प्राकृतिक आपदाओं पर हाइकु काव्य रचना...
हाइकु 98
अकाल
सूखता जिस्म
धरती की दरारें
हत चेतन।
झुलसी दूब
पानी को निहारते
सूखे नयन।
ठूंठ से वृक्ष
झरते हैं परिंदे
पत्तों के जैसे।
गिद्ध की आंखें
जमीन पर बिछीं
वीभत्स लाशें।
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बाढ़
एक सैलाब
बहाकर ले गया
सारे सपने।
उफनी नदी
डूबते-उतराते
सारे कचरे।
मन की बाढ़
शरीर में भूकंप
कौन बचाए।
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तूफान
उठा तूफान
दिल के घरौंदे को
उड़ा ले गया।
तेज तूफान
दोहरे होते वृक्ष
उखड़े नहीं।
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आंधी
मन की आंधी
कल्पना के बादल
बरसा प्रेम।
प्रेम की आंधी
उड़ाकर ले जाती
मन की गर्द।
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प्रलय
प्रलय पल
दे रहा है दस्तक
झुके मस्तक।
सात सागर
मिलेंगे परस्पर
प्रलय मीत।
प्राण कंपित
मृत्यु महासंगीत
प्रलय गीत।
धरा अम्बर
प्रणय परस्पर
प्रलय संग।
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भूकंप
भूचाल आया
सब डगमगाया
ध्वस्त धरती।
कुछ सेकंड
मानव विकास का
टूटा घमंड।
घमंड तनीं
उत्तुंग इमारतें
धूल में मिलीं।
जिंदा दफन
कितने बेगुनाह
सिर्फ कराह।
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सुनामी
एक सुनामी
दानव समंदर
खूनी मंजर।
समुद्र तट
सुनामी का श्मशान
सर्वत्र मृत्यु।
तमाम लाशें
तटों पर बिखरीं
नोंचते गिद्ध।
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ज्वालामुखी
मन भीतर
सुलगा ज्वालामुखी
क्रोध का लावा।
धुएं की गर्द
बहता हुआ लावा
मौत का सांप।