भारत में 94.6 फीसदी मामलों में बलात्कार करने वाला कोई जान पहचान का ही व्यक्ति होता है और अकसर बच्चियां माता पिता को अपनी आपबीती बताने से डरती हैं। ऐसे में क्या माता पिता को भी अपराध में भागीदार नहीं माना जाना चाहिए?
एक बार फिर बलात्कार। इस बार स्कूल में। पटना में पांचवीं क्लास की एक बच्ची के साथ उसके स्कूल प्रिंसिपल ने बलात्कार किया। एक बार नहीं, कई बार। मामला तब सामने आया जब बच्ची गर्भवती हो गई। पेट में दर्द की शिकायत के चलते माता पिता उसे डॉक्टर के पास ले गए और वहां जा कर उन्हें पहली बार अपनी बेटी के साथ हुई ज्यादती के बारे में पता चला। बच्ची ने बताया कि प्रिंसिपल के अलावा स्कूल प्रशासन से जुड़ा एक अन्य व्यक्ति भी पिछले एक महीने से उसका शोषण कर रहा था।
इससे पहले देहरादून के एक मामले ने भी देश को इसी तरह चौकाया था। वहां बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने वाली एक लड़की का उसी के सीनियर्स ने रेप किया। इस मामले में भी लड़की ने लगभग एक महीने तक अपनी जबान नहीं खोली। उसके बाद जब गर्भवती होने का शक हुआ तब अपनी बहन को पहली बार बलात्कार के बारे में बताया। हालांकि बाद में पता चला कि वह गर्भवती नहीं है। लेकिन स्कूल प्रशासन का रवैया भी कम हैरान करने वाला नहीं था। छात्रा को अस्पताल ले जाने और उसके माता पिता को सूचित करने की जगह देसी नुस्खों के इस्तेमाल से उसका गर्भपात कराने की कोशिश की गई।
परिवार की जिम्मेदारी
इस तरह के मामले जब सामने आते हैं तब पहली प्रतिक्रया इंसाफ की होती है। बलात्कारियों को फांसी की सजा देने की मांग की जाती है। पुलिस और अदालतें क्या करती हैं, सारा ध्यान इसी पर केंद्रित रहता है। लेकिन शायद ही कोई समस्या की जड़ पर सवाल उठाता है।
एक बच्ची को अपने मां बाप से यह कहने में एक महीना लग जाता है कि उसके साथ बलात्कार हुआ। गर्भवती नहीं हुई होती तो शायद जिंदगी भर नहीं बताती। लेकिन क्यों? बच्चों को अच्छा जीवन देना, उनके दुख सुख का ख्याल रखना माता पिता की जिम्मेदारी है। जब सड़क पर चोट लगती है, तो बच्चा घर आ कर सबसे पहले मां बाप को ही बताता है। तो फिर इतनी बड़ी चोट के बारे में घर वालों से पर्दा क्यों करना पड़ता है? माता पिता क्यों बच्चों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम हो रहे हैं कि वे अपने बच्चों के दर्द को समझेंगे?
भारत में लड़कियों को अकसर यह सिखाया जाता है कि अगर उनके साथ कुछ बुरा हुआ, तो कहीं ना कहीं इसमें उन्हीं की गलती रही होगी। यही वजह है कि लड़कियां खुल कर बोलने से हिचकती हैं। उन्हें यह डर रहता है कि उन्हें घर पर भी अपमानित किया जाएगा। इसके अलावा भारत में "घर की इज्जत" बेटी से जुड़ी होती है। बेटी के साथ कुछ भी होने का मतलब घर और परिवार की बदनामी। कितना अच्छा होता अगर इन बेतुके आदर्शों की जगह बेटियों को भरोसा दिलाया जाता कि माता पिता हर हाल में उनके साथ खड़े रहेंगे। काश कि यह सीख दी जाती कि कैसे खुद को मजबूत बनाना है!
सरकार की विफलता
नेशनल क्राइम्स रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर दिन औसतन 106 बलात्कार होते हैं। हर दस में से चार पीड़ित नाबालिग होते हैं। और सबसे चौकाने वाली बात यह है कि 94.6 फीसदी मामलों में बलात्कार करने वाला कोई रिश्तेदार या जान पहचान का ही व्यक्ति होता है। जब इस तरह के आंकड़े हमारे सामने हैं, तो बेटियों को सशक्त करने की जरूरत और भी ज्यादा बढ़ जाती है। मौजूदा सामाजिक ढांचे में अपराधी को इस बात का यकीन होता है कि पीड़ित लड़की किसी से कुछ नहीं कहेगी। अगर कह भी दिया, तो घर की इज्जत के चलते परिवार बात को दबा देगा।
परिवार के साथ साथ यहां सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों- लड़के और लड़कियों दोनों- की सुरक्षा का ध्यान रखा जाए। अकसर आरोपी को फांसी देने की मांग उठती है लेकिन इससे समस्या का हल तो नहीं निकलेगा। जरूरी है कि बच्चों के लिए ऐसी हेल्पलाइन स्थापित की जाएं, जहां वे अपनी दिक्कतें बता सकें। सिर्फ शारीरिक ही नहीं, मानसिक यातनाओं पर भी यह लागू होता है।
एक वक्त था जब भारत में पोलियो बहुत बड़ी समस्या था। सरकार ने कई प्रोजेक्ट चलाए। घर घर जा कर जानकारी दी। यह सुनिश्चित किया कि हर बच्चा सुरक्षित हो। आज यौन शोषण भी हमारे समाज में एक बीमारी की ही तरह फैला गया है और इसके साथ भी कुछ इसी तरह से निपटने की जरूरत है। जब तक इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुंचा जाएगा, इससे निजात पाना नामुमकिन है।
रिपोर्ट ईशा भाटिया