बंदूक का घोड़ा दबाना बरसाना शब्द चिंगारियों जैसे छूरे जैसी चलाना जुबान ये सब अब नहीं रहा मेरे बूते का
सब तरफ तो वही का वही फरेब, झूठ और पाखंड नए-नए रूप श्रृंगार में कैसे क्या करूँ ? समझ नहीं पा रहा किस बात पर बहा दूँ खून अपना खामोशी की किस चट्टान पर अपने आँसू
थक गया हूँ शोक-सभाओं में शामिल हो-होकर जहाँ भी किए बाउंस हो रहे फर्जी चेक की तरह मेरे हस्ताक्षर
शतरंज की जिस बिसात पर रहा कभी वजीर, कभी हाथी-घोड़ा कभी प्यादा सबसे छोटा पर कमजोर कतई नहीं वही घिरी लपटों के बवंडर में किसी भी तरफ से पानी की बौछार तक नहीं और मैं काठ का प्यादा मेरे साथ सच किंतु कह नहीं पा रहा काबिज जो भी जहाँ, वही हत्यारा और कहता भी हूँ चीख-चीखकर तो कोई सुनता ही नहीं
अव्वल तो नहीं आएगा ऐसा मौका फिर भी कभी कोई पूछ ले भूले-भटके तो तुम ही बता देना - वह कायर नहीं था पर जैसा हुआ अंत वह कायर सिद्ध हुआ