हिन्दी कविता : निस्तब्ध
पुष्पा परजिया
निशब्द, निशांत, नीरव, अंधकार की निशा में
कुछ शब्द बनकर मन में आ जाए,
जब हृदय की इस सृष्टि पर
एक विहंगम दृष्टि कर जाए
भीगी पलकें लिए नैनों में रैना निकल जाए
विचार-पुष्प पल्लवित हो
मन को मगन कर जाए
दूर गगन छाई तारों की लड़ी
जो रह-रह कर मन को ललचाए
ललक उठे है एक मन में मेरे
बचपन का भोलापन
फिर से मिल जाए
मीठे सपने, मीठी बातें,
था मीठा जीवन तबका
क्लेश-कलुष, बर्बरता का
न था कोई स्थान वहां
थे निर्मल, निर्लिप्त द्वंदों से,
छल का नामो निशां न था
निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे ,
तू शांति के दीप जला, इंसा जूझ रहा
जीवन से हर पल उसको
तू ढांढस बंधवा निर्मल कर्मी बनकर
इंसा के जीवन को
फिर से बचपन दे दे जरा