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Last Modified: गुरुवार, 26 सितम्बर 2019 (11:10 IST)

भारत के ये बच्चे पानी लेने ट्रेन से जाते हैं

भारत के ये बच्चे पानी लेने ट्रेन से जाते हैं | train
हर दिन स्कूल के बाद जब बाकी बच्चे खेलने जाते हैं तो 9 साल की साक्षी गरुड़ और उसका पड़ोसी सिद्धार्थ धागे दूसरे छोटे बच्चों के साथ अपने गांव से 14 किलोमीटर दूर पानी लेने ट्रेन से जाते हैं।
 
ये बच्चे महाराष्ट्र के मुकुंदवाड़ी गांव में रहने वाले बेहद गरीब परिवारों के हैं, यह गांव एक के बाद एक सूखे का कहर झेल रहा है। भारत में मानसून ने कई इलाकों में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी लेकिन मुकुंदवाड़ी के आसपास के इलाकों में पानी औसत से 14 फीसदी कम है। नतीजा यहां के बोरवेल सूखे हैं और भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है।
 
10 साल के सिद्धार्थ धागे ने कहा, "मैं पानी लाने में समय नहीं देना चाहता लेकिन मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है।" साक्षी गरुड ने कहा, "यह मेरा रोज का नियम है, स्कूल से आने के बाद मुझे खेलने का समय नहीं मिलता मुझे पहले पानी लाना होता है।" ये लोग ट्रेन स्टेशन से महज 200 मीटर की दूरी पर झुग्गियों में रहते हैं।
 
ये दोनों अकेले नहीं हैं, ब्रिटेन की समाजसेवी संस्था वाटरएड के मुताबिक भारत में करोड़ों लोगों के पास पानी की सप्लाई नहीं है। वाटरएड का कहना है कि 12 फीसदी भारतीय यानी करीब 16.3 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके घरों के पास साफ पानी नहीं है। किसी भी दूसरे देश की तुलना में यह समानुपात सबसे बड़ा है। समस्या की गंभीरता को देखते हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024 तक हरेक भारतीय परिवार तक पानी की सप्लाई पहुंचाने के लिए 49 अरब डॉलर खर्च कनरे का वादा किया है।
 
गरुड और धागे के पड़ोस में रहने वाले 100 से ज्यादा परिवारों के पास पानी की सप्लाई नहीं है और ये लोग निजी सप्लायरों पर निर्भर हैं जो गर्मियों में 5,000 लीटर के पानी टैंकर के लिए 3,000 रुपये वसूलते हैं। हालांकि गरुड और धागे के मां बाप का कहना है कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो टैंकर से पानी मंगवा सकें। धागे के पिता राहुल एक दिहाड़ी मजदूर हैं। उनका कहना है, "इन दिनों मैं अनाज खरीदने के लिए भी पर्याप्त पैसे नहीं कमा  पाता। मैं निजी सप्लायर से पानी नहीं खरीद सकता। मुझे हर दिन काम नहीं मिलता है।"
 
ये बच्चे हर रोज पास के शहर औरंगाबाद पानी लाने जाते हैं। ट्रेन में अकसर बहुत भीड़ होती है, ऐसे में पानी के बर्तन लेकर ट्रेन में चढ़ने की कोशिश करते बच्चों को यात्रियों की टोका टाकी और फटकार भी सहनी पड़ती है। धागे ने बताया, "कुछ लोग मेरी मदद करते हैं, कभी कभी वो रेल अधिकारियों से हमारी बर्तन को दरवाजे के पास रखने के लिए शिकायत करते हैं। अगर हम उन्हें दरवाजे के पास नहीं रखेंगे तो ट्रेन रुकने पर जल्दी से उतार नहीं सकेंगे।"
 
गरुड की दादी सिताबाई कांबले झुंझलाते यात्रियों के बीच कभी कभी उन्हें ट्रेन में धक्का देकर चढ़ाने में मदद करती हैं। कांबले कहती हैं, "कई बार वो बर्तनों को ठोकर मार कर गिरा देते हैं।" 30 मिनट के सफर के बाद जब ट्रेन रुकती है तो वो पास की पाइपों से जल्दी जल्दी पानी भरते हैं। गरुड का हाथ टोंटी तक नहीं पहुंचता तो उसे अपनी लंबी बहन आयशा और दादी की सहायता लेनी पड़ती है। उसकी बहन और दूसरी बड़ी लड़कियां थोड़े थोड़े दिनों पर यहां कपड़े धोने और पानी लेने आती हैं। पड़ोसी प्रकाश नागरे तो साबुन भी ले कर आता है और यहीं नहा लेता है।
 
ट्रेन जब वापस मुकुंदवाड़ी लौटती है तो उनके पास उतरने के लिए बस एक ही मिनट होता है। उस वक्त धाके की मां, ज्योति स्टेशन पर उसकी मदद के लिए खड़ी रहती है। वो बताती हैं, "हम लोग सावधान रहते हैं लेकिन कभी कभी रेलमपेल में बर्तन दरवाजे से नीचे गिर जाता है और हमारी मेहनत बेकार हो जाती है।"
 
एनआर/आरपी (रॉयटर्स)
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