नुपूर प्रणय वागले
तलाक तलाक तलाक !
कानों में जैसे मेरे डाल दिया गया हो तप्त लावा!
काले गहरे अंधकार सा जिस्म का पहनावा तो केवल एक संकेत था,
असली जिल्लत, रूह तक उतरता दर्द, तो काफी था मुझे गुलाम साबित करने के लिए।
क्योंकि ये तीन लफ्ज़ सुन मैं हमेंशा सोचती कि
प्यार,इश्क,मोहबबतें, क्या ये सारे ख्वाब ही हैं? तिलिस्मी अल्फाज, कि कभी बदलते हैं ये भी हकीकतों में ?
या कि ये भी केवल एक दिखावा,एक छल हैं तुम्हारे होने की तरह।
हर पल उधार की सांसें जीने को मजबूर मेरा यह तन,और सर पर लटकती तलवार के साये में छटपटाता मेरा मन।
और जिंदगी ही क्या,
मेरी बनाई सब्जी में कोई कमी,
कोई गलती हो तो,उसी सब्जी के तेजपान को तरह
मुझे अपनी जिंदगी से निकाल फेंकने के अधिकार का रौब दिखाते तुम।
या कि अपनी मर्दानगी दिखाने,
अपने मजहब का वास्ता देकर बच्चा पैदा करने वाला एक जिस्म,
जिसमें एक कतरा मोहब्बत नहीं।
घुट रहा था मेरा मन,कठपुतली थी तुम्हारे इशारों की, क्योंकि उसकी डोर तुम्हारे हाथों में थी अब तक।
तलाक तलाक तलाक
लेकिन बस
अब मैं लडूंगी,और जीतूंगी अपनी स्वाभिमान की,सम्मान की लड़ाई
और पूरे करूंगी अपने ख्वाब,अपनी हसरतें,ख्वाहिशें अपनी
और तुम
अब तुम सुनोगे मेरी आजाद रूह से निकली गूंज
गूंज जो तुम्हारे कानों में डालेगी गर्म लावा और
तुम्हारे मुंह पर एक तमाचा चटाक चटाक चटाक...