स्मृतियां भी मैं, जंगल भी मेरे ही भीतर!
नहीं टूटता कुछ भी एक बार में
न अखरोट, न नारियल,
न पहाड़ या दिल पिता का!
दरकती है सबसे पहले
कोई कमजोर चट्टान
देती है संकेत ढहने का
पूरा का पूरा पहाड़!
हवा का एक तेज झोंका
या आकाश से टूटता पानी
बहा ले जाता है चट्टान अपने साथ
छूट जाती हैं अंगुलियां जैसे
भीड़ में हाथों से पिता के!
नहीं दिखते बहते हुए आंसू
टूटता है जब कोई कोना मन का
निकल जाते हैं तभी पिता बाहर
कहकर टहलने का
दूर, बहुत दूर कहीं-
स्मृतियों के घने जंगल में!