स्मृति शेष : भीतर से छोटे बच्चे की तरह थे नामवर सिंह जी
नामवर सिंह जी का जाना हिन्दी की आलोचना परम्परा के बहुत बड़े स्तम्भ का ढह जाना है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. भगवत शरण उपाध्याय और हजारी प्रसाद दि्वेदी, फणीश्वर नाथ रेणु उसी पीढ़ी की परम्परा के एक आख़री बड़े भारी निबन्धकार, आलोचक, समीक्षक और अपने आरम्भिक दिनों में बड़े भारी कवि रहे हैं नामवर सिंह और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे एक ख्यातनाम वक्ता भी थे।
आचार्य हजारी प्रसाद दि्वेदी के प्रिय शिष्य। मैं कुछ अन्तरंग प्रसंगों से भी हिन्दी जगत को परिचित कराऊं जो बहुत कम लोग जानते हैं... मेरे पास एक पत्र है जो आचार्य हजारी प्रसाद दि्वेदी जी ने व्यास जी को लिखा था, मेरा एक शिष्य है जो मार्क्सवाद के चपेटे में आ कर अपने रोजगार से अपनी रोजी-रोटी से परेशान घुम रहे हैं। आप सुमन जी से कह कर विक्रम में कहीं कोई व्यवस्था करें।
सुमन जी ने इस पर संस्मरण भी लिखा है ‘ऐसे हैं अपने नामवर’ डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने छापा है। सुमन जी बताते थे, उन्होंने लिखा भी है कि जोधपुर यूनिवर्सिटी में फिर उन्होंने नामवर सिंह जी को सीधे हिन्दी के विभागाध्यक्ष के रूप में सलेक्ट किया।
व्यास जी के कहने पर तो यह एक महत्वपूर्ण घटना जो बहुत कम लोग जानते हैं कि नामवर जी की पहली नियुक्ति एक बड़े पद पर हुई है। नामवर जी से मेरा बहुत अंतरंग और गहरा संबंध तो नहीं था लेकिन बहुत आत्मीयता का संबंध रहा है और बहुत लम्बे समय तक एक दूरी थी हम दोनों के बीच में जब तक उन्हें नहीं मालूम चला कि मैं पं. सूर्यनारायण जी का बेटा हूं पर बाद में उन्हें जब ज्ञात हुआ मैं दूरदर्शन में वरिष्ठ अधिकारी हूं हमने एक प्रोग्राम शुरू किया उनके साथ मिल कर ‘सुबह किताबों की समीक्षा का’... वे इतने सरल स्वभाव के थे की एक रोज मेरी ही एक किताब की समीक्षा करने उठाकर ले गये ‘’आंखों देखा अमेरिका यात्रा संस्मरण’’ पर उन्होंने मुझसे पूछा की अगर मैं आप ही के प्रोग्राम में आप ही की किताब की समीक्षा करूं तो आपको बुरा तो नहीं लगेगा?
क्यों नहीं लगेगा मैं इसको पसन्द नहीं करता कि दूरदर्शन के कार्यक्रम में मेरी ही किताब की समीक्षा हो... लोग समझेंगे मैंने यह नामवर जी से करवाया और मैं इन सब आलोचनाओं, समीक्षाओं से दूर रहता हूं। मुझे तो गुरुवर आपका स्नेह मिलता रहा हैं वह अकिंचन, अकृत्रिम और अकारण है अहैतुक है।
कई बार हमारी-उनकी प्रेस क्लब में खूब मीटिंग हुआ करती थी और मीटिंग लंबी चला करती...हिन्दी साहित्य की विभिन्न विषय पर चर्चा जब शनै: शनै. मेरे ज्ञान पर उनको आनंद आने लगा की यह तो अपने आप में प्राचीन विश्वकोष है...यदि वीणा, विक्रम, हंस, चांद और मालव-मयूर और जितनी पुरानी पत्रिकाएं थी हिन्दी की अजन्ता, कल्पना उन सब की फाइलों से मैं बचपन में ‘भारती भवन’ में गुज़रा था तो नामवर सिंह के आरम्भिक लेखन से ले कर के उस युग के तमाम लेखकों की जो चर्चा वो मुझसे सुनते खासतौर से ‘उग्र’ के बारे में सुनने में उनको बड़ा आनंद आता था।
वो बहुत सहज सरल मनुष्य थे अन्दर से एक बच्चे की तरह और बाहर से दिखाई देने वाले कठोर नारियल की तरह... आलोचक के रूप में उनका जो रूप था वो लोगों को डराता था वे बड़े भारी मुर्ति भंजन भी थे और कभी भी कुछ भी कह कर के एक बडा भारी शिगुफा भी खड़ा कर देने के माहिर उस्ताद थे लेकिन इस दौर में बहुत कम लोग हैं जो उनकी तरह खूब पढ़ने वाले हो खूब गुनने वाले हो और नई से नई पीढ़ी के साथ संवाद बनाए रखने वाले हो। नामवर का जाना निसंदेह हिन्दी के इतिहास का एक आखरी बड़ा पन्ना और बड़े स्तम्भ का ढह जाना है। मैं उनको हार्दिक नमन करता हूं... कई बार वो मेरे कक्ष में पधारे और कई बार मेरे साथ भोजन भी किया। यह सब स्मृतियां आंखों को रह-रह कर याद आती हैं, बहुत याद आएंगें नामवर सिंह।