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देश की बिगड़ती फ़िजा पर कविता : ओ देशद्रोही विघटनवादियों...!

देश की बिगड़ती फ़िजा पर कविता : ओ देशद्रोही विघटनवादियों...! - poem on India
मत बिगाड़ो फिजा हिन्दुस्तान की,
जातीय टकरावों को मत हवा दो रे!
अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए,
भारत की उच्च अस्मिता को यों मत
(नफरत के) गंदले पानी में बहा दो रे।।1।।
 
मत रोको रे विकास के पहियों को यों,
सामाजिक वैमनस्य का जहर यों मत घोलो रे!
भारत के विघटन की दूषित देशद्रोही जुबान
यों बेशर्मी से, बेधड़क मत बोलो रे।।2।।
 
नहीं है देश के हित में तुम्हारा अब तक कोई अंशदान, 
क्योंकि वह तो होती है बहुत बड़ी साधना।
तुमने तो फ़िजा बिगाड़कर उभरने का आसान रास्ता, 
अपनी स्वार्थभरी (उद्दंड) नीच चतुराई से ही है चुना।।3।।
 
देश के युवा तुमसे अधिक संवेदनशील हैं, जागरूक हैं।
तुम्हारे बरग़लाने में आएं, वे न इतने नादान होंगे।
तुम्हारे पिछलग्गू होंगे वे ही अल्पशिक्षित, विवेकहीन, 
जो अपने भविष्य की सही राह से अनजान होंगे।।4।।
 
देश का आमजन भी है जागरूक, सतर्क, 
उसने प्रजातंत्र की सही रूह पहचानी है।
तुम जैसे निहित स्वार्थों वाले फ़िरकों की असली सीरत, 
उनके लिए अब बिलकुल नहीं अनजानी है।।5।।
 
इसलिए तुमको मिलेगी क्षणिक पहचान/उछाल, 
मीडिया पर भी तुम्हारे विज्ञापनी जलवे होंगे।
पर पानी के बुलबुलों-सी यह क्षणभंगुर शोहरत होगी, 
शाश्वत तो देश के उत्थान के ही सिलसिले होंगे।।6।।