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Last Updated : शनिवार, 6 सितम्बर 2014 (20:15 IST)

जो दुनिया हम बना रहे हैं...

जो दुनिया हम बना रहे हैं... - Global industrial revolution, media
1980 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द थर्ड वेव’ में ऐल्विन टॉफलर ने लिखा है कि मानव सभ्यता के इतिहास में पहली लहर कृषि क्रांति के साथ आई जिससे उसके पहले की सारी जीवन पद्धति उलट-पलट गई। दूसरी लहर औद्योगिक क्रांति के साथ आई जिसने खेतिहर समाजों की व्यवस्था को पूरी तरह बदल डाला। टॉफलर के मुताबिक यह तीसरी धारा का समय है जो पिछली दोनों धाराओं से कहीं ज़्यादा क्रांतिकारी और तेज़ रफ़्तार साबित होने जा रही है।
 
टॉफलर के ही शब्दों में, ‘यह तीसरी धारा अपने साथ वास्तविक रूप से एक नई जीवनशैली ला रही है जो वैकल्पिक अक्षय ऊर्जा स्रोतों, कारखानेदार उत्पादन को पुराना बना डालने वाली नई उत्पादन पद्धतियों, अनाभिकीय परिवारों और ऐसी नई संस्था पर आधारित होगी, जिसे इलेक्ट्रॉनिक कॉटेज कहा जा सकता है।....यह नई सभ्यता पुरानी को चुनौती देती हुई, दफ़्तरशाहियों को उलट-पुलट देगी, राष्ट्र राज्यों की भूमिका सीमित करेगी और एक उत्तर-साम्राज्यवादी दुनिया में अर्द्धस्वायत्त अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देगी।'
 
टॉफलर ने जब यह किताब लिखी थी तब उस सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार नहीं हुआ था जिसने वाकई औद्योगिक क्रांति के बाद के क़रीब 300 बरसों की दुनिया बदल डाली है। टॉफलर जिस नई विश्व व्यवस्था की ओर इशारा कर रहे हैं, उसकी तरफ दुनिया जा रही है, लेकिन इस काम में सबसे बड़ी भूमिका उस माध्यम की है, जिसे इन दिनों नए माध्यम या न्यू मीडिया कहने का चलन है। इस न्यू मीडिया में एक तरफ 24 घंटे की तमाम हरक़तों पर, दुनियाभर में बसों, ट्रेनों और विमानों की आवाजाही पर, उठते-गिरते शेयर और सर्राफ़ा बाज़ारों पर, संसार की तमाम प्रयोगशालाओं में चल रहे प्रयोगों पर, राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों और उन्हें कुचलने की कोशिशों पर नज़र रखने वाला वह विराट अंतर्जाल है, जो हमारे कंप्यूटर-टीवी-मोबाइल की मार्फत हमारे समूचे सूचना और संवेदना के तंत्र को प्रभावित कर रहा है तो दूसरी तरफ वह सोशल मीडिया है जो अपनी नागरिकता और अपने जनमत ख़ुद तय कर रहा है। आज की तारीख में फेसबुक चीन और भारत के बाद दुनिया की तीसरा सबसे बडा देश है और जल्द ही वह इन दोनों से आगे निकल जाएगा। ट्विटर के 140 शब्दों की दुनिया तमाम बड़े लोगों की सुबहों-शामों का माध्यम बन गई है जिसके सहारे वे अपने लाखों-करोड़ों फॉलोअर्स या अनुकरणकर्ताओं को हर घटना पर अपनी राय सुलभ कराते हैं। यह अनायास नहीं है कि पारंपरिक मीडिया भी इस नए मीडिया के अनुकरण को मजबूर है क्योंकि यहीं से उसे सबसे पहले, सबसे पक्की और सबसे प्रामाणिक ख़बर मिलती है। 
 
लेकिन क्या यह सिर्फ ख़बरों पर नज़र रखने और लोगों को लगातार सूचनाओं और जानकारियों से लैस रखने का मामला भर है? क्या एक हद के बाद कोई माध्यम अपने उपयोगकर्ता को भी नहीं बदलने लगता? चीज़ों का गुण सिर्फ उनमें निहित तत्वों पर निर्भर नहीं करता, उऩकी मात्रा पर भी निर्भर करता है। खाने में थोड़ा सा नमक ज़रूरी होता है, लेकिन ज़्यादा नमक ज़हर बन जाता है। तो क्या इन दिनों सूचनाओं का नमक हमारी वैचारिक खुराक में कुछ ज़्यादा ही शामिल हो गया है? या ये सिर्फ सूचनाएं हैं, जिनका दबाव इतना बड़ा हो गया है कि हम खुद को बदला हुआ महसूस कर रहे हैं? या कुछ और भी चीज़ें चुपचाप घटित हो रही हैं जो ज्ञान और अनुभव की हमारी संपदा और परंपरा को अतिक्रमित कर रही हैं?
 
इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं, लेकिन एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए हम कुछ ऐसे बिंदुओं तक पहुंच सकते हैं जिनकी मार्फत नए बदलावों को चिह्नित किया जा सके। इस बात को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने से ज़्यादा स्पष्ट ढंग से समझा जा सकता है। जब भाषा की लिखित परंपरा नहीं थी तो ज्ञान सिर्फ स्मृति में संरक्षित था। लिखित परंपरा के विकास के बाद भी यह वाचिक परंपरा बनी रही क्योंकि लेखन प्रचुर मात्रा में सुलभ नहीं था। जाहिर है, उस वाचिक परंपरा ने ज्ञान के संरक्षण, विश्लेषण, विस्तार और उत्तराधिकार के अपने अभ्यास और नियम विकसित किए। जब छापाखाना आया तो किताबें बड़ी संख्या में छपने लगीं। यह एक तरह से ज्ञान का लोकतांत्रिकीकरण था। ज्ञान अब कुछ लोगों का विशेषाधिकार और उत्तराधिकार नहीं था, उसे कोई भी हासिल कर सकता था। इससे बड़ी बात यह थी कि ज्ञान की संपदा बचाए रखने के कई पुराने नियम बेकार हो गए थे। अब सबकुछ याद रखने की ज़रूरत नहीं थी। जो था, वह किताबों में दर्ज और संरक्षित हो रहा था, जिन्हें पलटकर कभी भी देखा जा सकता है। निश्चय ही इसकी वजह से ज्ञान की नई शाखाओं का तेज़ी से विस्तार हुआ, स्मृति के खाने में बहुत सारी दूसरी चीज़ों की जगह बनी, नियम ज़्यादा व्यवस्थित हुए। लेकिन लेखन की परंपरा ने एक स्तर पर ज्ञान का लोकतांत्रिकीकरण किया तो दूसरे स्तर पर बहुत सारी वाचिक परंपराओं को ख़त्म भी किया और ज्ञान को लिखित भाषा जानने वालों का विशेषाधिकार बना डाला। जो निरक्षर रह गए, वे अज्ञानी भी मान लिए गए। अचानक एक बहुत बड़ा समाज इस परंपरा से बाहर हो गया। 
 
छापाखाने ने जो क्रांति की, उसे नई सूचना प्रौद्योगिकी ने एक नए स्तर तक पहुंचा दिया है। अब कुछ भी याद रखना ज़रूरी नहीं है। बहुत ज़रूरी फोन नंबर तक नहीं- क्योंकि वे हमारे मोबाइल फोन पर पड़े हुए हैं। कहीं पहुंचने के रास्ते भी नहीं, क्योंकि मोबाइल या कार में लगा एक जीपीएस बिल्कुल सही पता दे रहा है। पुरानी घटनाएं और तस्वीरें भी नहीं, क्योंकि वे कैमरे से उतर कर कंप्यूटर में अपलोड की जा चुकी हैं। अब उनके पीले या सीपिया पड़ने का कोई ख़तरा नहीं है। वे हमेशा ताज़ा, बिल्कुल अभी-अभी की बनी रहने वाली हैं। कविता भी याद रखना ज़रूरी नहीं है क्योंकि वे भी अलग-अलग साइट्स पर पड़ी हुई हैं। बाकी सूचनाएं, घटनाएं, बम बनाने से लेकर विमान बनाने की विधियां, खाना पकाने से लेकर क्लोन बनाने तक के तरीक़े गूगल के पास मौजूद हैं। इन सारी चीज़ों ने मिलकर मन को स्मृति के विलास या विलाप से मुक्ति दिला दी है। 
 
ज़रूरी नहीं कि यह सब नकारात्मक हो, बल्कि उलटे यह एक तरह से पहले से चले आ रहे विकास का ही एक नया चरण है। जो सबसे पुराना आदमी था, उसे सबकुछ जानना-सीखना पड़ता था। अपना खाना पकाना भी, अपने घर बनाना भी, अपने बर्तन बनाना भी, अपनी खेती करना भी, अपने कुएं खोदना भी, अपनी बैलगाड़ी बनाना भी, अपने हल-फाल बनाना भी, अपने गीत गाना भी, अपनी कविता लिखना भी और नाचना या नाटक करना भी। सदियों तक लोग विज्ञान, गणित, साहित्य सबकुछ पढ़ते रहे। आज भी कई ऐसे पुराने लोग मिल जाते हैं जो कई विधाओं में पारंगत दिखाई पड़ते हैं।
 
लेकिन समय बदला तो विशेषज्ञता का दौर आ गया। स्मृति को किसी एक क्षेत्र में रमने का मौका मिला। सभ्यता को इसके फायदे भी मिले। हो सकता है, इंटरनेट की कृपा से बिल्कुल फुरसत पा चुकी स्मृति अपनी रचनात्मकता के लिए कोई नया वितान खोजे। हालांकि इस आशावाद की राह बहुत लंबी है, फिलहाल यह दिख रहा है कि स्मृति का यह बेमानीपन अचानक ज्ञान की राह में ही रोड़ा बन गया है। क्योंकि लोगों की नेट-निर्भरता उन्हें सूचना तो दे रही है, लेकिन विश्लेषण का अवकाश, सब्र या सामर्थ्य नहीं। नतीजा यह हुआ है कि एक तरह का सतहीपन हर तरफ बढ़ा है- इकहरापन भी। 
 
निस्संदेह, नेट के एक कोने में विश्लेषण या विशेषज्ञता से जुड़ी चीजें भी मौजूद हैं, लेकिन सूचनाओं की बाढ़ में रुक कर उन्हें तौलने-देखने और आजमाने की फुरसत किसी के पास नहीं है। तो इंटरनेट ने सबसे ज़्यादा हमला हमारी स्मृति की ज़रूरत पर किया है। उसे एक तरह से बेमानी बना डाला है। इसके फायदे उन्हें मिल रहे हैं जो ज्ञान की इजारेदारी कर रहे हैं। अब चमचमाते विज्ञापन तय करते हैं कि क्या बेहतर है और क्यों बेहतर है।
 
इस नई सूचना क्रांति का दूसरा हमला हमारे अनुभव पर हुआ है। अब जीवन में जैसे कुछ भी अप्रत्याशित और नया बचा ही नहीं है, सबकुछ पहले से ही रचा हुआ है, पहले से ही देखा हुआ है। टॉफलर ने ही अपनी एक और किताब ‘फ्यूचर शॉक’ में इस बात की तरफ ध्यान खींचा था कि कैसे यह दौर हमारे अनुभव को भी पूर्व निर्धारित कर रहा है। हम कहीं घूमने जाते हैं तो एक तयशुदा योजना हमारे साथ चलती है। हम एक जाना-पहचाना सूर्योदय देखते हैं, एक पहले से देखा हुआ झरना देखते हैं, एक सुपरिचित पहाड़ देखते हैं। बस, एक तात्कालिकता का ताप है, उसके सामने होने की उत्फुल्लता है, जो हमें आह्लादित करती है। अनुभव अब एक तात्कालिक आह्लाद है। प्रत्याशित के प्रत्यक्ष और क़रीब होने का आह्लाद। जाहिर है, इसमें अपना रंग मिलाने की छूट या फुरसत हमें नहीं मिलती, इसकी अपनी तरह से व्याख्या के बारे में हम नहीं सोचते।
 
दूसरी बात यह कि अनुभव ताप की तरह आता है, भाप की तरह उड़ जाता है। किसी दृश्य को जीने से पहले वहां तक पहुंचने का रोमांच इतना बड़ा हो जाता है कि हम उस दृश्य को जी और पी नहीं पाते, उसके पहले बांटने लगते हैं। नई पीढ़ी इन दिनों कहीं घूमने जाती है तो सबसे पहले अपनी तस्वीरें फेसबुक पर अपलोड करती है। बिना यह जाने कि अभी उसने उसे ठीक से जिया भी या नहीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह सिलसिला पर्यटन के साथ ही नहीं, पूरे जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। हर अनुभव तपता हुआ, भागता हुआ, फिसलता हुआ है, वह तब महसूस होता है जब पंखे की तरह हवा फेंकता आए, तब नहीं, जब प्रकृति की हल्की-हल्की ठंडक हमारी त्वचा को सहलाए। जाहिर है, अनुभव की चमड़ी मोटी हो गई है, वह स्थूल अभिधाओं में ही व्यक्त होती है, सूक्ष्म व्यंजनाओं में नहीं। 
 
इस छिछली होती स्मृति और उथले होते अनुभव संसार के बीच भागती-दौड़ती और लगातार अकेली पड़ती दुनिया में सोशल साइट्स ने संबंधों और संप्रेषण का एक वैकल्पिक संसार ज़रूर बसा दिया है। अब फेसबुक वह चौराहा है जहां मुहल्ले और ज़मानेभर की बहसें चलती हैं। लोग लापरवाही या बेपरवाही से, औपचारिक-अनौपचारिक सारी टिप्पणियां करते चलते हैं, अपने अनुभव, अपनी दिनचर्या, अपना खाना-पीना, मिलना-जुलना, भाषण देना-व्याख्यान सुनना सब दर्ज कर देते हैं। घर से या दफ्तर से घंटों चलते रहने वाला यह शगल हमारे वास्तविक संबंधों का कितना वास्तविक विकल्प है या इसकी वजह से हमारे कौन से दूसरे रिश्ते ख़त्म या ख़ारिज हो रहे हैं, यह एक विचारतलब मुद्दा है। वैसे सूचना प्रौद्योगिकी ने एक तरह की सामूहिकता दी है तो एक तरह का एकांत छीन लिया है। बेबस अकेलापन हमारी नियति है, स्वैच्छिक एकांत हमारा नसीब नहीं। कहीं भी आपका मोबाइल फोन बज सकता है, कहीं भी आपकी उपस्थिति चिह्नित की जा सकती है, कहीं भी कोई व्यवधान डालने आ सकता है। 
 
हालांकि सूचना, स्मृति, अनुभव या सामूहिकता में सूचना प्रौद्योगिकी और नए माध्यमों द्वारा लाए जा रहे इन बदलावों का मक़सद कहीं से यह साबित करना नहीं है कि जो कुछ हो रहा है, बुरा हो रहा है। क्योंकि दरअसल वह अच्छा या बुरा होने से ज़्यादा एक विकासक्रम का नतीजा है। सूचना प्रौद्योगिकी उस उत्तर आधुनिक दौर का अविच्छिन्न हिस्सा है जिसने आधुनिकता की बहुत सारी निशानियों को प्रश्नांकित किया है।आधुनिकता के साथ आए औद्योगीकरण और बड़े कारखानों की जगह अब नई उत्पादन शैली ले रही है, आधुनिकता के साथ उभरे मध्य वर्ग की जगह एक उपभोक्ता वर्ग ले रहा है, राष्ट्र राज्यों की एक अंतरराष्ट्रवाद ले रहा है, केंद्र की जगह हाशिए ले रहे हैं। 
 
नए माध्यमों का सबसे बड़ा कमाल यही है कि वे इस सब तोड़फोड़ में शामिल हैं। इन माध्यमों से ही केंद्र का दबदबा टूट रहा है, हाशियों की आवाज़ें भी सुनाई पड़ रही हैं। संप्रेषण के इस लोकतंत्रीकरण ने महिलाओं और वंचितों को भी बिल्कुल बराबरी पर अपनी बात रखने का मौका दिया है। अब कई पुरानी बेड़ियां टूट रही हैं, अन्याय, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता और मानवाधिकार हनन के ख़िलाफ़ नए मोर्चे खुल रहे हैं। 
 
राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों को इन नए माध्यमों ने अपना भरपूर समर्थन दिया है।
नि:स्संदेह इनकी सीमाएं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि हमेशा की तरह ये नए माध्यम सबसे ज़्यादा विशेषाधिकार प्राप्त तबकों, भाषाओं और समाजों को रास आ रहे हैं। दूसरी बात यह है कि इनकी मार्फत एक नई तरह का वर्चस्ववाद भी वैधता पा रहा है। लेकिन नए माध्यमों को कोसते रहने या उनके सामने बिल्कुल आत्मसमर्पण कर देने की दोहरी अतियों से बचते हुए हम जब उनकी ठीक से व्याख्या करेंगे तो यह समझ पाएंगे कि दुनिया कैसे बदल रही है, नया आदमी किस तरह बन रहा है, नया समाज किन रूपाकारों से अपनी गढ़न हासिल कर रहा है और इन सबके बीच हमें नए माध्यमों से रिश्ता बनाते हुए, उनका इस्तेमाल करते हुए किन सीमाओं, किन सावधानियों का ख्‍याल रखना है।
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