा नहीं है कि सिनेमा संगीत के साथ किशोरी अमोणकर का सफर बहुत ही संक्षिप्त रहा। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त गोविंद निहलानी की फिल्म ‘दृष्टि’ में बतौर संगीत निर्देशक उन्होंने चार गाने गाए थे, जबकि इससे पच्चीस बरस पूर्व वर्ष 1964 में किशोरी अमोणकर ने व्ही शांताराम की सुपरहिट फिल्म “गीत गाया पत्थरों ने” का शीर्षक एकल गीत “सांसों के तार पर, धड़कन की ताल पर, दिल की पुकार का, रंग भरे प्यार का, गीत गया पत्थरों ने” गाया था। इस गीत में उल्लास के साथ हल्की-सी जो उदासी है, वह इस गीत को कालजयी बना देने में बेहद महत्त्वपूर्ण है। बाद में उन्होंने फिल्म संगीत से खुद को दूर कर लेते हुए कहा था कि “शब्दों और धुनों को जोड़ने से सुरों की शक्ति कम हो जाती है”। दरअसल किशोरी अमोणकर, पत्थर हृदय में भी प्रेम उपजा देने वाली अद्वितीय गायिका थीं। किशोरी अमोणकर उर्फ गीत गाया पत्थरों ने के लिए स्मृति-शेष नमन।