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मालवा की 48 सीटों पर भाजपा के लिए खतरे की घंटी

मालवा की 48 सीटों पर भाजपा के लिए खतरे की घंटी - Madhya Pradesh assembly elections, BJP, Congress
मालवा संघ परिवार की नर्सरी माना जाता है। पिछले विधानसभा चुनाव में मालवा में भाजपा ने कांग्रेस के पांव उखाड़ दिए थे और पूरी तरह एकाधिकार कर लिया था, लेकिन आने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर ज़मीन पर हालात उतने बेहतर दिखाई नहीं देते।


मालवा की बात करें तो यहां कुल 48 विधानसभा सीटें हैं, जिसमें इंदौर जिले में 9 विधानसभा सीटों में से 8 भाजपा के पास हैं, नीमच की 3 विधानसभा सीटों में तीनों भाजपा के कब्ज़े में, मंदसौर की 4 सीटों में से 3 भाजपा के पास, धार जिले की 7 विधानसभा सीटों में से 5 भाजपा के पास, उज्जैन की सातों ही सीटें भाजपा के कब्जे में, रतलाम की 5 सीटों में से पूरी ही भाजपा के पास, झाबुआ जिले की सभी 3 सीटें भाजपा की झोली में, देवास की 5 सीटों में पांचों भाजपा, शाजापुर की 3 सीटों में तीनों भाजपा और आगर जिले की 2 सीटों में दोनों भाजपा के पास हैं।

इस प्रकार मालवा के 10 जिलों की 48 विधानसभा सीटों में से 44 पर भाजपा और 4 पर कांग्रेस काबिज़ है। अब यदि ताज़ा हालातों पर गौर करें तो मालवा की ज़मीन पर तीन प्रमुख मुद्दे हैं, जो भाजपा को परेशान किए हुए हैं, जिसमें सबसे अहम है चुने हुए जनप्रतिनिधियों यानी मंत्री, विधायकों और सांसदों के खिलाफ आम जनता के अलावा पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराज़गी।

प्रदेश में चुनाव आचार संहिता 5 अक्टूबर से लगेगी, लेकिन पार्टी के ही लोग अपने चुने हुए नेताओं के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर बोलने लगे हैं। जैसे 29 अगस्त को मंदसौर जिले की सीतामऊ तहसील के गांव देवरिया विजय में सांसद सुधीर गुप्ता को पार्टी के ही लोगों ने घेर लिया। उन्हें आधे घंटे तक जमकर खरी-खोटी सुनाई। गांव के युवक पंकज जोशी ने सांसद गुप्ता से पूछा, आप चार साल बाद आए हो, क्या काम किया आपने गांव का।

यही घटना 30 अगस्त को नीमच जिले के सिंगोली में घटी जहां लोग सांसद से सवाल करते दिखे और तो और 2 अगस्त को सुवासरा में कुछ लोगों ने सांसद का पुतला भी फूंका। नीमच जिले के कद्दावर भाजपा नेता अनिल नागोरी कहते हैं कि स्थानीय नेताओं ने भाजपा के संगठन को छिन्न-भिन्न कर दिया है। संगठन जेबी हो गया है यदि हालात नहीं सुधरे तो लात-घूंसे चलेंगे।

इनकी नाराज़गी पद पर बैठे विधायक और जिलाध्यक्ष को लेकर है। जिनेन्द्र डोसी भाजपा के पुराने और बड़े नेता हैं। वे कई पदों पर भी रहे हैं। वे कहते हैं कि पार्टी में कार्यकर्ताओं  की उपेक्षा तो हुई है। पदों पर बैठे लोग अब पूछपरख नहीं करते। एंटी इन्कम्बेंसी के साथ एसटी-एससी बिल में संशोधन एक बड़ा मुद्दा बन गया है। इसमें ख़ास बात यह है कि सन् 2000 के गुजरात दंगों के बाद मालवा का दलित देशभर की तरह हिंदुत्व के आसरे भाजपा के साथ चला गया।

इस बड़े वोट बैंक के चले जाने से कांग्रेस का सफाया मालवा में हो गया, लेकिन आरएसएस के आरक्षण पर विरोधाभासी बयान, भीमा कोरेगांव की घटना जैसे मामलों के चलते दलितों ने जय भीम कहना शुरू कर दिया और उनकी वापसी उनके मूल दलों में होने लगी। नीमच में देवेश यादव का परिवार पूरी तरह भाजपा से जुड़ा है। इनके भाई संघ में अहम पद पर हैं। वे कहते हैं मैं एक दिन उपनगर नीमच के यादव मोहल्ले में गया था, यहां लोग अब जय भीम बोलने लगे हैं।

इससे लगता है आम लोगों का मानस बदल रहा है और वे भाजपा से विमुख दिखाई दे रहे हैं। इस बात की चिंता लम्बे समय से संघ और संगठन की बैठकों में भी भाजपा करती रही है। पिछले एक साल के भीतर मालवा में अजाक्स के आंदोलन ने भी तेजी पकड़ ली है। अजाक्स से जुड़े लोग खुले तौर पर भाजपा के खिलाफ बोलते दिखते हैं। ज़मीन पर दिखते इन हालातों के बीच दिल्ली की सरकार ने एससी-एसटी बिल में संशोधन कर दिया। भाजपा की शुरुआती पहचान बनियों-ब्राह्मण की पार्टी के रूप में रही है।

इसी कारोबारी जमात ने भाजपा को पल्लवित-पोषित किया, लेकिन इस बिल ने उसके इस मजबूत वोट बैंक को हिला दिया। नीमच से करीब 8 किलोमीटर दूर गांव है रेवली देवली। यह पूरा गांव मेनारिया ब्राह्मणों का होकर खांटी भाजपा का है। इस गांव में 1400 वोटर हैं। गांव के डॉ. मोहन नागदा कहते हैं, इस बार गांव में किसी नेता को घुसने नहीं देंगे, अपना सिक्का निकला खोटा, वोट फॉर नोटा।

यह गांव नीमच विधानसभा का है। यहां से निकलकर हम जावद विधानसभा के गांव आकली पहुंचे। यह गांव जिला मुख्यालय से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर है। इस गांव में 750 वोटर हैं। हमें यहां भाजपा से जुड़े गिरिराज सिंह मिले। वे कहते हैं यह पूरा बेल्ट राजपूतों का है। राजपूत शत-प्रतिशत भाजपा के वोटर हैं, लेकिन इस बार यहां कोई पार्टी को वोट नहीं करेगा। हम लोग संकल्प पत्र भरवा रहे हैं, पीले चावल बांटेंगे और बटन नोटा का दबाएंगे। इस संवाददाता ने गांव का चक्कर लगाया तो देखा कि यहां करीब 20 से अधिक बैनर लगे हैं, जिन पर लिखा है यह गांव सामान्‍य और पिछड़े वर्ग का है, इसलिए कोई भी वोट मांगने नहीं आए।

कुल मिलाकर सार यह है कि जो सवर्ण वोट बैंक भाजपा का था, वो भी खिसकता दिख रहा है। सबसे ख़ास बात यह है कि यह अभियान नीमच से शुरू हुआ और अब समूचे मालवा में फैलता जा रहा है, जिसका सीधा नुकसान भाजपा को होता दिख रहा है। इस संवादाता ने नीमच, जावद, मनासा, गरोठ, भानपुरा, सीतामऊ, सुवासरा और मंदसौर सीट का चक्कर लगाया। इन दोनों जिलों की 7 विधनसभा सीटों में से 6 पर भाजपा का कब्ज़ा है। मात्र एक सीट सुवासरा पर कांग्रेस का विधायक है।

दलित वोटों की विदाई और सवर्णों की भाजपा को लेकर नाराज़गी हर जगह दिखती है। इसके इतर एक ख़ास बात और देखने में आती है कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद मालवा में धंधा मंदी का शिकार हो गया है। 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का दामन थामने वाले युवा प्रिंस पाटीदार कहते हैं, हमने बीते मार्च में खली 1650 रुपए में खरीदी थी, जो अप्रैल में 1100 रुपए क्विंटल रह गई और साल के अंत में 850 रुपए क्विंटल के भाव से हमने उसे बेचा। उनका कहना था, अब आप बताइए क्या करेंगे।

कमोबेश यही हाल सभी जिंसों का है। इस मामले में जब हमने भाजपा जिलाध्यक्ष हेमंत हरित से बात की तो उनका कहना था समन्वय से काम करेंगे और मिल-बैठकर सारे मामलों का हल निकाल लेंगे। हेमंत स्वयं दलित हैं और अनुसूचित जाति से आते हैं। वहीं सांसद सुधीर गुप्ता ने मीडिया से कहा, भाजपा सबको साथ लेकर चलने वाली पार्टी है। इन सब मुद्दों के इतर मंदसौर में किसान आंदोलन में हुआ गोली चालन और उसमें हुई 6 किसानों की मौत और इन 6 किसानों में 5 किसानों का पाटीदार होना पाटीदार नेता हार्दिक पटेल की मालवा में जमीन तैयार कर गया, क्योंकि मालवा पाटीदार बाहुल्य है।

यहां हार्दिक अब तक तीन बड़ी रैलियां भाजपा के खिलाफ कर चुके हैं। गौरतलब है कि आमतौर पर पाटीदार भाजपा के वोटर माने जाते हैं। यदि यह वोट बैंक टूटता है तो निश्चित ही भाजपा को नुकसान होगा। पाटीदार समाज के प्रदेशाध्यक्ष और हार्दिक की किसान क्रान्ति सेना के प्रदेशाध्यक्ष महेंद्र पाटीदार भोपाल का मिसरोद छोड़कर मंदसौर में पिछले 6 माह से डेरा डाले हैं। वे अपने परिवार के साथ यहीं रह रहे हैं।

इसका मतलब साफ़ है कि हार्दिक आने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा के खिलाफ गोलबंदी में लगे हैं। प्रदेशाध्यक्ष पाटीदार कहते हैं कि भाजपा नेताओं को किसानों की नाराज़गी का अंदाज़ा आचार संहिता लगने के बाद लगेगा क्योंकि किसान भय के चलते नहीं बोल रहे हैं।