बीजेपी हो या कांग्रेस, दोनों ही पार्टियां यह साफ नहीं करती हैं कि उनकी आमदनी का स्रोत क्या है। पारदर्शिता बनाने की जगह दोनों ही कानून में बदलाव का सहारा लेती हैं।
विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा निर्वाचन आयोग को दी गई जानकारी के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट को जब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (लोकतांत्रिक सुधार समिति) ने मंगलवार को जारी किया, तब यह तथ्य प्रकाश में आया कि वर्ष 2015-16 और 2016 -17 के बीच सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की आमदनी में 81.18 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, जबकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की आमदनी में इस दौरान 14 प्रतिशत की गिरावट आयी।
जहां भाजपा की आय 570 करोड़ 86 लाख रुपये से बढ़कर 1034 करोड़ 27 लाख रुपये हो गई, वहीं कांग्रेस की आमदनी 261 करोड़ 56 लाख रुपये से घटकर 225 करोड़ 36 लाख रुपये रह गयी। दोनों ही पार्टियों ने अपनी आय का प्रमुख स्रोत दान अथवा चंदे को बताया है। दोनों ही पार्टियां समय से अपने आयकर रिटर्न दाखिल नहीं करतीं और ऑडिट की रिपोर्ट भी समयसीमा बीत जाने के कई-कई महीने बाद पेश की जाती है।
दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही बढ़-चढ़कर राजनीतिक प्रक्रिया और पार्टियों की वित्तीय दशा को अधिकाधिक पारदर्शी बनाने के दावे करती रहती हैं। भाजपा तो हमेशा से ही कांग्रेस पर भ्रष्टाचार में लिप्त रहने का आरोप लगाती रही है और अपने आपको एक भिन्न किस्म की नितांत ईमानदार और बेदाग पार्टी के रूप में पेश करती रही है। लेकिन हकीकत यह है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन के बारे में जानकारी सार्वजनिक करने और पूरी प्रक्रिया को ईमानदार और पारदर्शी बनाने के बजाय उसने भी उस पर पर्दा डालने का ही काम किया है।
इस मामले में कम्युनिस्ट पार्टियां औरों के तुंलना में कहीं अधिक पारदर्शी हैं और पार्टी सदस्यों एवं शुभचिंतकों से मिलने वाले धन का ब्यौरा प्रतिवर्ष सार्वजनिक करती हैं। कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने भी पार्टी फंडिंग को भ्रष्टाचारमुक्त करने की दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का रिकॉर्ड इस मामले में काफी संदिग्ध है। 28 मार्च 2014 को दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में भाजपा और कांग्रेस को विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 1976 (एफसीआरए) के उल्लंघन का दोषी पाया और केंद्र सरकार एवं निर्वाचन आयोग से इन दोनों दलों के खिलाफ छह माह के भीतर कानूनसम्मत कार्रवाई करने का आदेश दिया।
निर्वाचन आयोग ने गेंद केंद्रीय गृह मंत्रालय के पाले में उछाल दी और कहा कि मंत्रालय ही एफसीआरए के मामले में कार्रवाई कर सकता है, अतः वही फैसले पर अमल करें। लेकिन कुछ नहीं हुआ और दोनों पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी, जहां वह अन्य अनेक अपीलों की तरह लंबित पड़ी रही।
2016 के बजट में मोदी सरकार ने "विदेशी स्रोत" की परिभाषा कुछ इस तरह बदल दी कि दोनों पार्टियां साफ छूट जाएं और इसके बाद दोनों पार्टियों के वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया कि अब तो कोई मामला ही नहीं बनता। लेकिन उन्हें याद दिलाया गया कि धन तब लिया गया जब 1976 का कानून लागू था, इसलिए वे मामले से बरी नहीं हो सकते। अब इस साल के बजट में केवल कुछ शब्दों के फेर-बदल से कानून को ऐसा बना दिया गया है कि 5 अगस्त 1976 के बाद विदेशी स्रोत से लिए गए धन पर यह कानून ही लागू नहीं होगा।
मजे की बात यह है कि कांग्रेस सरकार हो या भाजपा सरकार, दोनों ही एफसीआरए का इस्तेमाल गैर-सरकारी संगठनों पर अंकुश लगाने और तीस्ता सीतलवाड़, इंदिरा जयसिंह तथा अनेक अन्य आलोचकों को परेशान करने के लिए करती रही हैं। लेकिन राजनीतिक दलों पर इसे लागू नहीं किया गया। और अब तो कानून बदल कर पूरी तरह से विदेशी स्वामित्व वाली कंपनियों से भी धन लेने को वैध बना दिया गया है।
इस साल वित्त मंत्री अरुण जेटली ने राजनीतिक दलों की फंडिंग को और अधिक पारदर्शी बनाने का दावा करते हुए चुनावी बॉन्ड की योजना पेश की, जिसके तहत पार्टियों को धन देने वाला व्यक्ति या कंपनी भारत के कुछेक सबसे बड़े सरकारी बैंकों से चुनावी बॉन्ड खरीदेगा।
इस तरह बैंक के पास उसका रिकॉर्ड हो जाएगा और प्रक्रिया में पारदर्शिता आ जाएगी। लेकिन समस्या यह है कि न तो जनता को और न ही निर्वाचन आयोग को इस धन के स्रोत का पता चल पाएगा क्योंकि राजनीतिक पार्टियां आयोग को स्रोत के बारे में जानकारी नहीं देंगी, बल्कि इससे लोकतंत्र को ही खतरा पैदा होने की आशंका है क्योंकि बैंकों के जरिए सरकार इस बात की पूरी जानकारी प्राप्त कर सकेगी कि किस पार्टी को कहां से कितना धन मिला। और यदि वह चाहेगी तो विरोधी दलों को धन देने वालों को परेशान भी कर सकेगी।
रिपोर्ट कुलदीप कुमार