श्रीनिवास मजुमदारु
अमेरिका और चीन के बीच जारी व्यापारिक विवाद में अस्थायी सुधार तो आया है, लेकिन यह खत्म नहीं हुआ है। यह विवाद दुर्लभ खनिज संपदा (रेअर अर्थ) को फिर से सुर्खियों में ले आया। रेअर अर्थ की समूची सप्लाई चेन के हर चरण पर चीन का दबदबा है। दुनिया में इनका जितना खनन होता है, उसके लगभग 70 फीसदी हिस्से पर चीन का नियंत्रण है। साथ ही, प्रॉसेस किए गए रेअर अर्थ्स का लगभग 90 फीसदी हिस्से का उत्पादन चीन करता है।
बीते दिनों, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने एक रिपोर्ट जारी की। इसमें चेताया गया कि इस तरह एक इंडस्ट्री पर "एकाधिकार" ऊर्जा, मोटर वाहन उद्योग, रक्षा और एआई डेटा सेंटर जैसे बेहद अहम क्षेत्रों में दुनिया की आपूर्ति शृंखलाओं को संभावित दिक्कतों के प्रति "कमजोर और असुरक्षित" बना सकता है।
अक्टूबर की शुरुआत में बीजिंग ने दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति पर अपनी मुट्ठी और भींच ली। 1 दिसंबर से लागू हो रहे नियम के बाद अगर कोई भी विदेशी कंपनी, दुनिया के किसी भी हिस्से में ऐसे उत्पादों का निर्यात करती है, जिनमें चीन के दुर्लभ खनिजों का थोड़ा भी इस्तेमाल किया गया हो, या उनका उत्पादन चीनी तकनीक से किया गया हो, तो उनके लिए चीन की सरकार से अनुमति लेना अनिवार्य होगा।
यह कदम अमेरिका के एक फैसले के जवाब में आया है। डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने सबसे उन्नत अमेरिकी सेमीकंडक्टर चिप्स और अन्य तकनीकों को कई चीनी कंपनियों की पहुंच से दूर कर दिया है।
रेअर अर्थ पर चीन के फैसले के कारण संभावित आपूर्ति की कमी को लेकर चिंताएं बढ़ गईं। कमी के कारण इलेक्ट्रिक वाहनों, रक्षा उपकरणों और अक्षय ऊर्जा मशीनों के उत्पादन पर गंभीर असर पड़ सकता है।
अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि, जेमिसन ग्रीर ने बीजिंग के नए कदमों की आलोचना करते हुए उन्हें "बेहद आक्रामक" और "असंगत" बताया। वहीं, यूरोपीय संघ (ईयू) के व्यापार प्रमुख, मारोस जेफकोविक ने इन्हें "अनुचित और हानिकारक" करार दिया।
यही वजह रही कि दक्षिण कोरिया में जब ट्रंप और शी जिनपिंग की मुलाकात हुई, तो रेअर अर्थ सप्लाई पर सबसे ज्यादा फोकस था। ईयू भी अपनी कंपनियों के लिए पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए चीन से बातचीत कर रहा है।
रेअर अर्थ क्यों हैं इतने जरूरी?
रेअर अर्थ एलिमेंट्स विशेष भौतिक, चुंबकीय और रासायनिक गुणों के कारण हमारे आधुनिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। ये ऐसे मैग्नेट्स बनाने के लिए अहम निभाते हैं, जिनकी मैग्नेटिक क्षमता हमेशा बनी रहती है। इसके लिए उन्हें बाहरी ऊर्जा स्रोत की भी जरूरत नहीं पड़ती।
इस तरह के धातु उच्च-तकनीकी उत्पादों जैसे स्मार्टफोन, लैपटॉप, हाइब्रिड कार, पवन चक्की और सोलर बैटरियों के निर्माण के लिए जरूरी हैं।
रक्षा क्षेत्र में भी यह बेहद उपयोगी है। लड़ाकू विमान के इंजन से लेकर मिसाइल गाइडेंस सिस्टम, एंटी-मिसाइल डिफेंस, उपग्रह और संचार प्रणालियों में इनका इस्तेमाल किया जाता है।
हालांकि, इनके नाम से ऐसा लगता है कि ये दुर्लभ तत्व पृथ्वी पर बहुत कम पाए जाते होंगे। असल में ये इतने भी दुर्लभ नहीं हैं। पृथ्वी के क्रस्ट में इनकी पर्याप्त मात्रा मौजूद है। यहां तक कि कुछ तो तांबा, सीसा, सोना और प्लेटिनम जैसी धातुओं से भी अधिक मौजूद हैं।
मगर, ये खनिज संसाधन आमतौर पर इतने विशाल भंडार में नहीं मिलते कि उन्हें निकालना किफायती पड़े। चीन के अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्राजील, भारत, दक्षिण अफ्रीका और रूस जैसे देशों में भी इनके भंडार मौजूद हैं।
रेअर अर्थ्स को अलग-तत्वों से छांटकर निकालने के आधार पर दो श्रेणियों में बांटा जाता है। पहला, लाइट रेअर अर्थ्स और दूसरा, हेवी रेअर अर्थ्स। खासतौर पर हेवी रेअर अर्थ्स में चीन का लगभग एकाधिकार है।
एनर्जी ट्रांजिशन मिनरल्स पर शोध करने वाली ब्रिटिश संस्था, बेंचमार्क मिनरल इंटेलिजेंस के अनुसार, दुनियाभर में भारी दुर्लभ तत्वों के प्रसंस्करण का लगभग 99 फीसदी हिस्सा चीनी कंपनियों के नियंत्रण में है।
दूसरे देश 'रेअर अर्थ' की आपूर्ति बढ़ाने के लिए क्यों संघर्ष कर रहे हैं?
एक समय था, जब अमेरिका भी 'रेयर अर्थ' के मामले में आत्मनिर्भर हुआ करता था। लेकिन, पिछले दो दशकों में चीन इस क्षेत्र का सबसे बड़ा खिलाड़ी बनकर उभरा है। इन महत्वपूर्ण खनिजों पर चीन की मजबूत पकड़ एक दशक पहले से ही साफ दिखाई देने लग गई थी।
कई विशेषज्ञों का लंबे समय से मानना रहा है कि चीन इन खनिजों को अपने भू-राजनीतिक विवादों के दौरान दबाव बनाने के औजार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। साल 2010 में चीन ने जापान के साथ क्षेत्रीय विवाद के दौरान भी रेअर अर्थ्स का निर्यात रोक दिया था।
ऐसे ही 2019 में, जब अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक तनाव चरम पर आ गया था, तब चीनी सरकारी मीडिया ने सुझाव दिया था कि अमेरिका के खिलाफ जवाबी कदम उठाने के तौर पर चीन इन खनिजों का निर्यात रोक सकता है। साथ ही, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी रेअर अर्थ्स को "एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संसाधन" करार दिया था।
कई कोशिशों के बाद भी रेअर अर्थ्स के लिए चीन से निर्भरता कम करने की योजना को अब तक बहुत कम सफलता मिल पाई है।
रेअर अर्थ्स का उत्पादन बढ़ाने के प्रयास में लगा अमेरिका
चीन के वर्चस्व का मुकाबला करने के लिए ट्रंप प्रशासन अपने सहयोगी देशों के साथ समझौते करने की कोशिश कर रहा है, ताकि दुर्लभ तत्वों की स्थायी आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सके। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि चीन पर निर्भरता कम करने की असली चुनौती प्रॉसेसिंग और रिफाइनिंग क्षमता को बड़े पैमाने पर बढ़ाने में है।
'शिकागो काउंसिल ऑन ग्लोबल अफेयर्स' के विशेषज्ञ, कार्ल फ्रीडहॉफ ने 16 अक्टूबर को छपे एक ब्लॉग में लिखा, "अमेरिका को सबसे पहले 'मिडस्ट्रीम' पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि यही वह हिस्सा है, जहां प्रॉसेसिंग और रिफाइनिंग होती है।"
उन्होंने देश में प्रॉसेसिंग प्लांट और रिफाइनरियां स्थापित करने पर जोर देते हुए लिखा, "अगर अमेरिका के पास कच्चे खनिज होंगे, लेकिन मिडस्ट्रीम पर ही नियंत्रण नहीं होगा, तो हमें उन्हें फिर भी चीन ही भेजना पड़ेगा ताकि उनका प्रसंस्करण किया जा सके।"
हालांकि, उन्होंने यह भी जोड़ा कि ऐसा करने से "कई तरह की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, विशेष रूप से पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियां।"
क्या हैं प्रमुख चुनौतियां?
'रेअर अर्थ' उत्पादन में चीन को यह वर्चस्व भारी पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत पर हासिल हुआ है। इनकी खनन प्रक्रिया पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य, दोनों के लिए ही बेहद खतरनाक होती है, क्योंकि सभी 'रेयर अर्थ' अयस्कों में यूरेनियम और थोरियम जैसे रेडियोधर्मी तत्व मौजूद होते हैं। ये तत्व हवा, पानी, मिट्टी और भूजल को प्रदूषित कर सकते हैं जिससे गंभीर पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम पैदा हो सकते हैं।
चीन पर निर्भरता कम करने की कोशिश में पश्चिमी देशों को कई व्यावहारिक और तकनीकी बाधाओं का भी सामना करना पड़ रहा है। सबसे पहले तो प्रॉसेसिंग प्लांट्स बनाना, जो पश्चिमी देशों के सख्त पर्यावरणीय नियमों का पालन करें। यह पश्चिमी देशों के लिए काफी महंगा और समय लेने वाला विकल्प साबित हो सकता है।
साथ ही, इनके प्रसंस्करण के लिए अत्यधिक ऊर्जा और पानी की जरूरत होती है। इससे उन क्षेत्रों में जन-विरोध बढ़ सकता है, जहां ऐसे प्लांट्स लगाने की योजना बनाई जाएगी।
इसके अलावा तकनीकी रूप से भी यह प्रक्रिया बहुत जटिल है। चीन के पास इस क्षेत्र में दशकों का अनुभव, प्रशिक्षित कर्मी और एक मजबूत औद्योगिक ढांचा है, जिसे खड़ा करना दूसरे देशों के लिए आसान नहीं होगा।
अमेरिका स्थित 'सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज' की जुलाई में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन के पास 'रेअर अर्थ प्रॉसेसिंग' में बेजोड़ तकनीकी विशेषज्ञता है, खासकर 'सॉल्वेंट एक्सट्रैक्शन' में। यह रेअर अर्थ्स को अलग करने की एक बेहद जटिल और महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है।
रिपोर्ट में कहा गया, "पश्चिमी कंपनियां सीमित प्रशिक्षित कार्यबल, रिसर्च एंड डेवलपमेंट की कमी और सख्त पर्यावरणीय नियमों के कारण ही संघर्ष कर रही हैं।"
रिपोर्ट के मुताबिक, चीन से 'रेअर अर्थ' आपूर्ति का विविधीकरण करने के लिए सिर्फ नई खदानें ही काफी नहीं है। इसके अलावा नए रिफाइनिंग संयंत्र, प्रशिक्षित श्रमिक और कंपनियों के लिए आर्थिक प्रोत्साहन जैसे मूल्य भी आवश्यक होंगे।
रिपोर्ट के लेखकों ने अमेरिका से आग्रह किया कि वह 'रेअर अर्थ' क्षेत्र में अपनी तकनीकी विशेषज्ञता को दोबारा विकसित करे और प्रसंस्करण केंद्र स्थापित करने की रणनीति बनाए। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया कि ऐसा करने के लिए केवल सस्ती कच्ची सामग्री प्राप्त कर लेना ही काफी नहीं होगा। क्योंकि, इससे केवल लागत के मामले में ही प्रतिस्पर्धी बना जा सकेगा।
रिपोर्ट के अनुसार, यह भी आवश्यक है कि देश के पास किफायती ऊर्जा का भरोसेमंद स्रोत, कुशल परिवहन ढांचा, उन्नत प्रसंस्करण तकनीक और सुलभ एवं प्रशिक्षित कामगार भी मौजूद हों। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि भले ही ये सभी कदम उठा लिए जाएं, तब भी निकट भविष्य में चीन का वर्चस्व बरकरार रहने की उम्मीद है।
रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया कि अगर अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने साथ मिलकर जल्द ठोस कदम नहीं उठाए, तो चीन के एकाधिकार को चुनौती देने की संभावना और कम होती चली जाएगी। इसके कारण महत्वपूर्ण तकनीकों, उद्योगों और सुरक्षा हितों पर लगातार जोखिम बना रहेगा।