होली पर कविता : होली खेलन चली मैं मतवाली
-डॉ. निरुपमा नागर
रंगों से सराबोर हो
हो गई मैं तो बावरी।
कितने रंग देखे
लाल, काले, हरे, पीले,
देख न सकी मैं रंगों के पीछे की होली
होली खेलन चली मैं मतवाली।
रंग रहे सब एक-दूजे को
आरोपों की चलाकर पिचकारी
प्यार का रंग चलाकर
करेंगे क्या मन कटुता से खाली
होली खेलन चली मैं मतवाली।
होली के रंग में देखो
भूल गए सब उस मनु को
जिसकी जेब है खाली
करता है वह साहब के कुत्ते की रखवाली
होली खेलन चली मैं मतवाली।
होली का रंग डालो ऐसे
सबकी शोभा हो निराली
रंगों का यह त्योहार
खुशियों से भर दे सबकी झोली
होली खेलन चली मैं मतवाली।