एक पेड़, एक पंछी, एक बूंद जल बचाने की सौगंध है
हर वर्ष की तरह आ रहा है पर्यावरण दिवस (5 जून).... पर शुभकामनाएं देते हुए शब्द कांप रहे हैं, भावनाएं थरथरा रही हैं। किसे दें शुभकामनाएं और कैसे दें। पिछले कई दिनों शहर में विकास के नाम पर वर्षों से अटल खड़े पेड़ों की निर्मम हत्या देख रही हूं।
पेड़ों की 'लाश' पड़ी रही लहूलुहान और हम उसे देखते अपनी राह गुजरते रहे। ना याद आई हमें उसकी ठंडी कोमल छांव, ना आंखों को सुहाते रंगीन फूल। हम कितने कृतघ्न और कपटी होते जा रहे हैं।
हमें अंदाजा तक नहीं है कि प्रकृति का पोषण नहीं मिला तो कितनी त्राहि-त्राहि मच जाएगी। कभी एक तरफ फूटी पाइप लाइन, उससे व्यर्थ बहता पानी देखा और दूसरी तरफ देखा टैंकरों पर पानी के लिए खून का बहना। एक तरफ देखे 'स्मृति-वनों' पर वृक्षारोपण के 'हसीन' दृश्य और दूसरी तरफ मुरझाते सूखते नन्हे पौधे। एक तरफ बड़े-बड़े मॉल्स, शॉपिंग काम्प्लेक्स, दूसरी तरफ कोई कराहता हुआ निष्प्राण सा बुजुर्ग पेड़।
कहीं सुनाई दी कोयल की मीठी तान तो कहीं तरसती रही आंखें नन्ही गौरैया के लिए। कहीं सफेद शेर के आगमन का जश्न छपा अखबारों में तो कहीं चिड़ियाघर में हाथी छटपटाता रहा जंजीरों में। कहीं किसी विज्ञापन में मूक जानवरों की भागीदारी पर बहस चल पड़ी तो कहीं पोलिथीन खाकर तड़पती गाय की सुध लेने वाला भी कोई ना मिला। कैसा पर्यावरण?
आप बताएं किसे दें बधाई! क्यों हम अपने कर्मों से प्रकृति को कुपित करते हैं? क्यों उसे आना पड़ता है आपको चेताने 'नरगिस' या 'त्सुनामी' बनकर? प्रकृति की अपार संपदा पर गर्व करने का हममें से किसी को हक नहीं है। अगर हम नहीं बचा पाते हैं अपने ही आसपास के हरियाले वातावरण को।
हम कब सम्हलेंगे पूछें अपने आप से। पर्यावरण दिवस पर बस यही एक गुजारिश है। संकल्पों से नहीं सौगंध से सुधरेगा पर्यावरण। आपको भी एक पेड़, एक पंछी, एक बूंद जल बचाने की सौगंध है।