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Last Updated : शुक्रवार, 4 जून 2021 (17:26 IST)

भारत के देशी खाने की संस्कृति ही प्रकृति का संरक्षण है

भारत के देशी खाने की संस्कृति ही प्रकृति का संरक्षण है - Environment, wild life, nature
जिम्मी मगिलिगन सेंटर के पर्यावरण संवाद में डॉ वंदना शिवा बोली

जिम्मी मगिलिगन सेंटर फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट द्वारा फेस बुक लाइव पर आयोजित साप्ताहिक के तीसरे दिन की मुख्य अतिथि डॉ वंदना शिवा, ग्लोबल एडवोकेट जैवविधिता और पर्यावरण एक्टिविस्ट थी।

जनक पलटा मगिलिगन ने उनके परिचय में एक अग्रणी दार्शनिक, पर्यावरण कार्यकर्ता, पर्यावरण वैज्ञानिक बताया।
सप्ताहभर चलने वाले संवाद का उद्देश्य हमारे अपनी प्राकृतिक व्यव्स्था को जानने, समझने के साथ ही लोगों में जागरुकता को बढ़ाना है।

क्‍या कहा डॉ वंदना शिवा ने
भारत के देशी खाने की संस्कृति ही प्रकृति का संरक्षण है। हम धरती मां के परिवार का एक हिस्सा हैं। यह हमें भोजन देती है। भारत की भोजन की संस्कृति ही प्रकृति संरक्षण है क्योंकि भोजन जीवन का आधार है, सृष्टि का आधार है, भोजन ही सृष्टि है और वही सृष्टिकर्ता है। भोजन जीवित है, यह केवल कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और पोषक तत्व के टुकड़े नहीं है, यह एक पवित्र प्राणी है। भारत के पवित्र ग्रंथों के अनुसार  भोजन देने वाला जीवन का दाता है।

भारत की प्राचीन कहावत के अनुसार अन्नदान, भोजन देने से बड़ा कोई उपहार नहीं है। भोजन और आतिथ्य प्रदान किए बिना आपके दरवाजे पर आये व्‍यक्‍ति को विदा न करें। हमारी संस्कृति में भोजन के संबंध में सभी प्रकार के अनुशासन और कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। इसकी आपूर्ति के लिए हमें अपनी मिट्टी को जीवित प्रणालियों के रूप में कार्य करने की आवश्यकता है। हमें उन सभी लाखों मिट्टी के जीवों की आवश्यकता है जो उर्वरता बनाते हैं और वह उर्वरता हमें स्वस्थ भोजन देती है। औद्योगिक संस्कृतियों में हम भूल जाते हैं कि केंचुए ही मिट्टी की उर्वरता पैदा करते हैं।

भारत की संस्कृति में मौसम के अनुसार त्यौहार और हर प्रान्त, क्षेत्र की जैवविवधता और सभी प्राणि‍यों के स्वास्थ्य के लिए पैदा होता था, खेती गाय बैल,  आधारित थी लेकिन हम भूलते जा रहे हैं, गुमराह हो रहे हैं।

उन्‍होंने कहा, जैविक भोजन के माध्यम से जिस तरह हम अपने स्वास्थ्य को स्वस्थ रख सकते हैं, उसी तरह जैविक-खेती से हमारे खेतों का स्वास्थ्य सुधर सकता है और हमारे किसान समृद्ध हो सकते हैं। पशुओं के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं।

उन्‍होंने कहा कि हमारे शोध ने दिखाया है कि आर्गेनिक खेती करके बिना उत्पादन पर घाटा खाये 70 प्रतिशत तक पानी कम कर सकते हैं।

आम नागरिकों के प्रश्नों के उत्तर जनक पलटा मगिलिगन ने दिए। कार्यक्रम के होस्ट और संयोजक स्टार्टअप मेंटर और इंदौरवाले ग्रुप के फाउंडर ने समीर शर्मा ने आभार व्यक्त किया। यह कार्यक्रम सभी के लिए निशुल्क और खुला है। अगले दिनों के प्रोग्राम भी इसी के द्वारा लाइव किए जाएंगे। फेसबुक लिंक -

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