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प्रजातंत्र में स्वयंभू धन्ना न्यायाधीश

प्रजातंत्र में स्वयंभू धन्ना न्यायाधीश - Funny Blog On Democracy
प्रजातंत्र जाए पानी भरने हमें क्या? हमारी जेब भरी होनी चाहिए, तो सजा सुनाने का हक हासिल हो जाता है। दस-बीस लाख की बोली लगाते तथाकथित धनी यह भी नहीं बता रहे की लाखों रुपए लाएंगे कैसे? यदि वे पहले से लखपति-करोड़पति हैं तो क्या रेगुलर इनकमटैक्स चुकाते हैं? और उनसे पूछा जाए कि जो इनाम घोषित किए हैं वो टैक्स चुकाकर पेमेंट करेंगे या इनाम जीतने वाला ये घाटा उठाएगा !
 
इस तरह के खुलेआम सजा सुनाने के तरीकों को धर्म और जाति की कट्टरता सींचने के प्रयास की तरह देखा जाना चाहिए। वैसे भी धर्म के अनुसार आय का सिर्फ दस प्रतिशत दान किया जा-सकता है, इस दृष्टिकोण से देखें तो दस लाख रुपए इनाम पर लगाने वाले के पास कम से कम एक करोड़ होना ही चाहिए। यदि वो करोड़पति है तो उसने अपनी संपत्ति सरकार के समक्ष पारदर्शी रखी होगी अन्यथा टैक्स बचाने का प्रयास उन्हें ही धर्म विरुद्ध साबित करने को काफी होगा। साथ ही ऐसे कृत्य तो पैसे को प्रजातंत्र के ऊपर स्थापित करने की चाह की तरह है, जो दर्शाता है कि ये लोग प्रजातंत्र में कम और पैसे पर अधिक विश्वास रखते हैं। उनकी निगाह में प्रजातंत्र से न्याय की उम्मीद न के बराबर है। क्या कोई किसीको भी स्वतः संज्ञान के आधार पर सजा सुनाने को स्वतंत्र है ? आजकल स्वयंभू न्यायाधिकारी बनने का फैशन चल पड़ा है। उनकी निगाह में सजा सस्ती और माफी मंहगी हो गई है। ये लोग भूल रहे हैं कि धन की बोली में न्याय को फंसाने से न्याय तो कुबेरों के हाथ में चला जाएगा फिर इनका क्या होगा ?
 
हालिया सोनू निगम के केस में उनके बयान को सही-गलत ठहराने को न्यायालय पर छोड़कर उनके प्रतिकार को देखें, तो लगता है कि उन्होंने इस तरह के स्वयं भू  न्याय के ठेकेदारों को उनके ही चक्रव्यूह में उलझा दिया है। इस प्रकरण में मजेदार बात यह है कि जिस व्यक्ति ने सोनू निगम का मुंडन किया है उसे इनामी राशि का इंतजार है और इनाम घोषित करने वाले शख्स अब बचने के लिए तीन शर्त पूरी करने की बात कह रहे हैं। फिर भी एक शर्त पूर्ण होने के मद्देनजर देखें तो दस लाख के एक तिहाई राशि पर तो मुंडन करने वाले का वाजिब हक बन ही गया है, अब देखना यह है कि उसे उसके हक की राशि मिलती है या नहीं ? क्योंकि कहते हैं कि मजदूर का पसीना सूखने के पहले उसकी मजदूरी मिल जाना चाहिए, यह बात धर्म सम्मत मानी गई है जो मुस्लिम धर्म में है। और हिन्दू धर्म के अनुसार - 
 
" आपस्तम्ब धर्मसूत्र (संभवतः दक्षिण भारतीय आपस्तम्ब जी का अनुमानित काल ईसा पूर्व 150-200 या ईसा पूर्व 700-300) का कथन है कि यदि अपने लिए, अपनी भार्या अथवा अपने पुत्र के लिए आर्थिक कठिनाई महसूस हो तो कोइ हर्ज नहीं, परंतु  दासों और मजदूरों को वेतन पहले देना चाहिए"। अतः धर्म-जाति के ठेकेदार बनने के पहले विचार कर लीजिए की मजदूर का शोषण और उसे बरगलाना धर्म विरुद्ध है ।
 
निष्कर्ष यही निकलता है कि न तो धर्म और न ही प्रजातंत्र हमें स्वयंभू न्याय का ठेकेदार बनने की इजाजत देता है। वैसे भी संविधान सबसे ऊपर है और संविधान की न्याय क्षमता पर अविश्वास करना देशहित नहीं मान सकते, क्योंकि जब हम हमारे हितकारी कई सारे संवेधानिक नियमों को धर्म के चश्मे से देखे बगैर गटक जाते हैं तो लाजमी है कि न्याय के लिए भी संविधान प्रदत्त कानून पर भरोसा करें न की स्वयं न्यायधीश बनें !