मंगलवार, 3 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. नन्ही दुनिया
  3. कहानी
  4. new year story
Written By

कहानी : नया साल, बंदर और बुद्धिजीवी...

कहानी : नया साल, बंदर और बुद्धिजीवी... - new year story
- गोपाल चतुर्वेदी
 

 
ऐनक बिना बुद्धिजीवी अंधा है। उसकी निजी स्वार्थ की सिर्फ पास की सीमित दृष्टि है। नववर्ष की पूर्व संध्या है। स्वागत में हनुमान जी का मंदिर भी सजा है और उसके पास का कॉफी-हाउस भी। आस्था एवं बाजार की बौद्धिकता का सह-अस्तित्व इसी मुल्क में संभव है। यहां पत्रकार, प्रेमी, नकली-असली बुद्धिजीवी जैसे अने प्रकार के महानुभाव कैफीन की तलब मिटाने पधारते हैं। पारस्परिक व्यवहार के गिरते स्तर पर शहर का एक बुद्धिजीवी चिंतित है। दोस्तों की न की, लोगों के व्यवहार की निंदा कर ली। उसे पता है, इससे कुछ होना जाना नहीं है पर कॉफी के प्याले में तूफान क्या बुरा है? 
 
बुद्धिजीवी अंतर्राष्ट्रीय किस्म का जीव है। उसने फ्रेच कट दाढ़ी उगाई है। उसे सहलाने के मौके तलाशता है। वह इधर दाढ़ी पर हाथ चलता है, उधर जुबान चलती है। 
 
एक दाढ़ीहीन पूछता है- 'भैया, क्या हो गया है जो आप इतने परेशान लगते हैं?'
 

 
'क्या बताएं, हम तो दुखी हैं, इन्सानों के घटिया आचरण से। गुस्सा आए तो मंत्री पर चप्पल, जूते, सड़े अंडे, टमाटर, भंटे, ढेर सारी चीजें हैं फेंकने को। थप्पड़ से हाथ गंदे करने की क्या दरकार है?' 
 
एक अन्य उदीयमान बुद्धिजीवी ने सहमति जताते हुए निवेदन किया, 'सर! महंगाई इतनी है कि जीवन मूल्यों के अलावा, कुछ भी अब फेंकने योग्य नहीं है। जब खाने-पहनने को नही है तो फेंकने को कैसे हो?' विद्वान कोपनहेगन से इनफ्लैशन पर हुई इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस में भाग लेकर लौटा है। जब देश में रहता है तब भी बेचारा इस सेमिनार से उस मीटिंग तक दौड़ लगाता है। घर में न खाने की जरूरत है, न फुरसत। कभी समय मिला तो शहर और देश की समस्याओं का चिंतन-मनन कर लिया। फिलहाल, वह नपुंसक आक्रोश के प्रदर्शन के लिए चप्पल, जूते, सब्जी फेंकने जैसे पारंपरिक तरीकों की हिमायत कर रहा है। उसे अहसास ही नहीं है कि महंगाई हर हद पार कर चुकी है। ज्यादातर भारतवासी भूख के भय से हलकान हैं। जहां रोटी-नमक के लाले हैं, वहां पारस्परिक शिष्टाचार के स्थापित मानकों की कौन फिक्र करे! उसे कौन समझाए कि पशुता और सभ्यता में सिर्फ भरे पेट का अंतर है। 
 
कॉफी हाउस से चलती चर्चा फुटपाथ तक आ पहुंचती है। बुद्धिजीवी अपने प्रवचन में चालू हैं। छोटी-छोटी बातों पर संसद ठप करना क्या हमें शोभा देता है? दुनिया के सामने सहिष्णु और उदार प्रजातंत्र की प्रतीक बनी देश की परंपरा और छवि का कचरा हो रहा है। पूरा वर्ष रार-तकरार, दुर्घटना, अनिर्णय, आंदोलन, भ्रष्टाचार का शिकार रहा। नववर्ष से क्या उम्मीद करें! 
 
इतने में मंदिर का एक बंदर प्रसाद से पेट-पूजा कर जैसे मन-बहलाने को उछलता आता है। विद्वान का नई स्टाइल का चश्मा उसे जंचता है। झपट्टा मारकर वह चश्मा ले सामने पेड़ पर जा बैठता है। वहां से वह चश्मा चढ़ाकर विद्वानों को मुंह बिरा रहा है। ऐनक बिना बुद्धिजीवी अंधा है। उसे पेड़, बंदर, चश्मा कुछ नहीं दिखता है। उसकी एक ही आर्त टेक है। वह गाड़ी कैसे चलाएगा? घर कैसे जाएगा? अगर पंचतारा होटल की फ्री-फंडिया पार्टी मिस हुई तो नया साल कहीं आने से इनकार न कर दे! उसकी निजी स्वार्थ की सिर्फ पास की सीमित दृष्टि है। दूर की पहले से ही कमजोर थी, रही-सही कसर बंदर ने पूरी कर दी। कहीं ऐसा तो नहीं है, किसी न किसी सियासी विचारधारा का आग्रही बंदर चोरी-छिपे बुद्धिजीवियों की निष्पक्षता की नजर ले उड़ने को हमेशा उतारू रहता है !
ये भी पढ़ें
नए बरस का उपहार