हिन्दी कविता : क्या मैं स्त्री हूं
कभी- कभी अचानक
याद आता है
क्या मैं स्त्री हूं?
कहां गया मेरा स्त्रीत्व?
हर वक़्त, हर ओर
पुरुष से बराबरी की
करती रहती हूं होड़
आईने में जब देखती हूं
अक्स पूछता है
क्या मैं स्त्री हूं?
हां, मैं स्त्री हूं....
सिर्फ साथ रहने के लिए
दुत्कारों के साथ रहती
बांध कर रखने के लिए
ताने हूं रोज़ सहती
बिखरते रिश्ते सहेजना
मुझे ही है क्योंकि
मैं स्त्री हूं
इन सबके बीच भी
परिवार को बढ़ाती हूं
चाहे खुद थक के आऊं
बच्चों को भी पढ़ाती हूं
जो सबकी पसंद है
वही अब मेरी है
मैं स्त्री हूं
अलसुबह से देर रात
मशीन सी भागती हूं
मरे अस्तित्व के साथ
आधी रात जागती हूं
मर्दानी सोच के बीच
अपना वजूद बांटती हूं
आसमान ताकती हुई
खुद से पूछती हूं
क्या मैं स्त्री हूं?