नई दिल्ली। जब पाकिस्तान ने सिख आतंकियों को हथियार उपलब्ध कराने का घृणित काम शुरू किया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सोचा कि हमारे पास एक विदेशी खुफिया विभाग भी होना चाहिए। हालांकि किसी एजेंसी का गठन नहीं किया गया बल्कि रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) की स्थापना हुई जो किसी एजेंसी के तौर पर वर्गीकृत नहीं है।
वर्ष 1968 में आरएन काव द्वारा स्थापित रॉ का पहला फोकस पाकिस्तान था और दूसरा चीन क्योंकि चीन भारत के खिलाफ पाकिस्तान की सामरिक दृष्टि से मदद कर रहा था। साल 1974 में भारत के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच हथियारों की एक होड़ शुरू हो गई।
भारत की बढ़ती परमाणु क्षमताओं से चौकस पाकिस्तान ने खुद के परमाणु हथियार निर्माण के लिए मदद की खोज शुरू कर दी। जिस प्रकार से परमाणु संसाधन संयत्र से अमेरिका और कनाडा ने भारत की मदद की वैसे ही 70 के दशक में फ्रांस ने भी वही तकनीक उपलब्ध कराकर पाकिस्तान की मदद की। साथ ही चीनी तकनीशियनों ने भी परमाणु हथियार बनाने के लिए यूरेनियम को संशोधित करने में पाकिस्तान की मदद की।
बहरहाल पाकिस्तान को फ्रांस की मदद जगजाहिर थी लेकिन कहुटा में खुफिया परमाणु संयत्र सबसे छिपा हुआ था। यहां तक कि भारत और इसराइल से भी। इसराइल का खुफिया विभाग मोसाद पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर चिंतित था क्योंकि पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के पितामह वैज्ञानिक एक्यू खान ने प्योंगयोंग की यात्रा की थी।
आज सभी जानते हैं कि उत्तर कोरिया ने परमाणु बम बनाने की तकनीक एक्यू खान से हासिल की है। इसलिए मोसाद, पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम की जानकारी के लिए भारत के रॉ के साथ मिलकर काम कर रहा था। फ्रांस को भी पाकिस्तान की योजनाओं को लेकर चिंता होने लगी जिस वजह से उसने भी अमेरिका के दबाव में उसकी सहायता बंद कर दी।
फ्रांस द्वारा मदद बंद करने के बाद पाकिस्तान ने अपना सारा ध्यान खुफिया तौर पर कहुटा परमाणु संयंत्र को किसी तरह से विकसित करने में लगा दिया। दूसरी ओर सत्तर के दशक के अंतिम सालों में रॉ ने पाकिस्तान के भीतर अपना अच्छा नेटवर्क बना लिया था, जिससे उसे कहुटा परमाणु संयत्र की जानकारी अफवाह के तौर पर मिली थी।
लेकिन, समस्या यह थी कि इस जानकारी की पुष्टि कैसे की जाए। परमाणु संयत्र में घुसपैठ की कोशिश में सालों लग सकते थे और वह मूर्खतापूर्ण भी हो सकता था। यहां इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि पाकिस्तान ने इस अभियान को इतना गुप्त रखा था कि रॉ को भी इसकी जानकारी अफवाहों के जरिए मिली थी। फिर एक आश्चर्यजनक अभियान में रॉ के एजेंटों ने कहुटा में नाई की दुकान पर बाल कटवाने आए पाकिस्तानी वैज्ञानिकों के कटे हुए बालों को चुराया।
उन वैज्ञानिकों के चुराए गए बालों के सैंपल में विकिरण की जांच की गई जिसमें अफवाह की पुष्टि हो गई। अब भारत को पता चल गया था कि कहुटा संयंत्र परमाणु हथियार बनाने के लिए प्यूटोनियम संशोधन संयंत्र था। भारत ने अब स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान परमाणु हथियार का निर्माण कर रहा है।
इस दौरान भारत और इसराइल की खुफिया एजेंसियों के मिलकर सक्रिय अभियान चलाया। इसके बाद इसराइल सीधे तौर पर कहुटा संयंत्र को बम से उड़ाना चाहता था, लेकिन यहां पर भारत की ओर से एक बहुत बड़ी असावधानी हो गई। हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने, जो उस समय तत्कालीन पाक तानाशाह जनरल जिया-उल हक से बातचीत किया करते थे, फोन पर बातचीत के दौरान उनसे कह दिया कि उन्हें पाकिस्तान के खुफिया अभियान (कहुटा संयंत्र) की जानकारी है।
इसके बाद पाकिस्तान ने फौरन सभी रॉ नेटवर्क को खत्म कर दिया और इसराइल की बमबारी से बचाने के लिए अमेरिका से गुजारिश की। इस शानदार असफल अभियान के बाद अपने परमाणु कार्यक्रमों की जानकारी को गुप्त रखने के लिए पाकिस्तान हमेशा चिंतित रहा है। रॉ और उसके एजेंटों ने जो किया वह कुछ और नहीं बल्कि इतिहास के सबसे कठिन और जोखिम भरे अभियानों में से एक था।
रॉ और उसके एजेंटों ने जो किया वह कुछ और नहीं बल्कि इतिहास के सबसे कठिन और जोखिम भरे अभियानों में से एक था। लेकिन हमारे राजनेताओं की विवेकहीनता से सब कुछ मिट्टी में मिल गया। लेकिन जिस तरह से पंडित नेहरू ने 1962 में बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों की जान से खिलवाड़ किया था ठीक उसी तरह से मोरारजी देसाई ने भारत के बड़ी संख्या में रॉ एजेंटों की बलि दे दी। यह हमारे देश के राष्ट्रनायक हैं जोकि राष्ट्र के बारे में भी अच्छी तरह से नहीं सोचते हैं।
कहा तो यह भी जाता है कि मोरारजी भाई द्वारा असावधानीवश दी गई इस सूचना के चलते ही बाद में उन्हें पाकिस्तान के सबसे बड़े सम्मान निशाने पाकिस्तान से नवाजा गया था।