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Last Updated : सोमवार, 22 मई 2023 (06:37 IST)

हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के सेनापति कौन थे?

एक तोपची भी थे सेनापति हकीम खां सूर

हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के सेनापति कौन थे? - Maharana Pratap Jayanti 2023
Maharana Pratap Jayanti 2023: महाराणा प्रताप की 475वीं जयंती वर्ष पर शिरोमणि के अछूते पहलुओं को बता रहा हूं, आज की कड़ी में, महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम खां सूर की कहानी जो इतने वीर थे कि तलवार लेकर मरे और तलवार के साथ ही दफनाए गए। उनके एक हमले से अकबर की सेना कई कोस दूर भागने पर मजबूर हो गई थी।
 
महाराणा प्रताप के बहादुर सेनापति हकीम खां सूर के बिना हल्दीघाटी युद्ध का उल्लेख अधूरा है। 18 जून, 1576 की सुबह जब दोनों सेनाएं टकराईं तो प्रताप की ओर से अकबर की सेना को सबसे पहला जवाब हकीम खां सूर के नेतृत्व वाली टुकड़ी ने ही दिया।
 
महज 38 साल के इस युवा अफगानी पठान के नेतृत्व वाली सैन्य टुकड़ी ने अकबर के हरावल पर हमला करके पूरी मुगल सेना में आतंक की लहर दौड़ा दी थी। मुगल सेना की सबसे पहली टुकड़ी का मुखिया राजा लूणकरण आगे बढ़ा तो हकीम खां ने पहाड़ों से निकलकर अप्रत्याशित हमला किया।
 
मुगल सैनिक इस आक्रमण से घबराकर 4-5 कोस तक भयभीत भेड़ों के झुंड की तरह जान बचाकर भागे। यह सिर्फ किस्सागोई की बात नहीं है, अकबर की सेना के एक मुख्य सैनिक अलबदायूनी का लिखा तथ्य है, जो खुद हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के खिलाफ लड़ने के लिए आया था।
 
दीगर है कि हकीम खान सूर, शेरशाह सूरी का वंशज था। शेरशाह सूरी के वंश का होने के कारण भारत के सिंहासन से उसका सम्बन्ध था। मुगलों ने पठानों को सत्ता से बाहर कर भारत के सिंहासन पर अपना अधिकार जमाया था, इससे पठानों की तेजस्विता को धक्का लगा था। इसका बदला लेने के लिए स्थान खोजते-खोजते हकीम खान सूर मेवाड़ पहुंचा और उदयसिंह के अन्तिम समय में मेवाड़ की सेना में भर्ती हो गया।
 
महाराणा प्रताप ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और उसके गुणों को पहचानकर अपनी सेवा में उसको महत्वपूर्ण पद दिया। जनश्रुति है कि हकीम खान के सेनापति बनाए जाने पर उनके धर्म को लेकर कुछ सरदारों ने आपत्ति जतायी थी। सामंतों के अनुसार अकबर बादशाह के हकीम खां सहधर्मी थे इसलिए सरदारों के अपने तर्क भी अपनी जगह जायज थे। 
 
जब यह खबर पठान वीर योद्धा हकीम खान तक पहुंची तो उन्होंने मेवाड़ के भरे दरबार में राणा प्रताप को अपनी वफादारी की दुहाई देकर यह कहा कि राणा जी, शरीर में प्राण रहेंगे तब तक इस पठान के हाथ से तलवार नहीं छूटेगी। इतिहास साक्षी है कि मेवाड़ की आन-बान-शान बचाने के लिए हकीम खान के साथ-साथ उनके कुटुंब के सभी लोग अपने प्राणों का बलिदान, रण भूमि में कर गए।
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