हिन्दी कविता : लगने लगता है तुम बैठे हो अदृश्य से मेरी साथ की सीट पर
लगने लगता हैलगने लगता है
तुम बैठे हो अदृश्य से
मेरी साथ की सीट पर
जब बैठ जाती हूं
मैं ड्राइविंग सीट पर
लगने लगता है
तुम्हें नहीं पसंद है
गियरलेस गाड़ी चलाना
तुम्हारे लिए तो
गियरलेस गाड़ियां बस
औरतों के लिए बनी हैं
मर्द तो गियर वाली
गाडियां चलाया करते हैं
एक सौ बीस की स्पीड में
लगने लगता है
जैसे मेरा उल्टा हाथ
पकड़ कर हंसते हो
और कहते हो मुझे
गियर तो बदलने नहीं
फिर इस हाथ से
कुछ काम ही कर लो
पिरोकर मेरी उंगलियां
अपनी उंगलियों में
हल्के से दबा देते हो
जैसे कह रहे हो
मदद कर रहा हूं
ड्राइविंग में तुम्हारी
लगने लगता है
कहते हो जैसे मुझसे
डिपर क्यों नहीं देतीं
तुम भुल्लकड़ हो
सच तुम औरतें भी
कभी नहीं कर सकतीं
ढंग की ड्राइविंग
लगने लगता है
मैं कह रही हूं तुमसे
जोर से हंसकर जैसे
तो खुद चला लो ना
सुनती हूं एक अना
मर्द के दंभ की
नहीं चलाता मैं ये
औरतों वाली गाड़ी
बिना गियर की
और तभी आ जाती हूं
आज के मकाम पर
मुस्कुराकर देखती हूं
साथ वाली सीट पर
दिख जाते हो तुम
एक अदृश्य लिबास में
जहां भी में जाऊंगी
साथ चलोगे जैसे
अनंत तक
लगने लगता है