शुक्रवार, 29 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. Chitrakoot town

चित्रकूट : ग्रामीण विकास का आईना

चित्रकूट : ग्रामीण विकास का आईना - Chitrakoot town
जब भी आप किसी पिछड़े अलग-थलग सुविधाओं से वंचित गांवों से गुजरते हैं तो अक्सर आपके दिमाग में चाय की चुस्कियों के बीच ये सवाल जरूर उबलता होगा कि आखिर गांवों के इस हालात का जिम्मेदार कौन है? ग्राम पंचायत, प्रशासन, राज्य सरकार या केंद्र? जो हर बजट में भारी-भरकम धनराशि देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है। 


 
 
 
अगर सब कुछ अच्छा होता तो गांव में वास करने वाले किसान, लुहार, मजदूर विपन्नता के हालात में नहीं होते। उनके बच्चे दाने-दाने को मोहताज होकर कुपोषण से असमय ही काल को ग्रसित नहीं होते। आखिर इसका समाधान क्या है? क्या ग्राम विकास की संकल्पना का मौजूदा स्वरूप गावों की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है? इन सब सवालों का जवाब मुझे हाल ही में चित्रकूट में देखने को मिला।
 
चित्रकूट, जो भगवान राम की पावन धरती है, के कण-कण में भगवान राम का वास है और रगों में अमृतदायिनी मंदाकिनी का निर्मल शुद्ध जल प्रवाह होता है। चित्रकूट में मंदिरों और प्राकृतिक अनुपम सौंदर्य से बढ़कर भी एक चीज है, जो इसे अप्रतिम बनाती है- वो है ग्रामों के विकास का समाधान जिसे यहां 'ग्रामोदय' कहा गया है। ग्रामोदय यानी ग्रामों का उदय मगर कैसे? ये भी जानना जरूरी है। 
 
देश वर्ष 2017 को 2 महान विचारकों की जन्मशती के रूप में मना रहा है। एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय और राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख- इन दोनों महानुभावों का जन्म 1916 में हुआ था। हाल में चित्रकूट में ग्रामोदय मेले का भव्य आयोजन किया गया था जिसमे देशभर से लाखों लोग ग्राम विकास के इस अनूठे मॉडल को जानने व समझने के लिए इकट्ठा हुए थे।
 
इसी दौरान मेरी मुलाकात एक दंपति से हुई। दंपति शिक्षित व थोड़ी अधेड़ उम्र के थे, जो वहां बरसों से रह रहे थे। ये उनका पुश्तैनी गांव नहीं था। ग्राम विकास के नानाजी की अदुभुत संकल्पना से प्रेरित होकर वे वहां पर रह रहे थे। उनका मुख्य काम ग्रामीणों की मदद करना था, उनको कुरीतियों से बचाना था और यथासंभव उनकी सेवा करना था उनके बीच में रहकर। ऐसे कई जोड़े उन गांवों में मौजूद हैं। 
 
गांवों का विकास करना है तो शहरों में रहकर नहीं, गांवों में रहकर देहाती जीवन और संस्कृति को समझना होगा। उनकी जीवन पद्धति, आदर्शों और जरूरतों को समझना होगा। हम अक्सर देहाती जीवन को निम्नतम मानते हैं और उसको ऊपर उठाने की सोचते हैं। ग्रामीण जीवन निम्न नहीं, अपने आप में बहुत ऊंचा है। 
 
जब भी गांव की बात आती है, तब टूटे-फूटे कच्चे-पक्के घर, खेत, तालाब, सूती वस्त्र पहने व गंवई भाषा इस्तेमाल करते हुए लोगों की तस्वीर सामने आती है। लेकिन कभी आपने सोचा है कि उनकी कितनी न्यूनतम जरूरतें हैं? और प्रकृति के इतने करीब रहकर भी कितनी खूबसूरती से उसका संभाल किया हुआ है? मिट्टी के घरों को ऐसी कूल नहीं चाहिए, सिर्फ रोशनी के लिए चाहिए। न्यूनतम जरूरतें हैं मतलब कम से कम कचरा। प्लास्टिक और पॉलिथीन से कोसों दूर ऐसे गांवों का दर्शन चित्रकूट में आपको मिलेगा, जो स्वच्छ हैं। आबोहवा की कोई तुलना ही नहीं, वायु प्रदूषण भूल जाइए। इसके विपरीत शहरों में एक परिवार का प्रतिदिन का कूड़ा एक गांव से निकलने वाले अपशिष्ट से भी कहीं ज्यादा है।
 
शहरों में जो भी है, जैसी भी जिंदगी मिल रही है, उसके लिए हमें अपने गांवों का शुक्रिया कहना होगा। मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई भी होगा जिसका अपना कोई गांव नहीं होगा। जब गांवों में होते हैं तो अभिभावकों के पैसों पर शहरों में उच्च शिक्षा और मेहनत के बल पर नौकरी पा लेते हैं, फिर शादी और बच्चे! इसके बाद गांव हम सबके लिए कुछ वर्षों तक टूरिस्ट डेस्टिनेशन बन जाते हैं व कुछ सालों तक आना-जाना लगा रहता है और फिर सब कुछ छूट जाता है। ऐसे में कौन गांवों की भलाई के लिए सोचेगा? जब उस गांव के अपने ही उनसे दूसरों की तरह पेश आते हैं।
 
हम सबकी प्रवृत्ति सिर्फ लेते रहने की है। हम सब सिर्फ गांवों से हमेशा से परोक्ष और अपरोक्ष रूप से लेते आए हैं, लेकिन अब जरूरत है उस ऋण को उतारने और अपनी प्रवृत्ति को बदलने की। अपने ज्ञान और समझ का किस तरह से हम उपयोग कर सकते हैं गांवों की बेहतरी के लिए, इस पर भी थोड़ा समय देना होगा।
 
'ग्रामोदय' के अंतर्गत दरअसल इसी परिकल्पना को साकार किया गया है जिसमें शिक्षित दंपति चित्रकूट के गांवों में आते हैं और बरसों तक प्रवास करते हैं। इस दौरान न सिर्फ इन गांवों का महत्वपूर्ण हिस्सा बनते हैं बल्कि वे जनजागृति भी लाते हैं। गांवों के विकास के लिए वे ग्रामीणों की किस तरह मदद कर सकते हैं, सारा ध्यान उस पर केंद्रित होता है।
 
सिर्फ सरकारी योजनाओं का लाभ ही नहीं, गांवों का कैसे स्वावलंबन हो, इसका ध्यान रखा जाता है। कृषि और पशुधन गांव की रीढ़ हैं। इसी के सहारे आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की जा सकती है। ज्यादातर लोग खेती को फायदे का सौदा नहीं मानते हैं लेकिन खेती-किसानी को लाभ में बदलना असंभव नहीं है। ग्रामोदय के विकास की अवधारणा में इस बात की झलक मिलती है। 
 
इन गांवों में हरियाली है। यथासंभव जैविक खाद और परंपरागत खेती पर बल दिया गया है, लेकिन इसके साथ ही ग्रामीण कुटीर उद्योग भी एक बड़े पूरक के रूप में उभरा है। महिलाएं स्वावलंबन की इस महत्वपूर्ण कड़ी में बड़ी भूमिका का निर्वाह कर रही हैं। गांवों में पर्याप्त पशुधन होने के कारण दूध-दही की नदियां बह रही हैं, जो आसपास के अन्य इलाकों की भी जरूरतों को पूरा कर रही हैं।
 
जागरूकता के असर के कारण मद्यपान और नशे के जाल से लोग मुक्त हैं। बेटी के जन्म पर वे दु:खी नहीं होते व मिठाइयां बांटी जाती हैं। ये सब संभव हुआ सिर्फ कुछ शिक्षित दंपतियों के नि:स्वार्थ कार्यों की वजह से। देशसेवा अनेक रूपों में की जा सकती है, सिर्फ बॉर्डर पर रहकर ही आप देशसेवा कर सकते हैं, ये सोच यहां आकर गलत सिद्ध हो जाती है।
 
चित्रकूट परियोजना दरअसल सामाजिक पुनर्निर्माण के क्षेत्र में एक चुनौतीपूर्ण सफलतम प्रयोग है जिसने मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण होने के बावजूद एक पिछड़े इलाके चित्रकूट को आधुनिक भारत के स्वर्णमय अध्याय के रूप में अंकित कर दिया है। ये ऐसी परियोजना है जिसने पं. दीनदयालजी के एकात्म मानव-दर्शन पर आधारित ग्रामीण भारत के स्वावलंबन की नई गाथा लिखी है। 
 
500 से अधिक आबादियों में ग्राम शिल्पी दंपतियों के माध्यम से ग्रामीणों की सहभागिता से संपूर्ण विकास के कार्यक्रम चलाए गए जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन और सामाजिक समरसता के प्रकल्प शामिल हैं। सही मायनों में ये कार्यक्रम यदि पूरे भारत में लागू हो जाएं तो ये सिर्फ ग्रामोदय नहीं, भाग्योदय होगा समस्त भारतवासियों का। ग्राम स्वराज और स्वावलंबन की एक अद्भुत गौरव गाथा होगी। 
 
(पत्रकार, लोकसभा टीवी)