Demand for Indian workers in Germany: विदेशी कुशल श्रमिकों के बिना जर्मनी की गाड़ी नहीं चल सकती। चाहे स्वास्थ्य सेवा का क्षेत्र हो, उद्योग का हो या अनुसंधान का –– हर जगह मूल रूप से दूसरे देशों से आए लोग काम करते दिखते हैं। न केवल उनकी राष्ट्रीयताएं भिन्न-भिन्न होती हैं, उनके वेतन भी एक जैसे नहीं होते। जर्मन आर्थिक इंस्टीट्यूट (IW) ने अपने एक विश्लेषण में पाया है कि जर्मनी में काम करने वाले नौकरी-पेशा लोगों के बीच सबसे अधिक औसत आय भारतीयों की है। सवा 8 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में भारतवंशियों की संख्या हालांकि अन्य कई देशों से आए विदेशियों की अपेक्षा काफ़ी कम है–– केवल 2,45,000 के आस-पास ही है। तब भी, उनके औसत वेतन, अमेरिका-इंग्लैंड जैसे देशों से आये लोगों से, या भारतीयों के जैसे ही नौकरियों वाले जर्मनों से भी अधिक होते हैं।
जर्मनी सुयोग्य लोगों का आप्रवासन चाहता है : इसका मुख्य कारण यह बताया जाता है कि भारतीय कुशलकर्मी अधिकतर संसूचना तकनीक (इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी-IT) इत्यादि जैसे क्षेत्रों में काम करने के माहिर हैं। जर्मनी अपने यहां सुयोग्य लोगों का, न कि अधकचरे क़िस्म के अयोग्य लोगों का आप्रवासन चाहता है। आप्रवासियों को 5 साल में ही जर्मनी की नागरिकता भी मिल सकती है, हालांकि भारतीयों के प्रसंग में भारत के क़ानूनों के अनुसार उन्हें तब भारत की नागरिकता छोड़नी पड़ेगी।
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जर्मनी के रोज़गार बाज़ार में तथाकथित अकादमिक 'मिन्ट' (MINT) व्यवसायों के उपयुक्त लोगों की–– अर्थात गणित, कंप्यूटर विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान (नैचुरल साइंस) और प्रौद्योगिकी वाले विषयों के लोगों की अधिक मांग है। जर्मनी मुख्यतः रसायनज्ञ, सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ, आईटी प्रबंधक, मैकेनिकल इंजीनियर, मेडिकल डॉक्टर और नर्सें चाहता है। हालांकि उसे अब बढ़ई, मिस्त्री, प्लंबर या बिजलीसाज़ जैसे कारीगरों तथा ट्रेन, ट्राम, ट्रक और बस ड्रइवरों की भी भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है।
विदेशी कर्मचारियों के औसत वेतन : जर्मन आर्थिक इंस्टीट्यूट ने पूर्णकालिक विदेशी कर्मचारियों के औसत वेतन का विश्लेषण करते समय कई बातों पर ध्यान दिया है। उसने पाया है कि जर्मन नागरिकता वाले कुशलकर्मी औसतन 3,785 यूरो मासिक वेतन पाते हैं। दूसरी ओर भारतीय पासपोर्ट धारियों का औसत वेतन 5,227 यूरो तक पहुंच जाता है। एक यूरो इस समय लगभग 90 भारतीय रुपयों के बराबर है। रूपयों के बराबर है।
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इस संस्थान के अनुसार ऐसा इसलिए है, क्योंकि जर्मनी में प्रचलित सामाजिक सुरक्षा बीमों के अधीन लगभग 80,000 भारतीयों में से कई उच्च वेतन वाले अकादमिक MINT व्यवसायों में काम करते हैं। जर्मनी में 25 से 44 वर्ष की आयु के बीच के सभी पूर्णकालिक नैकरियों वाले भारतीयों में से 33.8 प्रतिशत इसी क्षेत्र में काम करते हैं। उनका औसत मैसिक वेतन 5,724 यूरो है।
सामाजिक सुरक्षा बीमे : एक उचित जीवन स्तर बनाए रखने के लिए जर्मनी में 4 प्रकार के तथाकथित 'सामाजिक सुरक्षा बीमे' अनिवार्य हैं। हर वेतनभोगी को अपने मासिक वेतन का 14.6 प्रतिशत मेडिकल बीमे, 18.6 पेंशन बीमे, 3.6 प्रतिशत वृद्धावस्था या किसी अन्य कारण से ज़रूरी सेवा-सुश्रुसा बीमे और 2.6 प्रतिशत बेरोज़गारी भत्ते के बीमे के तौर पर देना पड़ता है। उनके नियोक्ताओं को भी अपने कर्मचारियों के इन बीमों के लिए कुल मिलाकर 19.425 प्रतिशत अंशदान देना पड़ता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये अनिवार्य बीमे बीमारी, भावी पेंशन, आकस्मिक बेरोज़गारी और किसी दुर्घटना या सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के बाद वृद्धावस्था में तीमारदारी वाले ख़र्च के काम आते हैं।
जर्मन आर्थिक इंस्टीट्यूट ने तुलना के लिए यह भी बताया है कि जर्मनी में रहने और काम करने वाले कुछ अन्य देशों के अकादमिक क़िस्म के लोगों को कितना औसत मासिक वेतन मिलता है। उदाहरण के लिए, जर्मनी में काम करने वाले उसके जर्मन भाषी दक्षिणी पड़ोसी ऑस्ट्रिया वालों को 4,895 यूरो, अमेरिका वालों को 4,862 यूरो, उत्तरी यूरोपीय देशों के लोगों को 4,853 यूरो, आयरलैंड/ब्रिटेन के लोगों को 4,789 यूरो और चीनियों को 4,514 यूरो औसत मासिक वेतन मिलता है।
ट्रेनों, ट्रामों, बसों के ड्राइवरों का अभाव : जर्मनी के पास एक से एक आधुनिक ट्रेनें, ट्रामें और बसे हैं, लेकिन ये सारी सार्वजनिक परिवहन सेवाएं इस समय बुरी तरह अस्तव्यस्त हैं। ड्राइवरों की भारी कमी है। जो ड्राइवर हैं भी, उनमें से 10-20 प्रतिशत प्रायः छुट्टी पर या बीमार रहते हैं। इस कारण सौभाग्य से ही कोई बस, ट्रेन या ट्राम समय पर आती है; वह आजाए, यही सबसे बड़ी बात है।
जर्मनी की केंद्र और राज्य सरकारें तथा नगरपालिकाएं पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की रोकथाम को ध्यान में रखते हुए सड़कों पर नीजी कारों की संख्या घटाना और उनके बदले सार्वजनिक परिवहन की बसें बढ़ाना चाहती हैं। पर ऐसा हो नहीं पा रहा है, क्योंकि बस ड्राइवरों का अकाल है। जर्मनी को बड़ी संख्या में विदेशी बस ड्राइवरों की ज़रूरत है; हो सके तो भारत से भी।
भारतीय बस ड्राइवरों की भी मांग है : उदाहरण के लिए, देश के दक्षिणवर्ती बवेरिया राज्य की एक बस ऑपरेटर कंपनी ने भारतीय बस ड्राइवरों को नियुक्त करना शुरू किया है। इस कंपनी ने, जो बवेरिया की राजधानी म्यूनिक की बस परिवहन सेवा MVV के लिए ठेके पर अपनी बसें चलाती है, 2024 में पंजाब से 35 वर्षीय निर्भय सिंह को बुलाया। जर्मनी में बस कैसे चलानी चाहिए, इसे जानने-सीखने के बाद निर्भय सिंह क़रीब चार महीनों से म्युनिक में रूट नंबर 211 वाली बस चला रहे हैं।
भारतीय ड्राइविंग लाइसेंस जर्मनी सहित पूरे यूरोपीय संघ में मान्य नहीं हैं। यही कारण है कि निर्भय सिंह जैसे प्रशिक्षित और अनुभवी बस ड्राइवरों को भी यूरोपीय संघ के देशों में फिर से एक नया ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त करना पड़ता है। फिर से ड्राइविंग सीखनी और परीक्षा देनी पड़ती है। निर्भाय सिंह ने यह काम यूरोपीय संघ के पूर्वी यूरोपीय देश क्रोएशिया में किया। जर्मनी में काम करने में सक्षम होने के लिए सभी दस्तावेज़ पाने में वहां उन्हें 9 महीने लग गए।
कम ही लोग बस ड्राइवर बनना चाहते हैं : निर्भय सिंह 'एटनहुबर बस कंपनी' द्वारा नियुक्त 20 भारतीयों में से एक हैं। इस कंपनी के मालिक योसेफ़ एटनहुबर का कहना है कि पिछले लगभग दस वर्षों से अच्छे बस ड्राइवर पाना बहुत कठिन हो गया है। वे इसके कई कारण बताते हैं: शिफ्ट प्रणाली के कारण इस नौकरी की छवि ख़राब होती गई है। जर्मनी में बस चालक का लाइसेंस पाना बेहद महंगा हो गया है। लाइसेंस पाने के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए 14,000 यूरो तक देना पड़ सकता है। इसलिए 'बहुत से लोग अपनी सैन्य सेवा के दौरान बस जैसे भारी वाहन चलाने का लाइसेंस प्राप्त करते हैं'।
एटनहुबर की कंपनी अक्सर पूर्वी यूरोप के ड्राइवर भर्ती किया करती थी। लेकिन पूर्वी यूरोप वालों के लिए यह काम करना अब आकर्षक नहीं रह गया है। मूल कारण यह है कि म्यूनिक क्षेत्र में रहना बहुत मंहगा हो गया है। किसी दूसरी जगह प्रति घंटे दो यूरो अधिक वेतन मिलने पर पूर्वी यूरोपीय ड्राइवर वहां चले जाते हैं।
2030 तक लाखों बस ड्राइवरों की कमी : पूरे जर्मनी में स्थानीय सार्वजनिक परिवहन सेवाओं का विस्तार किया जा रहा है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। जहां पहले कोई बस हर एक घंटे पर आती थी, प्रयास है कि अब वहां हर बीस मिनट पर बस आया करे। बसों की इस बढ़ती हुई आवृत्ति के परिणामस्वरूप ड्राइवरों की आवश्यक संख्या भी बढ़ती जा रही है। एक पूर्वानुमान के अनुसार, 2030 तक अकेले बवेरिया राज्य में ही 80,000 बस ड्राइवरों की कमी हो जाएगी। स्टाफ व देखरेख की कमी के कारण बसें पहले से ही बार-बार खराब होती रही हैं, खासकर ग्रामीण इलाकों में।
बिचौलियों की सहायता से बस ड्राइवरों की तलाश : ड्राइवरों की कमी वाली इस समस्या को हल करने के लिए, एटनहुबर ने 2023 में 'हेडहंटर' कहलाने वाले एक बिचौलिये के माध्यम से भारत में प्रशिक्षित कई बस ड्राइवरों को चुना और उन्हें क्रोएशिया ले गए। यूरोपीय संघ के देशों में मान्य ड्राइविंग लाइसेंस पा सकना वहां जर्मनी की अपेक्षा काफी सस्ता पड़ता है। जर्मनी के विपरीत, बुनियादी योग्यता के लिए वहां अंग्रेजी भाषा भी चलती है। लेकिन क्रोएशिया में ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त करने के लिए वहां कम से कम छह महीने तक रहना होता है।
अतः एटनहुबर को भारत से लाए गए ड्राइवरों के लिए वहां रहने की जगह का बंदोबस्त करना पड़ा। इस तरह 20 भारतीय बस चालक अब एटनहुबर के लिए काम कर रहे हैं। 35 वर्षीय निर्भय सिंह कम से कम दो, या फिर शायद पांच साल तक भी जर्मनी में रहने की सोच रहे हैं। एटनहुबर जैसे लोगों के लिए भारतीय बस ड्राइवरों की तलाश अभी लंबे समय तक बनी रहेगी।