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संक्रांति पर कविता : पर्व ऐसा मनाए

आओ ऐसी पतंग उड़ाएं
सरहद के सब भेद मिटाएं
चाहत रहे न कोई बाकी
उत्सव ऐसा आज मनाएं
आओ ऐसी..................
 
अपनी अपनी पतंग उड़ाएं
कभी न कोई पैंच लड़ाएं
आसमान का रंग दे दामन
प्रेम प्रीत सब पर बरसाएं
आओ ऐसी...............
 
भाईचारे की गुहार लगाएं
प्यार लुटाए हिंसा मिटाएं
होगी शांति वैश्विक रूप से
स्नेह की ऐसा मांझा बनाएं
आओ ऐसी..................
 
हद की उचाँई पर ले जाएं
कटने का न भय सताएं
उम्मीदों की चरखी बनाकर
गगन जमी का मेल कराएं
आओऐसी...............
 
उलझे रिश्तों के सुलझाएं
पर्व ऐसा कुछ कर जाएं
बैर भाव सब पीछे छूटे
बीता सतयुग फिर आ जाएं
आओ ऐसी..................
 
स्वच्छ आकाश में इसे लहराएं
मुरगे की कलगी पहनाएं
इन्द्रधनुष के रंगों में मिलकर
दो रंगी दुनियां को सजाएं
आओ ऐसी..................
 
मजंर ऐसा नभ पर छाए
पतंग डोर संग रास रचाएं
"मधु"मिठास रिश्तों में भरकर
तिल गुड़ जैसे सब मिल जाएं
आओ ऐसी..................
******
            ||मधु टाक||

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