डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
हर भाषा की अपनी एक अलग पहचान होती है। भाषा की यह पहचान इस भाषा के बोलने वालों की सांस्कृतिक परंपराओं, देशकाल-वातावरण, परिवेशजन्य विशेषताओं, जीवनशैली, रुचियों, चिंतन-प्रक्रिया आदि से निर्मित होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो हर भाषा का अपना एक अलग मिज़ाज होता है, अपनी एक अलग प्रकृति होती है, जिसे दूसरी भाषा में ढालना या फिर अनुवादित करना असंभव नहीं तो कठिन जरूर होता।
अंग्रेजी का एक शब्द है ‘स्कूटर’। चूंकि इस दुपहिये वाहन का आविष्कार हमने नहीं किया, अतः इससे जुड़ा हर शब्द जैसे : टायर, पंक्चर, सीट, हैंडल, गियर, ट्यूब आदि को अपने इसी रूप में ग्रहण करना और बोलना हमारी विवशता ही नहीं हमारी समझदारी भी कहलाएगी।
इन शब्दों के बदले बुद्धिबल से तैयार किए संस्कृत के तत्सम शब्दों की झड़ी लगाना, स्थिति को हास्यास्पद बनाना है। आज हर शिक्षित/अर्धशिक्षित/अशिक्षित की जुबां पर ये शब्द सध-से गए हैं। स्टेशन, सिनेमा, बल्ब, पावर, मीटर, पाइप आदि जाने और कितने सैकड़ों शब्द हैं जो अंग्रेजी भाषा के हैं मगर हम इन्हें अपनी भाषा के शब्द समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं।
समाज की सांस्कृतिक परंपराओं का भाषा के निर्माण में महती भूमिका रहती है। हिंदी का एक शब्द लीजिए : खडाऊं। अंग्रेजी में इसे क्या कहेंगे? वुडन स्लीपर? जलेबी को राउंड-राउंड स्वीट्स? सूतक को अनहोली टाइम? च्यवनप्राश को च्वन्ज टॉनिक? आदि-आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि हर भाषा के शब्दों की चूंकि अपनी निजी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और परंपराएं होती हैं, अतः उन्हें दूसरी भाषा में हू-ब-हू उसी रूप में ढालने में या उनका समतुल्य शब्द तलाश करने में बड़ी दिक्कत रहती है। अतः ऐसे शब्दों को उनके मूल रूप में स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है।
टेक्निकल को तकनीकी बनाकर हमने उसे लोकप्रिय कर दिया। रिपोर्ट को रपट किया। अलेक्जेंडर सिकंदर बना। एरिस्टोटल अरस्तू हो गया और रिक्रूट, रंगरूट में बदल गया। कई बार समाज भी शब्द गढ़ने का काम करता है। जैसे मोबाइल को चलितवार्ता और टेलीफोन को दूरभाष भी कहा जाता है। यों, भाषाविद् प्रयास कर रहे होंगे कि इन शब्दों के लिए कोई सटीक शब्द हिंदी में उपलब्ध हो जाए, मगर जब तक इनके लिए कोई सरल शब्द निर्मित नहीं होते हैं, तब तक मोबाइल/टेलेफोन को ही गोद लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। हिंदी की तकनीकी, वैज्ञानिक और विधिक शब्दावली को समृद्ध करने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सरल अनुवाद की संस्कृति को प्रोत्साहित कर मूल भाषा के ग्राह्य शब्दों को भी स्वीकार करते चलें।
अनुवाद एक पुल है, जो दो दिलों को, दो भाषिक संस्कृतियों को जोड़ देता है। अनुवाद के सहारे ही विदेशी या स्वदेशी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आ सकते हैं और नया संस्कार ग्रहण कर सकते हैं। कोई भाषा तभी समृद्ध होती है जब वह अन्य भाषाओं के शब्द भी ग्रहण करती चले। हिंदी भाषा में आकर अंगरेजी, उर्दू-फारसी अथवा अन्य भाषाओं के कुछ शब्द समरस होते चलें, तो यह खुशी की बात है और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। बहुत पहले मेरे एक मित्र ने अपने पत्र के अंत में मुझे लिखा था : “आशा है आप चंगे होंगे?” आप आनंदपूर्वक/सानंद या सकुशल होंगे के बदले पंजाबी शब्द ‘चंगे’ का प्रयोग तब मुझे बेहद अच्छा लगा था ।
दरअसल, अनुवाद वह सेतु हैं जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत से जोड़ता है। भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को निखारने अथवा दर्शन करने के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। अनुवाद द्वारा हम भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।
आज जब वैश्वीकरण की अवधारणा उत्तरोत्तर बलवती होती जा रही है, सूचना प्रौद्योगिकी ने व्यक्ति के दैनंदिन जीवन को एकदूसरे के निकट लाकर खड़ा कर दिया है, क्षितिजों तक फैली दूरियां सिमट गई हैं, ऐसे में अनुवाद की महिमा और उपयोग की तरफ हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है। अनुवाद वह साधन है जो हमें भौगोलिक सीमाओं से उस पार ले जाकर हमें दूसरी दुनिया के ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति,साहित्य-शिक्षा आदि की विलक्षणताओं से परिचित कराता है। दूसरे शब्दों में दुनिया में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में हो रही प्रगति या अन्य गतिविधियों का परिचय हमें अनुवाद के माध्यम से ही मिल जाता है। मोटे तौर पर यह अनुवादक ही हैं जो दो संस्कृतियों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम करता है। और तो और यह अनुवादक ही हैं जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्माकता एवं वैश्वीकरण की भावनाओं से ओतप्रोत कर देता है।
इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, संवाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं- ”अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए।”