मंगलवार, 5 नवंबर 2024
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स्मृति शेष : 'जबकि अगस्त दस्तक दे रहा था'

स्मृति शेष : 'जबकि अगस्त दस्तक दे रहा था' - sahityakar chandrakant devtale
अकविता की कठिन अराजकता से मोहमुक्त होकर समकालीन हिन्दी कविता में अपनी बेहद खास पहचान बनाने वाले धूमिल और जगूड़ी के साथ-साथ चन्द्रकांत देवताले का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान सुनिश्चित है। 
 
मराठी भाषी परिवार में पैदा होने वाले देवताले का मराठी भाषा के अनेक कविता आंदोलनों से जुड़े रहने का एक विस्तृत कारण यह भी था कि उनकी दलित कवि नामदेव ढसाल, अस्तित्ववादी दिलीप चित्र है और अन्य दलित-पैंथर आंदोलनकारी कवियों-लेखकों से गहरी मित्रता थी।
 
एक ऐसे समय में जबकि 'यकीनों के जंगल धू-धूकर' जल रहे हैं और 'अच्छाइयों का अपहरण' हो रहा है, तब देवतालेजी की गैरहाजिरी अखरती है, क्योंकि 'खुद पर निगरानी के वक्त' में ताकत के यंत्रों द्वारा पेश की जा रही 'उम्मीद' भी अब 'एक मुहावरा है/ गुमराह करने को' 'गांव के गांव बाढ़ की चपेट में थे/ और गांव के गांव बूंद-बूंद पानी के लिए तरस भी रहे थे/ और मेरे यार, संस्कृति और/ लोक कलाओं के/ आयात-निर्यात में इतने मुब्तिला थे/ कि उन्होंने आकाश की तरफ एक बार भी नहीं देखा/ जबकि अगस्त दस्तक दे रहा था/ मैं भांप गया/ कि यह कोरामकोर ऐसा गोलमाल है/ जिसमें रहने से बेहतर है/ किसी भी जगह से कहीं भी कूद जाना'- (आग हर चीज में बताई गई थी)
 
'हरी पत्तियों के गुच्छे नहीं होंगे/ तो मैं कैसे मरूंगा/ मैं घर में पैदा हुआ/ घर पेड़ का सगा था/ गांव में बड़ा हुआ/ गांव खेत-मैदान का सगा था/ पर अब किस तरह रंग बदल रही है दुनिया/ मैं कारखाने में फंसी आवाजों के बिस्तर पर/ नहीं मरूंगा'- (कैसा पानी कैसी हवा) 'कविता से प्रेम बहुत अच्छा/ पर इतना नहीं/ कि मरते वक्त अपनी या किसी की कविता ही याद आए/ और तुम भूल जाओ महत्वपूर्ण सर्वोपरि बातें/ जो तुम्हें याद करनी या दोहरानी है करोड़वीं बार मरते दम'- (निहत्थे ही मारे जाओगे)।
 
उपरोक्त तीनों कविता-उद्धरण प्रख्यात हिन्दी कवि चन्द्रकांत देवताले की कविताओं से प्राप्त किए गए हैं। इन कविता पंक्तियों को आज गंभीरता से पढ़ने के उपरांत ज्ञात होता है कि कवि की 'चैतन्यता का ताप' अपने आसपास और अपने भीतर खदबदा रही मनुष्यता को लेकर किस तरह की मृत्युपरक बेचैनी महसूस कर रहा था? 

 
उनकी यह बेचैनी सत्ता प्राप्ति के लिए की जाती रही किसी भी राजनीतिक बेचैनी से सर्वथा भिन्न तो है ही, बल्कि उस एक 'संवेदनशील छटपटाहट' का भी पता देती है, जो इधर अकारण ही लुप्त होती जा रही है। इस मायने में चन्द्रकांत देवताले हमारे समय की 'चैतन्यता का ताप' रखने वाली 'संवेदनशील छटपटाहट' के कवि थे, 'जबकि अगस्त दस्तक दे रहा था'।
 
14-15 अगस्त की दरमियानी रात 81 बरस की उम्र में चन्द्रकांत देवताले का दिल्ली में निधन हो गया। उनका जन्म 7 नवंबर 1936 को जिला बैतूल, गांव जौलखेड़ा में हुआ था, तब हिटलर युद्ध की तैयारी कर रहा था। 
 
चन्द्रकांत देवताले का पठन-पाठन इंदौर में हुआ था। रचनात्मक विरोध, चैतन्यता का ताप, निर्विकार सहृदयता और संवेदनशील छटपटाहट के साथ 'भाषिक अनुशासन' चन्द्रकांत देवताले की 'कविता के बृहत्तर औजार हैं', जो कि कभी भी, कहीं भी, अपने आसपास, घर-परिवार, प्रेम, विद्रोह सहित मानसिक मित्रों और सामाजिक सरोकारों आदि के लिए सदैव उपलब्ध हैं। 
 
उनकी 'कविता में नारेबाजी' से कहीं अधिक 'जीवन के सौंदर्यबोध' की स्थापना और मुक्त अभिव्यक्ति दिखाई देती है। चन्द्रकांत देवताले की कविता 'बताती' कम है और 'जताती-जगाती' ज्यादा है। इस मायने में चन्द्रकांत देवताले हमारे समय की 'पूर्व निर्धारित विचार प्रणाली से मुक्त' आवेदन देने वाली 'वास्तविक अनुभूति' के कवि थे।
 
यहां स.ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय' की कविता पंक्तियां याद आ जाना जरा भी अस्वाभाविक नहीं है कि 'खोज में जब निकल ही आया, सत्य तो बहुत मिले, एक ही पाया' और समकालीन कविता के सशक्त कवि चन्द्रकांत देवताले ने जो पाया, वह शायद जनपथ से सराबोर जीवन सत्य ही था। वे सरल स्वभाव के विरल व्यक्ति थे और विरल कवि तो थे ही। उनकी कविताओं में वायवीय अथवा ऐन्द्रियता बोध जमकर जाहिर हुआ है। 
 
समयबोध के प्रति भी वे सदैव सजग रहते थे। 'शब्दों की मुक्ति' के लिए भी उनके यहां पर्याप्त समय और पर्याप्त जगह है। वे अपने किसी भी साधारण अनुभव को असाधारण अभिव्यक्ति प्रदान कर देने में सिद्धहस्त थे। उनकी कविताओं में 'जीवन की उत्कट तीव्रता' और 'अनुभव की तीव्र तीक्ष्णता' दिखाई देती है। इस मायने में चन्द्रकांत देवताले हमारे समय की ऐन्द्रियबोध चेतना और अभिव्यक्ति की असाधारणता के भी कवि थे। अन्यथा नहीं है कि 'मुक्तिबोध' की कविताओं की तरह ही चन्द्रकांत देवताले की कविताओं को भी ऐन्द्रियता और असाधारणता के साथ-साथ देखा जाना चाहिए जिसका कि जर्मन दार्शनिक हिगेल ने खुला समर्थन किया है। 
 
आखिर उनकी इन पंक्तियों के अर्थ कहां खोजे जाना चाहिए, जब वे कहते हैं कि 'खूब जाड़ा पड़ेगा और मजा आएगा सोचकर/ हम लबादे ओढ़कर निकले घर से/ पर शीतलहर की खबर ने दगा ही दिया/ चमकता हुआ सूरज था इंदौर के आकाश में, हमें कोट उतारना ही पड़े... और सबसे बड़ा काम किया/ हमने बीयर पीकर/ एक महंगी होटल में खाना खाया...?'
 
चन्द्रकांत देवताले की इस कवि-कीड़ा में वह सब नहीं है जिसे वैचारिक दुराग्रह की अनिवार्यता के लिए शब्दश: और शब्दबद्ध स्वीकार कर लिया गया है। कवि मित्र देवताले की कविताओं में यहां उसी साधारण-असाधारणता के दर्शन होते हैं जिसे 'निजता' और 'साम्यता' कहते हुए जर्मन दार्शनिक हीगेल अपनी संपूर्ण ज्ञानात्मक संवेदना के साथ सहर्ष स्वीकार करते हैं। 
 
कहने की ज्यादा जरूरत नहीं है कि प्रखर मानवतावादी विचारक कार्ल मार्क्स ने भी हीगेल से ही बहुत कुछ सीखा-समझा था। बहुत संभव है कि भावनात्मक और संवेदनात्मक दिशा-निर्देशों के अनुभवबद्ध-अभिव्यक्ति के तार्किक संज्ञान में कुछेक 'ज्ञानात्मक स्व' अधिक विस्तार से मुखरता पा गए हों, लेकिन फिर कविता की उस असाधारणता को कैसे पाया जा सकता है, जो साधारण जीवन को देखने-समझने और जीने की उज्ज्वल-ज्वलंतता से आती है? 
 
क्या चन्द्रकांत देवताले की 'बौद्धिक अनुभूति' में भावनात्मक और संवेदनात्मक दिशा-निर्देशों का एक चुलबुल उत्सवप्रिय नागरिक भी नहीं ढूंढा जाना चाहिए? क्या तब कविता की उस दशा और दिशा का पता लगाया जाना थोड़ा अधिक सरल-स्वाभाविक नहीं हो जाता है जिसमें कोई भी कवि जीवनभर अपने लिए मुट्ठीभर जगह ढूंढने की स्वाभाविक उधेड़बुन में लगा रहता है? यह कविता का अवमूल्यन नहीं, बल्कि अर्थ विस्तार की एक अवधारणा ही अधिक है। इस मायने में चन्द्रकांत देवताले 'अर्थ विस्तार' की 'अवधारणा' के एक सक्षम, सजग व समर्थ कवि थे।
 
अकविता आंदोलन के अराजक एवं भयंकर यौनवादी देहवादी स्कूल से अपनी कविता की प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा और कविता संसार का सामान्य अधिग्रहण करने वाले चन्द्रकांत देवताले ने कालांतर में प्रगतिशीलता को अपना केंद्रीय विचार बना लिया था किंतु उन्होंने अकविता और प्रगतिशीलता दोनों को ही प्रश्नांकित भी किया था। इसी बीच वे जटिल-कठिन होते हुए अपनी कविता के 'उत्स' को निरंतर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से भी जोड़ते चले गए। 
 
उलझनें और अंतरविरोध किस कवि में नहीं होते हैं? जीवन की उलझनें और सामाजिक अंतरविरोध का खुलासा होने पर ही कविताओं के मर्म और अर्थ को बेहतर समझा जा सकता है। चन्द्रकांत देवताले किसी भी निरंकुश सत्ता के विरुद्ध, अपनी तमाम कमजोरियों के साथ अपनी कविता को ही अपना सार्थक हथियार बनाते हैं। वे अतीत की प्रश्नोत्तरी न रचते हुए वर्तमान के व्याकरण का मानवीय सरलता व सहजता से पोस्टमॉर्टम करते थे। उन्होंने अपनी कविताओं में शब्दों के ताप का जो महापर्व रचा था, वह अनुकरणीय है।
 
सामान्य बातचीत और फोन चर्चाओं में उनकी प्रतिबद्धता तथा सक्रियता प्राय: देखी जाती रही है। वे बड़े कद के महत्वपूर्ण किंतु परिवर्तनशील कवि थे। वे पूंजीवादी साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को भिन्न अवधारणाएं नहीं मानते थे। देश, काल और परिस्थिति के मुताबिक उनकी कविताओं में राजनीतिक हस्तक्षेप की सघनता का विचार विस्तार साफ-साफ देखा जा सकता है। चर्चित-अचर्चित की बाजारवादी मूल्यपरकता के स्वभावगत आश्रय से वे नितांत मुक्त थे, तभी तो 'असहिष्णुता' के मुद्दे पर उन्होंने अपना 'साहित्य अकादमी सम्मान' लौटाने से खुद को अलग कर लिया था। 
 
चन्द्रकांत देवताले 'महत्वाकांक्षी कवि' से कुछ अधिक 'आलोकांक्षी कवि' थे। दु:ख, दर्द, प्रेम, वात्सल्य, संघर्ष और विरोधाभासी विडंबनाएं उनकी कविताओं में बेहद ही सहज हैं। शिकायत बनी रहेगी कि जब उन्हें 'किसी भी जगह से कहीं भी कूद जाना था', तो इंदौर या उज्जैन से दिल्ली कैसे बेहतर जगह हो गई, 'जबकि अगस्त दस्तक दे रहा था?' दिल्ली का अगस्त चन्द्रकांत देवताले को वहां ले गया, जहां से वापसी असंभव है। किंतु वे अपनी कविताओं के साथ हमारी स्मृतियों में सदैव बने रहेंगे। 
 
अगस्त का आना-जाना चलता रहेगा, तो कवियों का आना-जाना भी चलता रहेगा। क्रूरता विरुद्ध कायरता नहीं, बल्कि कविता ही एक कारगर हथियार हो सकती है। शायद कवि चन्द्रकांत देवताले का यही मुख्य कविता-विचार हमारे काम आएगा। कविता में सब है, सब में कविता है। कविता में जीवन है, जीवन में कविता है और कविता ही जीवन है, जीवन ही कविता है। वे अपनी भाषा के मैदान में बेहद मासूमियत के साथ आत्मा की खिड़की खोलते थे।
 
चन्द्रकांत देवताले साठोत्तरी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में शुमार किए जाते हैं। सन् 60 के दशक में अकविता का दौर था तब देवताले ने अकविता की अराजकता से अपनी कविताओं का प्रारंभिक रुझान एवं आकार लेने के बाद जल्द ही अपनी नई दिशा ले ली। वे एक ऐसी कविता की तरफ बेधड़क चल पड़े, जहां प्रेम, दांपत्य, समाज, घर, परिवार, मां और प्रतिबद्धता से परिपूर्ण राजनीतिक समझ व प्रगतिशील आशय भरे पड़े थे। 
 
हिन्दी में एमए करने के बाद उन्होंने अध्यापन को चुना और 'मुक्तिबोध' पर नए अर्थ खोजने वाली पीएचडी भी की किंतु उन्हें जल्द ही ये आभास हो गया कि ये दुनिया सिर्फ आपकी ही नहीं है, यहां 'लकड़बग्घे' भी रहते हैं।
 
मध्यप्रदेश शिखर सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान और साहित्य अकादमी सम्मान जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित देवतालेजी का कविता संसार उनकी दर्जनभर से अधिक कविता पुस्तकों में सुरक्षित है। हिन्दी के कालजयी कवि गजानन माधव 'मुक्तिबोध' पर लिखी गई उनकी 2 पुस्तकें विशेषत: याद रखी जाने वाली कृतियां हैं। 
 
उन्होंने मराठी से तुकाराम के अभंगों और दिलीप चित्रे की कविताओं के हिन्दी अनुवाद पर कठोर श्रमसाध्य, ज्ञानसाध्य काम किया था जिसे आधुनिक हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर माना गया है। वे नई कविता में नए परिवर्तनों और नई अवधारणाओं के एक ऐसे कवि थे जिन्हें प्रेमचंद सृजन पीठ के निदेशक होने का गौरव भी मिला था किंतु इन सबका उन्हें कभी कोई दंभ नहीं था बल्कि इन सब चीजों को अपने परिचय से वे अलग ही रखते थे।
 
उनकी कविताओं में आधुनिक चुनौतियों पर राजनीतिक विमर्श तो है ही किंतु वे दलितों, वंचितों, शोषितों और आदिवासी जीवन की चिंताओं को भी अपनी कविताओं के केंद्र में ले आते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि 'स्त्रियों ने मुझे मनुष्य बना दिया, वर्ना मैं बड़ा नामुराद इंसान था'। वे साधारण आदमी की साधारण संवेदनाओं और साधारण चिंताओं के असाधारण कवि थे जिसमें आज भी 'भूखंड तप रहा है' और 'लकड़बग्घा हंस रहा है!'
 
जिस तरह से मुक्तिबोध की 'अंधेरे में', राजकमल चौधरी की 'मुक्ति प्रसंग', धूमिल की 'मोचीराम', अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' और निराला की 'राम की शक्तिपूजा' आदि रचनाएं अमर व अद्वितीय कृतियां हैं, ठीक उसी तरह से 'लकड़बग्घा हंस रहा है' के लिए देवताले भी याद आते रहेंगे जिसमें वे कहते हैं कि 'इस अंधेरी रात की नब्ज को थामे हुए/ कह रहा हूं/ यह तीमारदार नहीं, हत्यारे हैं/ और वह आवाज/ खाने की मेज पर/ बच्चों की नहीं/ लकड़बग्घे की हंसी है/ सुनो.../ यह दहशत तो है/ चुनौती भी/ लकड़बग्घा हंस रहा है'।
 
स्वतंत्रता- वर्ष सन् उन्नीस सौ सैंतालीस से लेकर दो हजार सत्रह तक का 'न्यू इंडिया' आ जाने के बाद भी हैरानी का विषय है कि चन्द्रकांत देवताले का 'लकड़बग्घा हंस रहा है'। 
 
नेहरूयुगीन महास्वप्न से मोहभंग का साक्षात्कार करने वाली एक समूची पीढ़ी बदल गई। 
देश और दुनिया ने कई-कई राजनीतिक परिवर्तनों से साक्षात्कार कर लिया। ठेठ राजनीति ही नहीं, बल्कि समाज और सामाजिक मूल्यों में भी आमूलचूल मनुष्य विरोधी परिवर्तनों ने 'हैरतअंगेज जगह' हथिया ली और ईमानदारी आदि जैसे संवेदनशील मानवीय मूल्यों को अपदस्थ करते हुए शिखर पर शिकारियों ने अतिक्रमण कर लिया। 
 
किसानों की आत्महत्या और स्त्री देह से, जैसी पाशविकता, आजादी के बाद बढ़ती गई, वह 'दुर्लभ शर्म' का विषय बन गई। तभी तकरीबन 40 बरस पहले लिखी गई चन्द्रकांत देवताले की 'औरत' कविता आज भी अपनी प्रासंगिकता में स्त्री विमर्श के नए अर्थ और नए द्वार खोलती नजर आती है, तो क्यों? चेहरे बदल गए, नेता-अभिनेता बदल गए, रंगमंच के आकार-प्रकार बदल गए, पार्टियों के डंडे-झंडे बदल गए, लेकिन चरित्र नहीं बदला। और वक्त का कमाल देखिए कि आज भी अपनी अंतरशक्ति से ओतप्रोत 'लकड़बगघा हंस रहा है'।
 
चन्द्रकांत देवताले तथाकथित संभ्रांतता से मुक्त हमेशा आग, गुस्से और नीडरता से भरे रहते थे। यही उनके व्यक्तित्व की मासूमियतभरी खास पहचान बन गई थी 'जबकि अगस्त दस्तक दे रहा था'।