एक वक्त था जब किराए की चीजें इस्तेमाल करना और दूसरे की गाड़ी में घूमने जैसी बातें तुरंत लोगों की इज्जत से जुड़ जाती थीं। लेकिन अब बड़े शहरों में हर दूसरा व्यक्ति ऐसा ही कर रहा है।
आज से 10-20 साल पहले तक नौकरी पर जाने वाला अमूमन हर कामकाजी व्यक्ति बस यही सोचता था कि वह जल्द से जल्द अपना घर खरीद ले। छोटा ही सही अपना घर हो, घर में एक गाड़ी हो। ख्वाहिशें और बढ़ती तो लोग महंगे कपड़े, आलीशान छुट्टियां, और महंगे रेस्तरां में कदम रखने का सोचते। लेकिन ज्यादातर लोग अपने खर्चों में कमी कर भविष्य की सुरक्षा पर जोर देते। मोटा-मोटी पूरा ध्यान दिया घर और संपत्ति जुटाने पर दिया जाता। लेकिन आज का युवा वर्ग नए तौर-तरीके अपना रहा है और सफलता की अपनी कहानी लिख रहा है।
नए लोगों को न तो अपने साधनों को किसी के साथ साझा करने में तकलीफ है और न ही इनके सपने गाड़ियों तक सीमित हैं। सुबह-सुबह दफ्तर के लिए ली गई कैब से लेकर ऑफिस स्पेस और क्राउड फंडिंग से बनी कंपनी को भी सब के सहयोग से खड़ा करने के लिए नई पीढ़ी तैयार है। भारत में यह संसाधनों के साझा इस्तेमाल का विचार तेजी से पकड़ बना रहा है। टैक्सी एग्रीगेटर ओला, उबर, हॉस्पिटेलिटी क्षेत्र की एयर बीएनबी, सर्विस प्रोवाइडर जूम कार, शादियों के कपड़े किराये से देने वाली ऑनलाइन कंपनी फ्लाइरोब इसकी सफलतम मिसालें हैं।
कैसे हैं मॉडल
इस तरह के इकोनॉमिक मॉडल में कंपनियां एग्रीगेटर कंपनी की मदद से ग्राहकों को बेहतर सेवाएं देने की कोशिश करती हैं। उदाहरण के लिए जोमैटो और स्विगी जैसी खाना पहुंचाने वाली कंपनियां हैं या फिर बुक माय शो जिसके जरिए आप सिनेमा के टिकट बुक करते हैं। खाना कोई और बनाता तो सिनेमा कोई और दिखाता है। वहीं दूसरे मॉडल में एक एग्रीगेटर कंपनी, एक ही वक्त पर कई ग्राहकों की जरूरतें पूरी करती है, मसलन ओला और उबर। मीडिया कंपनी मिंट की एक रिपोर्ट मुताबिक भारत के बड़े शहरों में ओला और उबर की रोजाना कुल राइड्स में शेयर राइड्स का हिस्सा 25 से 30 फीसदी तक हो गया है।
क्या है जो बदला है
आजकल एक जुमला काफी सुनने में आता है कि लोग अब अपनी गाढ़ी कमाई को घर या गाड़ियों में फंसाना नहीं चाहते और इसके चलते साझा अर्थव्यवस्था का तंत्र तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में सवाल है कि क्या शेयर इकोनॉमी का विचार सांस्कृतिक बदलावों की उपज है या इसके कारण सिर्फ आर्थिक हैं। अमेरिकी संस्था बीसीजी हेंडरसन इंस्टीट्यूट की एक स्टडी कहती है कि इस सोच के पीछे कारण सांस्कृतिक नहीं बल्कि आर्थिक ही हैं।
वैश्वीकरण के दौर में लोगों की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है। बाजार में पैसा आया तो कारोबार बढ़ा और लोगों के सामने ज्यादा विकल्प आए। ऐसे में आम आदमी के सामने हमेशा ही बेहतर और कम खर्चीले विकल्प चुनने की चुनौती रहती है। शेयरिंग सर्विसेज ने उन्हें अपने लिए कम पैसों में बेहतर सेवाओं को इस्तेमाल करने का मौका दिया है। अब उपभोक्ता यह जानता है कि उसे क्या मिल रहा है। इसके साथ ही रेटिंग्स और रिव्यू के आधार पर वह पिछले ग्राहकों का अनुभव भी समझ सकता है।
सफलता के कारण
मोबाइल फोन, इंटरनेट की सुलभता, बढ़ते डिजिटल कल्चर की वजह से ग्राहक शेयर इकॉनोमी का हिस्सा बन रहे हैं। एग्रीगेटर और डिजीटल मार्केट प्लेस के बढ़ने का कारण इंटरनेट की सुलभता और मौजूदा सेवाओं की बदहाली रही है। इंटरनेट के प्रसार ने इन कंपनियों की राह आसान कर दी। सप्लायर के लिए उसका बाजार बढ़ा, नए ग्राहक जुड़े और संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल होने लगा।
बीसीजी हेंडरसन इंस्टीट्यूट की स्टडी के मुताबिक भारत में 55 फीसदी उपभोक्ता बाजार में स्थापित कंपनियों के साथ ही शेयर इकोनॉमी में जाते हैं, फिर चाहे वह टैक्सी सर्विसेज हो या हॉस्पिटेलिटी सेक्टर। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप का एक हालिया सर्वे बताता है कि भारत में 83 फीसदी लोग इन शेयरिंग प्लेटफॉर्मों पर उपलब्ध उत्पादों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
क्या है फायदे
तमाम विकल्पों वाली ये ऑन डिमांड सर्विसेज हमेशा ही ग्राहकों के लिए सुविधाजनक होती हैं। कम कीमत होने के कारण इन्हें इस्तेमाल करना आसान और सुविधाजनक भी होता है। इसके अलावा नौकरियों के मौके बढ़े हैं। मझोले उद्यमियों के लिए बाजार में जगह बनी है। पारदर्शिता और जवाबदेही के लिहाज से भी बाजार बेहतर हुआ है।क्या मशीनें छीन लेंगी नौकरियां?
अगर लोग गाड़ियों का मिल-बांट कर इस्तेमाल करेंगे तो कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी जिसे पर्यावरण के लिए सकारात्मक माना जा सकता है। इसके साथ ही डिजिटल टूल्स के बढ़ते इस्तेमाल ने डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा दिया। सर्विस प्रोवाइडर पर हमेशा ही अपने ब्रांड की गुणवत्ता बनाए रखने का दबाव रहता है।
भविष्य की चुनौतियां
इस इकोनॉमिक मॉडल की पेचीदगियां भी कम नहीं हैं। ग्राहकों के साथ-साथ कारोबारियों के लिए इसमें कम रोड़े नहीं हैं। अगर ग्राहकों के नजरिए से देखें तो उन्हें ऐसी सेवाओं में विश्वास और सुरक्षा का खतरा महसूस होता है। डिजिटल पेमेंट के चलते कई बार डाटा चोरी का जोखिम बना रहता है। वहीं कारोबारियों के लिए नियामकीय चुनौतियां कम नहीं हैं। सप्लाइ चेन से जुड़े लोगों को प्रशिक्षण देना, कीमतों में आने वाले उतार-चढ़ाव, नई तकनीकों के साथ तालमेल और टैक्स मामलों का प्रबंधन कारोबारियों को मुश्किल में डालता है।
कुल मिलाकर यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत जैसे विकासशील देश में साझा अर्थव्यवस्था के मॉडल में अपार संभावनाएं हैं। लेकिन भारत में इसकी सफलता की गारंटी तभी हो सकती है जब देश के कोने-कोने में तकनीक का प्रसार हो। इसके साथ ही आज नहीं तो कल कारोबारी नियामकीय सरलताओं के लिए भी आवाज उठाएंगे। कामयाबी के लिए केंद्र सरकारों के साथ-साथ राज्य सरकारों और नगर निगमों को हर स्तर पर सहयोग करना होगा।
रिपोर्ट अपूर्वा अग्रवाल