शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025
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कविता : होली के मुक्तक

फागुन
धक-धक-सी महकी सांसें हैं, मदहोशियां छाईं, 
झूमे पलाश मदमस्त सा, जामुनिया भी बौराई।
मन-मयूरा नाचे ता धिक, आज पी के भंग तरंग,
अंबर है लाल, गाल गुलाल, मस्तानियां छाईं।
 
मनमोहना ने रंग दी, मोरी ये चुनरिया,
फागुन के जैसी प्रीत भरे सारी उमरिया।
घूंघट के पट से देखूं, होली का ये धमाल,
बलखाता सा यौवन है, बहकी है गुजरिया।
 
नैना तुझे ही ढूंढ रहे, आ मेरे हमजोली,
छुप-छुपके अब यूं ना कर, हमसे ये ठिठोली।
लेकर के आई प्रीत के, रंगों से भरा थाल,
मल दे गुलाल रंग दे गुलाल, आ खेल ले होली।