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Written By Author विकास सिंह
Last Updated : मंगलवार, 4 अप्रैल 2023 (19:16 IST)

अंबेडकर महाकुंभ से ग्वालियर-चंबल के दलितों को साधेगी भाजपा, सरकारी कार्यक्रम में बड़े एलान संभव

2018 विधानसभा चुनाव में हार सबक लेते हुए भाजपा का बड़ा फैसला

अंबेडकर महाकुंभ से ग्वालियर-चंबल के दलितों को साधेगी भाजपा, सरकारी कार्यक्रम में बड़े एलान संभव - BJP will help Dalits in Gwalior-Chambal through Ambedar Mahakumbh
भोपाल। मध्यप्रदेश की चुनावी राजनीति में ग्वालियर-चंबल अंचल के रूठे दलितों  को मानने के लिए भाजपा ने अब बड़ा कार्ड खेला है। 2018 के विधानसभा चुनाव से सबक लेते हुए भाजपा अब अपने इस सबसे कमजोर गढ़ को मजबूत करने में जुट गई है। पार्टी बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को पूरे प्रदेश में धूमधाम से मानने के साथ ग्वालियर के फूलबाग मैदान में 16 अप्रैल को अंबेडकर महाकुंभ करने जा रही है। मंगलवार को कैबिनेट की बैठक के  बाद सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने ‘अंबेडकर महाकुंभ’ के कार्यक्रम जानकारी दी।    

ग्वालियर-चंबल पर फोकस क्यों?-दरअसल मध्यप्रदेश की राजनीति में ग्वालियर-चंबल अंचल की किंगमेकर की भूमिका होती है। प्रदेश के सियासी इतिहास को देखा जाए तो भाजपा और कांग्रेस जो भी ग्वालियर चंबल अंचल में जीतती है उसकी ही प्रदेश सरकार बनती है। 2018 के विधानसभा चुनाव में ग्वालियर-चंबल की 34 विधानसभा सीटों में से भाजपा मात्र 7 सीटों पर सिमट गई थी और उसको सत्ता से बाहर होना पड़ा था।

2018 के विधानसभा चुनाव में मुरैना जिले की सभी छह सीटें कांग्रेस के खाते में गई थी वहीं भिंड जिले की पांच में से तीन सीटें कांग्रेस ने जीती थी। वहीं भाजपा  के गढ़ कहे जाने वाले  ग्वालियर के छह सीटों में से पांच सीट कांग्रेस ने हथिया ली थी। जबकि भाजपा एक मात्र सीट ग्वालियर ग्रामीण बचाने में सफल रही थी। वहीं शिवपुरी की पांच में से तीन सीटें कांग्रेस को मिली थी।

ग्वालियर-चंबल में भाजपा की हार का बड़ा कारण एट्रोसिटी एक्ट और आरक्षण के चलते अंचल के कई जिलों का हिंसा की आग में झुलसना था। हिंसा के बाद दलित वोट बैंक भाजपा से दूर हो गया था। ग्वालियर-चंबल की 34 विधानसभा सीटों में से 7 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है और 2018 के विधानसभा चुनाव में से भाजपा इन 7 सीटों में से सिर्फ एक सीट जीत सकी थी। वहीं अंचल की सामान्य सीटों पर भी दलित वोटरों ने भाजपा की मुखालफत कर उसकी प्रदेश में चौथी बार सत्ता में वापसी की राह में कांटे बिछा दिए। गौर करने वाली बात यह है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में  भिंड विधानसभा सीट पर बसपा के संजीव सिंह ने जीत कर भाजपा और कांग्रेस दोनों को पटखनी दे दी थी।  

हलांकि 2020 में सिंधिया के अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा में आने के बाद एक बार मध्यप्रदेश में भाजपा सत्ता में लौट आई थी और उपचुनाव के बाद ग्वालियर-चंबल अंचल में भाजपा आंकड़ों के नजरिए से कांग्रेस पर भारी हो गई थी लेकिन उपचुनाव में भाजपा 6 सीटों मे से सिर्फ 2 ही जीत सकी। भाजपा के टिकट पर लड़े सिंधिया समर्थक इमरती देवी, गिर्राज दड़ोतियां जैसे चेहरे मंत्री रहते हुए भी हार गए।

वहीं विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस अपने इस मजबूत गढ़ पर पूरा फोकस किए हुए है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ लगातार ग्वालियर-चंबल का दौरा कर रहे है वहीं दिग्गिजय सिंह और उनके बेटे जयवर्धन ने सियासी मैनेंजमेंट की कमान अपने हाथों में ले रखी है।

दलितों पर गर्माई प्रदेश की सियासत-मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर इन दिनों दलित राजनीति के केंद्र में आ गया है। प्रदेश में दलित वोट बैंक 17 फीसदी है और विधानसभा चुनाव में जिस पार्टी के साथ यह वोट बैंक एकमुश्त जाता है उसकी सत्ता की राह आसान हो जाती है। प्रदेश में अनुसूचित जाति (SC) के लिए 35 सीटें रिजर्व है, वहीं प्रदेश की कुल 230 विधानसभा सीटों में से 84 विधानसभा सीटों पर दलित वोटर जीत हार तय करते है।

यहीं कारण है कि विधानसभा चुनाव से पहले दलित वोट बैंक को साधने के लिए सियासी दल पूरा जोर लगा रहे है और भाजपा दलितों को साधने के लिए ग्वालियर में अंबेडकर महाकुंभ करने जा रही है। वहीं भाजपा दलित वोट बैंक को अपने साथ एक जुट रखने के लिए प्रदेश में दलित नेताओं को आगे कर रही है। बात चाहे बड़े दलित चेहरे के तौर पर मध्यप्रदेश की राजनीति में पहचान रखने वाले सत्यनारायण जटिया को संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति में शामिल करना हो या जबलपुर से सुमित्रा वाल्मीकि को राज्यसभा भेजना हो। भाजपा लगातार दलित वोटरों को सीधा मैसेज देने की कोशिश कर रही है। वहीं ग्वालियर चंबल से आने वाले दलित लाल सिंह आर्य को पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने बड़ी जिम्मेदारी देते हुए भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चे का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया है।
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